अहंकार,
संस्कार,
विचार
और धर्म
“…हम स्वयं के अंतरंग में अधूरे,
खोखले
होने से, उस रिक्तता को स्वामित्व के भाव से,
सत्ता,
पद
या ज्ञान से, तुष्टिदायी सिद्धांतों इत्यादि से भरने
के लिए आगे बढ़ते हैं, मन की चीजों से उस खालीपन में भीड़ कर
देते हैं. भानपूर्वक अथवा अभानपूर्वक यह स्वयं को भर देने की,
आश्रय
खोजने की प्रक्रिया अहंकार का जाल है, यह अहं ‘मैं’
की
वह ईकाई, जिसने स्वयं का किसी सिद्धांत के साथ,
सुधार
के साथ, किसी विशिष्ट कर्म की पद्धति के साथ
तादात्म्य प्राप्त किया होता है. कुछ बनने की प्रक्रिया में- जो है स्व-पूर्ति -निरंतर
विफलता की छाया रहती है.
“….बचपन
से आप अपने जन्मदाताओं से प्रभावित हुए हैं, और समाज से
यह पाया है कि विशिष्ट विश्वासों तथा
सिद्धांतों के साँचे के अनुसार विचार को ढालना है. बाद में इस सबके विरोध में आप
भले बगावत करें और अन्य किसी साँचे को अपनावें, जिसे
धर्म कहा जाता है; आप
बगावत करें या न करें, आपकी तर्कबुद्धि आपकी सुरक्षा की
कांक्षा पर, ‘आध्यात्मिक’ दृष्टि
से सुरक्षित होने की चाह पर आधारित होती है, और
उस प्रेरणा पर आपकी पसंदगी, चुनाव
निर्भर करता है. कुछ भी हो, आखिर
तर्कबुद्धि या विचार संस्कार का नतीजा है, झुकाव
की, पूर्वग्रह की, चेतन
या अचेतन भय इत्यादि की परिणति है. आपकी बौद्धिक विचारणा कितनी ही तर्कशुद्ध और
कुशल क्यों न हो, वह उस तक नहीं ले जाती जो मन के परे
है. जो मन के परे है उसके उद्भव के लिए मन सम्यक रूप से निश्चल होना आवश्यक है.
“…विचार कभी मुक्त नहीं होता,
क्योंकि
हर विचारणा स्मृति का प्रतिसाद मात्र है; स्मृति के
अभाव में विचारणा नहीं होती. स्मृति या ज्ञान यांत्रिक है; अतीत
के कल में उसकी जड़ें होने से वह सदा ही अतीत का होता है. सब प्रकार की जिज्ञासा,
तर्कयुक्त
या अतार्किक, ज्ञान से प्रारंभ होती है;
जो
बीत चुका, उससे. जब विचार मुक्त नहीं है,
वह
बहुत दूर तक नहीं जा सकता; वह अपने
संस्कारों की, स्वयं के ज्ञान तथा अनुभवों की सीमा
में गतिशील रहता है. प्रत्येक नया अनुभव अतीत के अनुसार स्पष्ट किया जाता है,
और
इससे वह अतीत को प्रबल बनाता है, जो परंपरा है,
जिसे
संस्कारित अवस्था कहना होगा. इसलिए विचार सत्य के आकलन का पथ नहीं है.
“…मन का
उपयोग करने की प्रत्यक्ष प्रक्रिया में ही, स्पष्ट
विचारणा की; स्वस्थ, विवेचनात्मक
युक्तियुक्तता की प्रक्रिया में ही, हमें विचार
की मर्यादा का स्वयमेव पता चलता है. मानवी संबंध में विचार मन का प्रतिसाद है,
वह
भावरूप में या अभावस्वरूप में स्वहित से बद्ध है; वह
महत्त्वाकांक्षा से, मत्सर, स्वामित्व,
भय
इत्यादि से बँधा हुआ है. यह बंधन ही अहंकार है, और
मन जब इसे झाड़कर फेंक देता है, तभी वह
मुक्त होता है. इस बद्धता का आकलन है स्व-ज्ञान.
“धर्म
में विश्वास या आस्था होना, यह सत्य का
पथ नहीं है. आस्था और अनास्था प्रभाव की, दबाव की
बातें हैं, और जो मन खुलकर या प्रछन्न रूप से
दबाव के नीचे है, वह कभी सीधा उड़ नहीं सकता. मन को
प्रभाव से, आंतरिक विवशताओं से,
प्रेरणाओं
से मुक्त रहना होगा, जिससे वह अकेला रहे,
अतीत
की बेड़ियों से मुक्त, तभी कालातीत है,
उसका
आविर्भाव हो सकेगा. उसकी ओर जाने का कोई पथ नहीं है. धर्म किसी सिद्धांत की बात
नहीं है, न पुराणमतवादिता की या कर्मकाण्ड की;
वह
संघटित आस्था या विश्वास नहीं है. संघटित विश्वास प्रेम और मित्रता की हत्या करता
है. धर्म है पावित्र्य का भाव, करुणा की,
प्रेम
की अनुभूति.”
--जे.
कृष्णमूर्ति
No comments:
Post a Comment