Wednesday 13 December 2017

मेरे उपन्यास 'ये धुआँ कहाँ से उठता है' की समीक्षा


वैकल्पिक समाज विज्ञान का आख्यान : ये धुआँ कहाँ से उठता है
दुर्गा सिंह
'यह धुआँ कहां से उठता है', नारायण सिंह का लिखा और साहित्य भण्डार, इलाहाबाद से हालिया प्रकाशित उपन्यास है।हालांकि यह उपन्यास से ज्यादा महाआख्यानों की वापसी है।भारत की अपनी कथा परम्परा में भी अगर इसे देखें, तकनीकी रूप इसका महाआख्यान ही ठहरता है।यह उन्नीस अध्यायों में विभाजित है। हर अध्याय का एक शीर्षक है। तथा, प्रत्येक अध्याय के भीतर तीन प्लाॅट अलग-अलग मुख्य शीर्षक के संदर्भ से निकले और सम्बद्ध हो कर आते हैं। अभी हाल ही में संजीव का उपन्यास 'फाँस' भी प्रकाशित हुआ है।वह भी महाआख्यानात्मक शैली का उपन्यास है। बड़ा दिलचस्प है कि 1990 के दशक में चले 'अंत' की घोषणा का अंत हो गया और 'नव जन्म' शुरू हो गया।इसे मनुष्य जीवन व सभ्यता के विकास के हर सन्दर्भ से जोड़ कर देखा जा सकता है। क्या समाज, क्या राजनीति और अब साहित्य-संस्कृति भी! खैर
फाँस और यह धुआँ कहाँ से उठता है में एक और समानता है। 'फांस' जहां स्थानीयता के बावजूद भारत के समस्त किसानों की महाकथा है, तो 'यह धुआँ कहाँ से उठता है' स्थानीयता या आंचलिकता के बावजूद भारत के समस्त औद्योगिक मजदूरों की महाकथा है। अर्थात शैली में महाआख्यान तथा कथातत्व में महाकथा। यह सब पृष्ठों से नहीं तय होता। इसे रामचरित मानस और कामायनी से बखूबी समझा जा सकता है। 'फाँस' का भूगोल विदर्भ है तो 'यह धुआं कहां से उठता है' का कोयलांचल। बहरहाल,
सीधी बात यह कि अभी की चौतरफा लगी आग और उठे धुएं को समझना हो तो नारायण सिंह के रचे 'यह धुआँ...' से गुजरना न सिर्फ साहित्य-संस्कृतिकर्मियों-प्रेमियों-अनुरागियों के लिए बल्कि समाजशास्त्रियों, नृतत्वशास्त्रियों और सबसे बढ़ कर राजनीतिशास्त्रियों-शोधार्थियों-कर्मियों के लिए भी बेहद जरूरी है। जिन्हें नया रचना है-निर्मित करना है उन्हें तो जरूर बाकी जो पुराने की सड़ांध को इत्र सा बताये फिरे-बिखरे हैं उन्हें पंक की गौरवगाथा गाने दें!
कहानी पहलवान उर्फ भानुप्रताप उर्फ बीपी सिंह उर्फ श्रीमान तथा मनोहर उर्फ मनहर उर्फ मन सर उर्फ मन दा के गांव जवार से शुरू होती है और मीनाक्षी उर्फ मीनी उर्फ मीनू की जीवन-गति के साथ समाप्त होती है। इस गति के भीतर ही मनोहर-मीनाक्षी का प्रेम और भानुप्रताप की राजनीति अपनी अपनी यतियां लिए आते हैं। परिवेश में है कोइलरी की धरती के भीतर बंधी आग और उसकी दरारों से उठता धुआं और इसमें क्रमशः ओझल होता भारत का लोकतंत्र। उपन्यास का जो केन्द्रीय विचार है यही है। उद्देश्य है इसमें राह तलाशती विचारधाराएं- उनका द्वन्द्व, संघर्ष, अन्तर्विरोध व वास्तविकता की तश्वीर पेश करना और उसमें वर्तमान को पहचानना और मानव मुक्ति का लक्ष्य तय करना।
कथा-समय 1960 से 1980 के बीच का है। कांग्रेस की राजनीति में अपराधियों, लम्पटों का प्रवेश, व्यक्तिपूजा, मूल्यों से तौबा और वर्णवाद और लोकतंत्र के बीच संतुलन का टूटना-धसकना। एक राष्ट्रीय पार्टी के बतौर मुख्य विपक्षी भाकपा में अवसरवाद, व्यक्तिवाद का बढ़ना व सबसे बढ़ कर भारत के समाज के भीतर संरचनागत आधार रूप में मौजूद वर्णवादी, जातिगत तथा सामंती विभाजन से समझौता व सहयोग, पार्टी का विभाजन तथा नक्सलबाड़ी का उदय, न सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर बल्कि पूरी भारतीय राजनीति में एक दम नये तत्व का प्रवेश। बांग्लादेश का बनना, आपातकाल, जेपी की अगुवाई में आपातकाल विरोधी राजनीतिक मंच का बनना, समाजवादी दलों व जनसंघ का मिल कर जनता पार्टी बनना और कांग्रेस के भीतर प्रविष्ट हुए अपराधियों, ठेकेदारों का सम्पूर्ण क्रांति की सवारी कर खुद नेतृत्व में आ जाना व भारतीय राजनीति में स्थापित हो जाना तथा इन्दिरा गांधी की सत्ता में पुनः वापसी, जनता पार्टी का बिखरना व उसमें से भारतीय जनता पार्टी का बनना इस बीच की घटनाएं हैं।
प्रसंग में मनोहर और मीनाक्षी का प्रेम, कांग्रेसी सत्ता के प्रतिनिधि सीपी सिन्हा और सीपीआई विधायक एसके शर्मा के ट्रेड यूनियनों के बीच वर्चस्व की जंग, इसी में एक छोटे किसान व ठाकुर परिवार के आर्थिक संकटों से कोलियरी में मजदूर बनने को विवश गांव में पहलवानी करने वाले भानुप्रताप का क्रमशः विधायक बनने तक का विकास। ट्रेड यूनियन राजनीति में मजदूरों के हक हूकूक व वर्ग राजनीति के प्रतिबद्ध लीडर एके विश्वास के लोकप्रिय होने, नक्सल समर्थक होने पर सीपीएम से निकाले जाने लेकिन सीटू के महासचिव बने रहने, आदिवासी विमर्श व झारखण्ड आन्दोलन के पक्षकार तथा संसद तक का सफर। रवि चक्रवर्ती उर्फ रतन घोष का बतौर नक्सली नेता विकास, कम्युनिस्ट राजनीति में जाति व अस्मितावादी विमर्श को वर्ग राजनीति की बहस में शामिल करने की पैरोकारी, पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित बंगाली सत्तन बाबू के परिवार की दारुण स्थिति व त्रासदियां, मनोहर की पत्नी की आत्मकथा तथा इन्हीं के इर्द गिर्द बाकी प्रसंगों व चरित्रों की बुनावट। 
नारायण सिंह ने बेहद स्पष्ट दृष्टि व विचार के साथ यह बुनावट की है। सबसे महत्वपूर्ण कि वस्तुगत रहते हुए। खास कर तब और जब राजनीतिक वस्तु कथा के केन्द्र में हो और प्रेम कथा उसमें एक लगातार बहने वाली अंतर्धारा के रूप में मौजूद हो। आत्मगत होने का खतरा बराबर बना रहता है, लेकिन नारायण सिंह ने अपने इस उपन्यास में यथार्थवाद की ऐतिहासिक परम्परा के साथ वर्तमान विमर्शों की ऐतिहासिकता को भी बेहद स्पष्ट दृष्टिकोण से बुना है।
यह बात कोई भी जो उनके विचारधारा और प्रतिबद्धता के प्रति पूर्वाग्रही न हो, उपन्यास पढ़ कर जान सकता है। खैर मशहूर मार्क्सवादी चिंतक रणधीर सिंह ने मार्क्सवाद को वैकल्पिक समाज विज्ञान कहा था। नारायण सिंह का उपन्यास इसकी ताकीद करता है।इसमें राजनीति विज्ञान, समाजविज्ञान, नृतत्व विज्ञान, भाषा, दर्शन, लोक सब उसी ज्ञान व दर्शन की उसी प्रक्रिया से देखे-समझे आत्मसात किये गये हैं।
दो प्रसंगों का जिक्र इस सिलसिले में उल्लेखनीय है।
कबीलों से राज्य की उत्पत्ति या राज्य का विकास या निर्माण तभी हुआ, जब रक्त सम्बन्धों व गोत्रों का विघटन हुआ। राज्य कबीले से बड़ी इकाई थी।वह और व्यापक उत्पादन सम्बन्धों पर टिका होता है, जिसे रक्त सम्बन्धों और गोत्र संरचना से नहीं बनाया जा सकता। प्रारम्भिक राज्य निर्माण में इसीलिए रक्त सम्बन्ध व गोत्र की संरचना टूटी या राज्य से इसकी टकराहट हुई। प्राचीन भारतीय राज्यों में जो राजपरिवारों में षड्यंत्र की कहानियां हैं, वह इसी को दिखाती हैं। लेकिन यह हर समाज और भूगोल में अलग अलग समयों में घटित हुआ। एक साथ नहीं। इसमें लोकतंत्र और समाजवाद या साम्यवाद राज्य के विकास की सबसे अधुनातन और उच्चतर अवस्थाएं हैं। इसीलिए अभी भी रक्तसम्बन्धों व गोत्र पर टिके धार्मिक या कबीलियाई समाजों से इनकी भयंकर टकराहट है। भारत में अभी जो संघ-भाजपा के नेतृत्व में चल रहा है वह लोकतंत्र के साथ उसकी वही टकराहट है। लेकिन यह आजादी के पहले से कांग्रेस के भीतर रहा और आजादी के बाद कन्टीन्यू किया जिसका चरम रूप संघ-भाजपा के उभार में व्यक्त हुआ।
अब उपन्यास से एक प्रसंग लेते हैं- जब भानुप्रताप कोलियरी में सीपी सिन्हा के गुण्डे के रूप में ट्रेड यूनियन में दाखिल हुआ, तो उसने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए अपने रक्त सम्बन्धियों व गोत-दयादों को कोलियरियों में भर्ती करना शुरू किया। राजनीति में जो ऊपर परिवारवाद था, वह नीचे उतर आया। जेपी की सम्पूर्ण क्रांति में यह नेतृत्व में आ गया। इससे हुआ यह कि आजादी के बाद अंगीकृत लोकतंत्र की संचारक शक्ति वर्णवाद, ब्राह्मणवाद या वर्णवादी सामंतवाद या भारतीय सामंतवाद बना रहा। नतीजा आज सामने हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ कर हर पार्टी में रक्तसम्बन्धों या गोत-दयादों का वर्चस्व है। और यह लोकतंत्र का घोर विरोधी होता है। यह धुआं तब का भी अब का भी यहां से उठता है। नारायण सिंह का उपन्यास इसे दिखाता है।
एक दूसरा प्रसंग है:
मनोहर व भानुप्रताप का जो वंश-गोत्र है, उसका एक किस्सा है। अलाउद्दीन खिलजी पराजित राजपूतों के सामने दो शर्त रखता था- या तो मेहतरी करिए या इस्लाम स्वीकारिए। भानु वगैरह के जो पूर्वज थे, वे पांच भाई थे। बड़े भाई ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और साथ ही यह विश्वास दिला दिया कि जब बड़े भाई ने स्वीकार कर लिया तो छोटे भाई स्वतः इसमें शामिल हो गये। लेकिन बड़ा भाई जब वापस आता है तो बाकी के चार उसे म्लेच्छ कहते हुए सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। जमीन-जायदाद से अलग कर देते हैं। एक प्राकृतिक आपदा में वह परिवार विस्थापित हो कर कोलियरी में आ जाता है। बाकी चार भाई राजपूत बने रहते हैं, इसी से भानुप्रताप और मनोहर जुड़े हैं। जब हारिस की हत्या होती है जो भानु का वफादार सहयोगी होता है, तब मनोहर उसके घर जाता है। वहां हारिस का बड़ा भाई जब मनोहर का गांव सुनता है, तो कहता है कि तुम्हारी बुनियाद में धोखा है क्योंकि हारिस उसी बड़े भाई का वंशज होता है। भानु का सबसे खास व साये की तरह रहने वाला हाकिम भी उसी वंश परम्परा से है। भानु के विधायक बनने के बाद हाकिम की हत्या हो जाती है, जिसमें शक भानु के भाई पर जाता है और जो अब हाकिम की जगह ले लेता है।
यह प्रसंग आज मुसलमानों के खिलाफ बनाये जा रहे माहौल और उनके प्रति गढ़े जा रहे झूठ को बेपर्द करता है और सामन्ती समाज की ब्राह्णणवादी विभाजन की विचारधारा के आजादी के बाद भी निर्णायक बने रहने को दिखाता है। इसी विभाजन को पुख्ता करता प्रसंग है सत्तन बाबू का जो पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित बंगाली हैं, लेकिन उन्हें भारत में अलगाव का शिकार सदैव बने रहना पड़ता है और सच्चा बंगाली नहीं माना जाता। जिस प्रकार पाकिस्तान में गये भारत के मुसलमान सच्चे मुसलमान नहीं माने जाते ।और पूर्वी पाकिस्तान से आये बंगाली सच्चे बंगाली नहीं माने जाते।धार्मिक या जातीय एकता भूगोल के आधार पर खण्डित हो जाती है और विभाजित पहचान को जन्म देती है।यह सामन्तवादी सामाजिक धार्मिक संरचना का सबसे अधिक कैरेक्टरिस्टिक और क्लासिकल गुण है।भारतीय सामंतवाद की यही विशिष्टता उसे योरोपीय सामंतवाद से अलग करती है।और यह विशिष्ता वर्णवादी या ब्राह्मणवादी विचारसरणि से उत्पन्न होती है।इसे चुनौती सिर्फ एक बार खिलजियों से मिली पर मुगलों में नव स्थापित हुई और अंग्रेजों के समय में इसे ही भारतीयता कहा गया।आजादी के आन्दोलन में यह कांग्रेस के भीतर तो आजादी के बाद पूरे देश में संविधान द्वारा स्वीकृत लोकतंत्र से इसका द्वन्द्व, तनाव, संघर्ष लगातार जारी रहा।और सत्तर तक जाते जाते दोनों के बीच संतुलन साधने की राजनीति ध्वस्त हो गयी।यह धुआं यहां से उठता है।बाकी हर हर मोदी और महिषासुरमर्दिनी तथा मोदी मोदी व इन्दिरा इज इण्डिया या इण्डिया इज इन्दिरा का दिखता ऐक्य महज संयोग नहीं भले ही लेखक की घोषणा है कि उपन्यास में जीवित पात्रों व सच्ची घटनाओं से समानता महज संयोग है। 
कहने का आशय यह कि नारायण सिंह ने यह जो महाआख्यान रचा है, वह जिस स्पष्टता, ईमानदारी से सम्भव हुआ है उसमें वैकल्पिक समाज विज्ञान की पूरी समझ कायम है।
अंत में प्रेम की इतनी सघन, इतनी दैहिक, इतनी स्प्रिचुअल अन्तर्कथा की बुनावट, पुराने तो छोड़िए नये कथाकारों के लिए भी चुनौती है।इस बात को उपन्यास पढ़ कर ही समझा और जाना जा सकता है।
उपन्यास के अंत में एक धुआं चिता से भी उठता है
कुल मिला कर न सिर्फ हमारे समय, बल्कि हिन्दी उपन्यास के इतिहास में एक अनूठी, विरल उपलब्धि है यह उपन्यास।