Thursday 1 September 2016

बेटी के घर में चौदह दिन


                            बेटी के घर चौदह दिन
      इस साल 15 अगस्त को बनारस में था. पहली बार इतना लंबा समय बेटी के यहाँ गुजरा. गुज़रा क्या, कपूर की भांति उड़ता रहा. ऊपर के एक कमरे में मेरा निर्बाध साम्राज्य और बगल के कमरे में साहित्यकार समधी जी के पुस्तकों से भरे रेक. जब चाहे किताबों पर के गर्द झाड़-झूड़कर लाइए और बड़े से बिस्तर पर फैला दीजिए. अनपढ़ी किताबों के बीच सोना-जागना. मन करे तो लैपटॉप में डाऊनलोड गज़ल और क्लासिकल गाने सुनना. या कुछ लिखना. दूसरा कोई भी काम नहीं. अनप्रोडक्टिव जीवन का ऐसा सुख बेचारे अंबानी और अडानी को कहाँ से कैसे मयस्सर हो सकता है!
        लेकिन खाने की बुलाहट पर नीचे तो जाना पड़ता था. इसके अलावा एक और ब्रेक होता था. तेरह वर्ष के शुभू जी दरवाज़ा खटखटाकर आदेशात्मक अनुग्रह करते - चलिए नाना, टी टी (टेबल टेनिस) खेला जाय.
इन दिनों उनके टी टी पार्टनर पिताश्री किसी सेमिनार में लेक्चर देने नोएडा और फिर लेह गए हुए थे. तो खेलने के लिए उन्हें एक पार्टनर की तलाश है. खेल भी मेरे जीवन का पढ़ने‌-लिखने के बराबर का हिस्सा रहा है. थोड़ा-थोड़ा वॉलीबॉल, फुटबॉल, बैडमिंटन और टी टी तथा बहुत सारा क्रिकेट. कई अन्य चीज़ें भी. पर वह अंगरेजी का मुहावरा है न - जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स बट मास्टर ऑफ नन, अपने पर बिलकुल फिट है.
कभी-कभी संशय होता है क्या शुभू जी अपने नाना के ही नक्शेकदम पर तो नहीं जा रहे हैं, जिसे मैं क्या कोई भी नहीं चाहेगा. वे भी क्रिकेट खेलना चाहते थे. नैसर्गिक तकनीक है, ऐसा देखकर जब भी धनबाद आते यहाँ के कोचिंग कैंप में डाल दिया करता. महीने भर में काफी प्रगति करते. पर होमवर्क में रुचि नहीं थी, और न कठिन श्रम करना चाहते, जिसके बिना किसी भी खेल में महारत हासिल नहीं किया जा सकता. अब आठवीं में पढ़ाई कठिन हो गई और क्रिकेट इस साल से छूट गया.
इन चौदह दिनों में हमने उनके साथ खूब टेबल टेनिस खेला. शुरू के दिनों में प्रैक्टिस में न होने से मुझे ज़ल्दी हार जाना पड़ता. एक कमरे में, चारों ओर से किताबों और कपड़ों की आलमारियों से घिरे छोटे आकार के टी टी टेबल पर खेलना,.. इस में मेरा डेब्यू हो रहा था. इसके बावज़ूद, इसे मेरी हार का बहाना नहीं बनाया जा सकता. मैं भी बाद में संभलने लगा. यह सही है कि अपने नाती से मिली हार पर कभी भी मलाल नहीं हुआ, पर हार तो हार ही है. अंतत:, अंतिम दिनों में मैं बराबर की टक्कर देने लगा. तो अब तय हुआ है कि दशहरे की छुट्टियों में, एक बार फिर से, पूना में अपने छोटे बेटे अनुराग के यहाँ, बड़े टी टी टेबल पर हम दोनों के बीच जोरआज़्माई होगी.
बेटी ने जब हम लोगों का पहला रिज़र्वेशन रद्द किया तो सवाल कर बैठा - बेटी के यहाँ इतने ज्यादा दिन?
उसने ज़वाब दिया – बेटों के यहाँ दो-दो महीने रहते हैं तब तो कुछ नहीं पूछते.
मैं चुप रहा. पत्नी की उंगली में चोट थी. उसे आराम मिल रहा था. वस्तुत: इसी वज़ह से बेटी ने बुलाया भी था. मेरा उपन्यास छपकर आने वाला था और बड़े के ब्रिसबेन में तथा छोटे के पूने में होने की वज़ह से हम कम दिनों के लिए कहीं अन्य जगह जा भी नहीं सकते थे. दामाद टूर से लौटे तो एक दिन उनके साथ बिग बाज़ार जाकर वह अपनी मां के लिए एक अटैची खरीद लाई. उसकी मां की अटैची इस हद तक पुरानी हो चुकी थी कि उसकी चेन बंद और खुलने में आनाकानी क्या खूंटा गाड़ दे रही थी. और आजकल करते-करते काफी दिन निकल गए थे. मैं उसे पैसे देने लगा तो उसने जवाब दिया – आपके बेटे आप लोगों को कुछ खरीदकर देते हैं तब तो आप उनसे कुछ नहीं कहते! मैं भी उनकी तरह कमा रही हूँ और अपना पैसा दे रही हूँ तो ऐसा प्रश्न क्यों? बेटा-बेटी में भेद-भाव करते हैं?
लेकिन मैं भी क्या करता! आखिर ठहरा एक गंवई आदमी ही न! बचपन में एक बार अपने बाबा के साथ अपनी बड़ी बहन की ससुराल बउरहंत (शादीके तुरत बाद लड़की की ससुराल भेजे जाने वाले कपड़े और मिठाई आदि) पर गया था. ट्रेन से जाने और लौटने में 25-30 घंटे लग जाने थे. बाबा अपने साथ गमछे में घर से सत्तू-रोटी बांधकर लेते गए थे. उन्होंने बहन के घर का कुछ भी नहीं खाया था.
चौदह दिनों बाद स्टेशन पर दामाद, बेटी और नाती से विदा लेने के बाद पत्नी कुछ ज्यादा ही भावुक दिखाई दे रही थीं. जब ट्रेन चली तो ऐसा लगा जैसे वे अपना मन बनारस ही छोड़ आई हों.