Saturday 26 July 2014

प्रभुता का पराभव अर्थात ईश्वरता का 'उपसंंहार'

प्रभुता का पराभव अर्थात ईश्वरता का ‘उपसंहार’
नारायण सिंह

मैथिली शरण गुप्त की दो पंक्तियाँ याद आती हैं,
‘‘राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है;
कवि कोई बन जाय सहज संभाव्य है।’’

बाल्मीकि के रामायण से लेकर अभी हाल में चर्चित और विवादित रामानुजन की प्रसिद्ध रचना ‘तीन सौ रामायण’ तक राम पर न जाने कितनी पोथियां रची गई हैं। किंतु कुछ लोगों का मानना है कि इनके बरअक्स कृष्ण पर केंद्रित रचनाएँ ज्यादा विविध और अपेक्षाकृत संख्या में ज्यादा हैं।
विद्वानों का एक वर्ग यह मानता है कि कृष्ण का व्यक्तित्व ज्यादा बहुआयामी, दुर्धर्ष, विनाशक होने के साथ-साथ नारी का पक्षधर और मानवीय रहा है। शायद इसी कारण पुरुषों  में जहाँ राम को ज्यादा लोकप्रियता मिली है, आधी आबादी के एक बड़े वर्ग में कृष्ण तुलनात्मक रूप से ज्यादा लोकप्रिय हैं। मथुरा-वृंदावन में आज भी मौजूद  हिन्दू परित्यक्ताओं और विधवाओं की एक बड़ी संख्या देखकर यह अंदाज लगाना कठिन नहीं कि विवश और बेसहारा स्त्रियों का अंतिम संबल पत्नी के संकटकाल में उसका परित्याग करने वाले राम नहीं, द्रौपदी की लाज बचाने और प्रागज्योतिषपुर (आसाम) में भौमासुर की कैद से सोलह हजार बंदी किशोरियों को मुक्त करके उन बेसहारों का द्वारका में  पुनर्वास और भविष्य में सम्मानित और सुरक्षित जीवन हेतु अपने नाम का मंगलसूत्र बंटवाने (का प्रचार करने) वाले कृष्ण ही हैं।
कृष्ण पर लिखी जाने वाली अनगिनत रचनाओं में काशीनाथ सिंह का ताजा उपन्यास ‘उपसंहार’ भी शामिल हो गया है। इसके नायक वही मिथकीय कृष्ण हैं, जिन्हें पुराणों और महाकाव्यों ने विष्णु का अवतार कहा है। ‘महाभारत’ में भगवान विष्णु की विशेषताओं का विशद वर्णन करने के बाद कहा गया है, ‘‘वे ही भगवान विष्णु दुष्टों का दमन और धर्म संरक्षण करने के लिए मनुष्यों के बीच यदुकुल में अवतीेैर्ण हुए हैं। उन्हीं को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे अनादि, अनन्त, अजन्मा, दिव्य स्वरूप, सर्वसमर्थ और विश्ववंदित हैं।’’ (विराट पर्व, अध्याय 272, श्लोक-72)
पिछली फरवरी में संपन्न दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में राजकमल के स्टाल पर जब यह पुस्तक आई तो वहाँ मौजूद किसी विद्वान ने काशीनाथ सिंह से ही पूछा कि एक प्रगतिशील रचनाकार की कलम से ऐसा (शायद प्रतिगामी के अर्थ में) विषय! वहाँ के शोर-शराबे के बीच काशीनाथ सिंह की आवाज सुनाई दे गई कि इस पर कोई भी निर्णय पढ़ने के बाद ही लिया जा सकता है। एक समय उनके आलोचक उन पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि चुके हुए लेखकों द्वारा ही संस्मरणों और ‘काशी का अस्सी’ जैसों का आश्रय लिया जाता है। और जब ‘रेहन पर रग्घू’ और उसके बाद ‘महुआ चरित’ का प्रकाशन हुआ तो फिर से वही लोग यह प्रश्न उठाने लगे कि ‘काशी का अस्सी’ के रचनाकार द्वारा  ‘महुआ चरित’? जहाँ तक मेरी समझ है, काशीनाथ सिंह समय-समय पर अपनी हद खुद से तय करते हैं और जब आलोचक को यह संशय होने लगता है कि बस यही उनकी सीमा है कि तभी अचानक से वे एक ऐसी रचना लेकर आ जाते हैं जो पहले की सीमाओं को तोड़ती-फोड़ती एक दूसरा मानक गढ़ जाती है।
मिथकीय चरित्रों को लेकर लिखी जाने वाली रचनाओं में सबसे बड़ा तत्त्व होता है उसकी प्रासंगिकता और पाठक का उसके पात्रों के साथ साधारणीकरण के तल तक पहुँच जाना। चाहे ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी) हो, चाहे अभी हाल में प्रकाशित महेश कटारे का भर्तृहरि को लेकर लिखा गया उपन्यास  ‘कामिनी काय कान्तारे’, कथा में उपस्थित प्रासंगिकता ही उन्हें अत्यंत महत्वपूर्ण और सार्वकालिक बनाती है। ‘उपसंहार’ को पढ़ते हुए पाठक को उपन्यास के भीतर से बाहर और बाहर से भीतर बार-बार आवाजाही करनी पड़ती है। इस उपन्यास का बीज कब पड़ा इसे तो रचनाकार ही बता सकता है, किंतु इसके प्रकाशन की टाइमिंग कुछ इतर बातें भी सोचने पर विवश करती हैं।
उपन्यास की कथा कृष्ण की तो है किंतु इसके कृष्ण में ब्रज और गोकुल का कम द्वारका का अंश ज्यादा है। और यह द्वारका प्रकारांतर से, किसी अन्य नाम से, आज की राजनीति और उससे भी ज्यादा (कारपोरेट) मीडिया में पूरी तरह धमाचैकड़ी मचाए हुए है। आज की द्वारका ‘हर हर’ के बड़बोले उद्घोष के माध्यम से ‘घर घर’ में पहुँचकर यह सिद्ध करने के लिए आकुल-व्याकुल है कि ‘आर्यावर्त की मुख्यधारा हस्तिानपुर से नहीं द्वारका से निकलती है।’
तथापि यहाँ यह भी विचारणीय है कि महत्वाकांक्षाओं के महाभारतकाल में जहाँ आर्यावर्त में ब्राह्मण, महिलाएँ और बच्चों को छोड़कर कुछ भी नहीं बचा रहा पाया, द्वारका भी विनाश की आग से अछूती नहीं रह सकी और अंत में खुद भी नष्ट हो गई। इस उपन्यास का रूपक शायद आज के संदर्भ में भी  यही इंगित करने का प्रयास करता लग रहा है, हालांकि इसे सिद्ध होना अभी भविष्य के गर्भ में है।
जब अपनी ईश्वरता पर कृष्ण स्वयं प्रश्न उठा सकते हैं तो फिर उनकी महत्वाकांक्षा पर क्यों नहीं बात की जा सकती? कृष्ण स्वयं यह रहस्य खोलें उसके पहले बलराम की यह भत्र्सना द्रष्टव्य है,
‘‘तुम अधर्म की नींव पर धर्म की जर्जर इमारत खड़ी कर रहे थे। कहकर गये थे द्वारका से कि यह अधर्म के विरुद्ध धर्मयुद्ध है, धर्म की स्थापना करनी है। किस धर्म को स्थापित किया? न्याय को? इ्र्रमानदारी को? भईचारे को? प्रेम को? किसको? प्रेमयोग का ज्ञान देते घूम रहे हो और दादा को पोते से, मित्र को मित्र से, गुरु को शिष्य से और भाई को भाई से मरवा रहे हो। पूरे आर्यावर्त में घूम कर देखा मैंने, ब्राह्मणों, महिलाओं और बच्चों को छोड़कर कोई नहीं बचा है। इसे किस धर्म की स्थापना कहेंगे?.................हाँ, इस युद्ध के बाद इतना जरूर हुआ कि जो पहले दबे स्वर में तुम्हें अवतार या ईश्वर कहते थे, वे खुलकर स्तुतिगान करने लगे।....तुम्हें भी अच्छा लगता था और मुझे भी खुशी होती थी कि चलो मेरा छोटा भाई ईश्वर है, मैं ईश्वर का बड़ा भाई हूँ। ...लेकिन एक प्रश्न मेरे मन में बराबर उठता है कि ईश्वर का काम केवल संहार करना है? निरर्थक, निरुद्देश्य, निःस्वार्थ संहार?’’
‘उपसंहार’ के कृष्ण में ईश्वर बनने की जबरर्दस्त एषणा है, लेकिन यह एषणा किसी निजी भौतिक लिप्सा से नहीं, अपने और अपने कुल के अपमान के गर्भ से पैदा हुई है। अपने आदिपुरुष यदु के शापित होकर कुल के क्षत्रियत्व से वंचित होने के कारण उन्हें जगह-जगह क्षत्रिय  राजाओं द्वारा अपमानित होना पड़ता है। उन्हें किसी कर्ता के रूप में नहीं मात्र एक भीड़ का एक बेनाम चेहरा बना दिया जाता है। उनके अंदर यह विचार उठता है कि क्या मनुष्य का मनुष्य होना काफी नहीं है। प्रकारांतर से उनकी ईश्वरता अवतार के विमान से धरती पर नहीं उतरी है, उसे अपमान के पंक ओर पीड़ा से गुजरकर प्राप्त किया गया है। वे यादव, ग्वाले, चरवाहा, रासरचैया, बंसीबजैया सुनते सुनते थक चुके हैं। इस संदर्भ में बलराम की डांट के उत्तर में दिया गया उनका भी वक्तव्य देखा जा सकता है,
‘‘और रही बात ईश्वर की /तो मैं ईश्वर कहो या वासुदेव-होना चाहता था/ क्योंकि उसकी कोई जाति नहीं होती, वर्ण नहीं होता, गोत्र नहीं होता/अकेला वही है जो वर्णाश्रम के बंधनों से मुक्त है/और दाऊ, कोई हारने के लिए नहीं लड़ता/लड़ता है विजय के लिए /और विजय गांडीव के रास्ते नहीं मिलती/मिलती है रणनीति से/जिसे तुम छल कपट, झूठ, अधर्म कहते हो/वे रणनीति के ही अंग हैं और मैंने रणनीतिकार की भूमिका उसी दिन तय कर ली थी जिस दिन स्वयं को निःशस्त्र घोषित किया था।’’
इसका यह अर्थ भी लगाया जा सकता है कि निःशस्त्रीकरण रणनीति के अंतर्गत आता है। यहाँ यह विचारणीय है कि ‘उपसंहार’ के कृष्ण पैराशूटी (अवतारी) ईश्वरता की अवधारणा को ध्वस्त करते हुए इसे नए सिरे से परिभाषित करते दिखाई देते हैं, ‘‘बस यह समझो कि प्रत्येक मनुष्य कभी न कभी कुछ ही पलों या क्षणों के लिए ही सही, किसी न किसी का ईश्वर हुआ करता है। ऐसा एक बार नहीं, कई बार हो सकता है। आखिर ईश्वर है क्या? मनुष्य के श्रेष्ठतम का प्र्रकाश ही तो। और यह प्रकाश प्रत्येक मनुष्य के भीतर होता है। लेकिन फूटता तभी है जब किसी को कातर, बेबस, निरुपाय और प्रताड़ित देखता है। मैं भी था ईश्वर। हाँ मेरी अवधि किन्हीं कारणों से थोड़ी लंबी खिंच गई रही होगी।’’
यहाँ पुस्तक में वर्णित समुद्र, विश्वकर्मा आदि देवताओं का प्रकट होकर उनके द्वारा द्वारका और कृष्ण के ऐश्वर्य को निर्मित करने की मिथकीय रहस्यमयता का रूपक खुलने लगता है और इस मियादी प्रभुता के पराभव काल में, महाभारत युद्ध के लगभग तीन-चार दशक बाद, नाती पोतों और वृद्ध होती अपनी पीढ़ी के बीच, प्रभुता के वे तमाम उपस्करण और उपकरण जब उनका साथ छोड़ने लगते हैं, आत्ममंथन के दौर में अपने अकेले हो चुके ईश्वर और उसके अतीत-कर्म पर प्रश्न उठाने लगते हैं।
यह संशय और द्वैध कभी-कभी चुनौती बनकर उभरता है और उन्हे एक त्रासद   चरित्र में परिवर्तित कर देता है। द्वारका गणराज्य की नारायणी सेना के मृतकों के परिजनों का रुदन मानों यह कहता प्रतीत होता है, ‘‘क्या पता कि हमें उजाड़कर उन्हें भगवान बनना था, उनके तो अस्सी के अस्सियों बेटे संड-मुसंड घूम रहे हैं।’’ नागरिकों की इस कटुक्ति को सुनकर ही शायद जो पहले कभी नहीं कह पाए थे पहली बार कह पाते हैं, ‘‘दारुक, किसी राज्य का महल इतनी ऊँचाई पर नहीं होना चाहिए कि वह लोगों का रोना-गाना न सुन सके।’’ यदि यह रुदन और गायन पहले सुनाई देता तो क्या संहार का महाभारत नहीं घटित होता?
जो भी हो, युद्ध के परिणाम पर वे संशयग्रस्त नहीं, सन्न हैं। हस्तिानपुर में अकाल है, महामारी है। नदियाँ सूख गई हैं। जंगल जल गए हैं, धरती जलकर राख हो गई है और युधिष्ठिर राजधर्म का पालन न करके  तीर्थाटन की बातें कर रहे हैं। तो क्या वह विनाश ऐसे ही राज्य की स्थापना के लिए हुआ था कि लोग चोर-लुटेरों से असुरक्षित भूख से मरते रहें। तब दुर्योधन ही क्या बुरा था? तब क्या उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिए था? क्या वे चाहते तो युद्ध रुक सकता था? ऐसे अनगिनत सवाल उन्हें मथे दे रहे हैं।
ऐसे में धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’ की गांधारी याद आती है, जिसने दुर्योधन की मृत्यु के पश्चात कहा था कि ‘कृष्ण, यदि तुम चाहते तो रुक सकता था युद्ध यह।’ ‘उपसंहार’ में भी कृष्ण एक स्थान पर स्वयं से कहते हैं कि वे यदि चाहते तो युद्ध रुक सकता था। जब कृष्ण और बलराम-दो भाई होते हुए मथुरा के स्थान पर द्वारका जैसा सुन्दर नगर बसा सकते हैं फिर पांच भाई होकर पांडव ऐसा क्यों नहीं कर सकते थे। उन्हें भीख में पाँच गांव मांगने की जरूरत ही क्या थी?
......
‘उपसंहार’ अकिंचन से ऐश्वर्य की ओर प्रयाण करने और प्रभुता पाने के क्रम में संवेदनाओं और रिश्तों-नातों के छूटने-टूटने और  पराभव काल में महसूस किये जाने वाले अकेलेपन और असमर्थता का महाआख्यान है। यह बाँसुरी के आह्लादकारी राग के कर्कश पांचजन्य के आतंककारी फुफकार में रूपांतरित हो जाने और असफल प्रेम के ईश्वरता की विध्वंसकारी एषणा में परिवर्तित हो जाने की करुण कथा है।
कृष्ण की भले ही आठ रानियाँ रही हों, द्रौपदी जैसी सखा रही हो, प्रेम तो उन्हें केवल राधा से है। और यह प्रेम अन्य रचनाकारों द्वारा महिमामंडित केवल अलौकिक और अशरीरी प्रेम नहीं। ‘उपसंहार’ में इस प्रेम में देह भी पूरी तरह शामिल है। गोकुल से मथुरा जाना, उस प्रेम को तात्कालिक रूप से स्थगित करना है। ‘जल्दी ही आऊंगा, घबराना नहीं’ के जबाब में ‘तुम क्या आओगे? आऊँगी मैं और तुम्हें ले जाऊँगी’, कहने वाली राधा अन्य रचनाकारों की आम गोपिका नहीं जो किसी संवदिए के समक्ष हजार आंसू रोए। जब कंस-वध के बाद भी कृष्ण नहीं लौटते तो राधा कृष्ण से मिलने स्वयं मथुरा के अतिथि-आगार में जा पहुँचती है। उस समय तक कृष्ण में गोकुल कहीं न कहीं जिन्दा है। इसलिए वहाँ दो भावाकुल प्रेमियों का मिलन है। एक दूसरे की बाहों में समाना है और बहुआयामी चुंबन हैं। लोकलाज, घर गृहस्थी सबकुछ तजकर आई राधा अपनी पूरी देह के साथ कृष्ण के समक्ष समर्पण करने को उत्सुक है, किंतु उसकी बस एक ही शर्त है। यह शर्त है कि प्रेम में अब तक बचा बाकी सब कुछ का समर्पण मथुरा के महल में नहीं जमुना के कछारों में, करील के कुंजों में संपन्न होगा, जहाँ उनका प्यार जनमा है। यह मनुहार शायद शर्त बनकर इसलिए आती है ताकि ईश्वरता के पथ पर चलने को उद्धत कृष्ण वापस गोकुल में लौट आवें और एक साधारण मनुष्य बनकर रहें। हो सकता है संभावित विनाश का पूर्वाभास पाकर इसे रोकने के प्रयास में यह शर्त रखी गई हो। पर होनी को ईश्वर भी नहीं टाल सकते। ‘‘यह कैसे संभव है राधा? बाहर निकलना ठीक नहीं है अभी। मेरे खून के प्यासे हैं कंस के आदमी, रानियों के सेवक-सेविकाएँ, दुर्ग के बाहर जरासंध के गुप्तचर। अभी तो समझ भी नहीं पाया हूँ यहाँ ही राजनीति।’’
यहाँ क्या लगता है? अपने बाल्यकाल में ही ढेर सारे दुश्मनों को मार गिराने वाला कृष्ण, ईश्वर बनने की राह में भयभीत है या  प्रभुता पाने की राह में आनेवाले इस प्रेम की बाधा को तुच्छ जान किनारे कर देना चाहता है? लेकिन राधा अंतिम चाल चलती है, ‘देखो कान्हा, मैं कहीं भागी नहीं जा रही हूँ। रहूँगी बरसाने में ही। इंतजार करूंगी और वहाँ कोई शर्त भी नहीं रहेगी। समझे।’’
लेकिन कृष्ण नहीं समझे। या समझना नहीं चाहा। वे चले जाते हैं और भूल जाते हैं। उन्हें राधा याद आती भी है तो प्रभुता के पराभव-काल में।  प्रेम और विध्वंस एक दूसरे के विरोधी हैं। यह भी हो सकता था कि यह प्रेम महाभारत के विध्वंस से आर्यावर्त को बचा ले जाता। हाँ, कृष्ण जरूर ईश्वर होने से वंचित रह जाते। शायद इसीलिए विध्वंसकारी ईश्वर प्रेम से डरकर भाग गए लेकिन  एक एक करके आठों रानियों में प्रेमयोग की प्रथम दीक्षागुरु की तलाश करते रहे।
विडंबना यह है कि यह विनाश भी उनसे स्वयं संपन्न नहीं हो सका। उन्होंने इसके लिए दूसरों को तैयार किया और  अर्जुन तैयार नहीं हुआ तो ऐन युद्ध से पहले युद्ध के पक्ष में तमाम तर्क देते हुए टेलीपैथी और मेस्मरिज्म के सहारे उसे तैयार किया। गौर करने की बात है कि मथुरा से जो कृष्ण जरासंध के आक्रमण से अपने लोगों को बचाने और शांति से रहने-रखने के उद्देश्य से द्वारका गए  थे, वही कृष्ण अर्जुन को इस विनाशकारी युद्ध के लिए तैयार करते हैं और इसे हमारे शास्त्र और पुराण श्रीमद्भागवतगीता का नाम देते हैं। यह वही गीता है जो बौधकालीन भारत के दौर में गुमनामी की धुंध का शिकार हो गई थी और पुनरुत्थान काल में (आचार्य) शंकर ने इस पर अपना भाष्य लिखकर आर्यावर्त के इस कोने से उस कोने तक भ्रमण करते हुए हिंदुत्व से भी ज्यादा ब्राह्मणवाद और अवतारवाद की पुनस्र्थापना की थी। यह वही गीता है जिसे अहिंसा के  पुजारी मोहनदास करमचंद गांधी अपनी प्रेरणा  का महानतम स्रोत मानते थे और तिलक, अरविन्द, राजगोपालाचारी से लेकर रजनीश तक ने जिस पर अपने-अपने ढंग से टीका-टिप्पणी करते हुए इसे महिमामंडित किया है। यह वही गीता है जिसका जर्मन                                   भाषा में  ड्यूसन द्वारा किया गया अनुवाद पढ़कर शाॅपेनहावर जैसा दुखवादी उत्साह से सड़कों पर नृत्य करने लगा था।
‘उपसंहार’ के कृष्ण उसी गीता के कृष्ण हंै, राधा द्वारा भेंट की गई जिनकी बांसुरी द्वारका तक आते आते कुचले मुंह वाले बांस के हाथ भर के फट्ठे भर रह गई है। और ‘परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम’ के छद्मवेश में अब उनका पांचजन्य, जिसकी ध्वनि से धरती कांपने लगती थी, पहाड़ हिल उठते थे, समुद्र किनारा छोड़कर भाग खड़ा होता था, विनाशसूचक उद्घोषणा करने लगा है। यह भी जानना दिलचस्प है कि कौन हैं ये साधु जिनके परित्राण के लिए विष्णु को बार-बार अवतार लेना पड़ता है। जाहिर है कि विनष्ट हो चुकी अठारह अक्षौहिणी सेना में शामिल साधारण जन तो नहीं ही रहे होंगे। तब?
महाभारत में साधु की पहचान इस प्रकार बताई  गई है- जो पुरुष (ध्यान दीजिए केवल पुरुष) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि  समस्त सामान्य धर्मों तथा यज्ञ, दान, तप एवं अध्यापन,प्रजापालन आदि अपने-अपने वर्णाश्रम धर्मों का भलीभांति पालन करते हैं, दूसरों का हित करना ही जिनका स्वभाव है, जो सद्गुणों के भंडार और सदाचारी हैं, तथा श्रद्धा और प्रेमपूर्वक भगवान के नाम, रूप, गुण, प्रभाव लीला के श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि करने वाले भक्त हैं- उनका वाचक यहाँ ‘साधु’ शब्द है।                                                             
       इन गुणों से संपन्न कोई भी साधु पूरे महाभारत में कहीं भी नहीं दिखाई देता। अनंतमूर्ति के प्रसिद्ध  उपन्यास ‘संस्कार’ में नारणप्पा द्वारा इन तथाकथित साधुओं या ब्राह्मणों की बखिया खूब उधेड़ी गई है। ‘उपसंहार’ में भी कृष्ण का एकालाप क्या कहता है, इसे देखना दिलचस्प है,‘‘ये जिसकी दान दक्षिणा और सेवा-सत्कार से प्रसन्न हों उसे नारायण बना दें और जिससे असंतुष्ट हों उसे असुर और राक्षस।’’ दुर्वासा ऐसे ही साधुओं के भी साधु हैं। उनके आदेश से कृष्ण खुद के साथ रुक्मिणी को भी नंगा होने देते हैं और इसी स्थिति में जिस छकड़े पर दुर्वासा बैठे हैं, उसे सरेबाजार खींचते चलते हैं। अराजक और क्रोधी दुर्वासा के जाने के बाद तनावमुक्त हो चुके कृष्ण कहते हैं, ‘‘क्यों आया था? क्या यह जताने आया था कि देख लो अपनी औकात/हम  हैं जो तुम्हें ईश्वर बना सकते हैं/तो मटियामेट भी कर सकते हें./....आप ब्राह्मण हंै इसीलिए आवध्य हैं?/आपने अपने पास शाप या वरदान देने की ऐसी शक्ति रख ली है/ जिसकी काट सृष्टि के पास नहीं  हैै/  न उसका कुछ खड्ग बिगाड़ सकता है, न तीर धनुष/यह कैसी मानव संहिता बनाई है मुनिवर।’
       और मजाक के मूड में कृष्ण-पुत्र साम्ब जब जंगल में ऋषियों को छेड़ता है तो वे  उसे पहचानकर पूरे यदुकुल को ही विनष्ट होने का शाप दे डालते हैं। इस घटना पर कृष्ण कहते हैं, ‘‘यहीं चूक हुई तुमसे/ वे हँसी मजाक नहीं जानते/ वे कमंडल में शाप और मृत्यु लिए घूमते रहते हैं। ऋषि हैं, सिर्फ रोष करना जानते हैं।’’ अगर ये ऋषि और साधु इतने ही शक्तिशाली हैं तो फिर इन्हें अपनी रक्षा के लिए किसी अवतार की आवश्यकता क्यों पड़ती है, ये तो कमंडलों में रखे शाप और मृत्यु से अपने विरोधियों का स्वयं विनाश कर सकते थे। यह भी  तो हो सकता है इनकी यह शक्ति अपने उन संकटमोचक भक्तों पर ही काम करती हो। तब ऐसे दुष्ट और एहसानफरामोशों की रक्षा की जरूरत ही क्यों होती है? मुझे तो यह पूरा का पूरा मिथक-तंत्र ही एक ऐसा इन्द्रजाल लगता है जिसका कोई तार्किक आधार नहीं।
गांधारी का शाप नाकाफी था। अब इन ऋषियों का शाप कैसे झूठा साबित हो सकता है? लेकिन ‘उपसंहार’ में खुद बलराम ने भी सावधान किया था, ‘‘और क्या, समझते हो, जो कुछ कुरुक्षेत्र में हुआ है, या तुमने किया है, द्वारका उससे अछूती रहेगी?’’
       धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ में गांधारी के शाप को शिरोधार्य करते हुए (मानों स्वीकार करने पर ही शाप असरकारक होता हो) कृष्ण कहते हैं,
‘अट्ठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में
कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूँ, करोड़ों बार
जितनी बार जो भी सैनिक धराशायी हुआ
कोई नहीं था वह मैं ही था
गिरता था घायल होकर
                                जो रणभूमि मंे। 

‘उपसंहार’ में यह ‘मार भी वही रहे हैं और मर भी वही रहे हैं’ लौकिक प्रमाण के साथ आता है। महाभारत के युद्ध के तीसरे दिन के बाद से कृष्ण के रथ पर बैठे अर्जुन जहाँ भी आक्रमण करते हैं, अपने सामने कौरवों की ओर से द्वारका की नारायणी सेना को पाते हैं और कृष्ण से अर्जुन के हाथों अपनी ही सेना का संहार होते जब नहीं देखा जाता तो चैथे दिन का युद्ध स्थगित होने पर भीष्म से कह उठते हैं कि यह ठीक नहीं हो रहा। भीष्म का उत्तर कृष्ण को निरुत्तर कर देने के लिए काफी है, ‘‘वासुदेव! ठीक तो बहुत कुछ नहीं हो रहा है/अब्बल तो तुम्हें कहना ही नहीं चाहिए था लेकिन कहा तो सुनो/किसको किस मोर्चे पर लड़ना है व्यूह रचना में कौन कहाँ होगा/इसका निर्णय कौरव करेंगे तुम नहीं/और वासुदेव यह न भूलो कि तुम और नारायणी सेना एक कुल हो/तो कौरव और पांडव भी एक कुल हैं।’’
       जो भी हो ‘उपसंहार’ के कृष्ण का अकेलापन वह आत्मनिर्वासन नहीं है जिसे दोस्तोवस्की ने आस्तित्ववादी दर्शन के संदर्भ में कहा था। तमाम संशयों और आत्मप्रताड़ना के बाद भी कृष्ण आस्थावान हैं। उनकी इस आस्था में देवत्व से ज्यादा मनुष्यत्व का अंश है। उनके लिए यह संसार उनका अपना संसार है। वे यहाँ बाहरी आदमी के रूप में न रहते हैं न दिखाई देते हैं। उन्होंने स्वर्ग के समान द्वारका का निर्माण जरूर किया है, किंतु उन्हें स्वर्ग से ज्यादा यह मृत्युलोक प्यारा है। उन्हें इस पर गर्व है। कृष्ण के जीने में कर्ता के भाव का लोप,साक्षी भाव या टीएस एलियट के शब्द में कहें तो निर्वैयक्तिकता का अंदाज है। इसी अंदाज में वे भाई, पिता, प्रेमी, पुत्र, पति, मित्र, सखा आदि की भूमिका निभाते हैं। और इसी संदर्भ में कृष्ण की द्वारका आज की द्वारका से नितांत विलग दिखाई देती है।
यहाँ तक कि जिस महाविनाश की चर्चा महाभारत में हुई है उसे भी वे प्राकृतिक मानते हैं। युद्ध को नहीं रोक पाने का पश्चाताप भी उनके भीतर अंत तक नहीं आ पाता।
       ‘उपसंहार’ के कृष्ण ने द्वारका में जातिविहीन गणराज्य की स्थापना करने का प्रयास किया था। किंतु वह अराजकता और भीड़तंत्र में बदल गया। अब उसका भी विनाश होना अवश्यम्भावी था। साम्ब प्रकरण में उनका वक्तव्य उनके जीवन-दर्शन का ‘उपसंहार’ माना जा सकता है। ‘‘देखो साम्ब! मरता वही है जो पैदा होता है। जो पैदा नहीं होता वह मरेगा कैसे? जैसे स्वर्ग! न वहाँ कोई पैदा होता है, न मरता है। पता नहीं कोई जीता भी है या नहीं। वह बंजर प्रदेश है। यह मृत्युलोक है। इसी को सृष्टि कहते हैं। जीवन यहीं है और जीवन जीने के लिए होता है। इसलिए होता है कि जिया जाए- रस लेकर, मजे लेकर। इसलिए नहीं कि मरते दम तक रोते रहें, कराहते रहें, तड़पते रहें। आह-उह करते रहें। तो मरने की चिंता में जीना स्थगित मत करो। हाँ, दूसरे के जीने में खलल न पड़े इतना ध्यान रहे। रही बात द्वारका के नष्ट होने की, तो बेटा होता ही इसलिए है कि बाप के किए कराए पर पानी फेर दे, उसके बने बनाए घरौंदे को तोड़-फोड़ दे। संभव है, इसके बाद जो बने इससे बेहतर बने और टूटेगा नहीं तो बनेगा कहाँ से?’’
       यह उनका अंतिम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्बोधन है। उन्हें इस सत्य का पता चल चुका है कि ईश्वर की भूमिका में वो मात्र एक अभिनेता थे। जैसे ही मंचन समाप्त हुआ उनसे सारी नाट्य-सामग्री ले ली गई और अदृश्य निदेशक द्वारा यह कह दिया गया कि आप घर जाएँ, अब आपकी जरूरत नहीं। इतना सब कुछ समझने के बाद, अपने आदिवासी सौतेले भाई जरा (जरा का मतलब वृद्ध भी होता है) का तीर लगने पर वे मरणासन्न अवस्था में भी जिज्ञासु की भांति आचरण करते हैं और कहते हैं कि जब मैं ही नहीं समझ सका इस जीवन और जगत के रहस्य को, तो भला दूसरा कोई क्या समझेगा?’
मैथिली शरण गुप्त के लिए सहज संभाव्य रहा होगा,हमारे समयों में तो राम, कृष्ण या किसी भी ईश्वर पर लिखना असहज और कठिन है। कृष्ण पर शायद यह पहला आख्यान है, जिसे पढ़ते हुए पाठक अंध श्रद्धा रखने वाला भक्त नहीं बल्कि मात्र जिज्ञासु पाठक बनकर कृष्ण के समीप पहुँचता जान पड़ता है। हम सभी के भीतर एक न एक लघु महाभारत मौजूद रहा करता है जिसमें हमने कभी दुर्योधन कभी अर्जुन तो कभी कृष्ण की भूमिका में जीवन जिया होता है। हम सभी के पास कोई न कोई बांसुरी भी रहा करती है, जो महत्वाकांक्षाओं के युद्ध में कूदने से पहले छूट जाया करती है, और जब फिर से उसकी याद आती है तब न तो हमारी और न उसकी ऐसी स्थिति होती है कि कोई भी राग निकल सके। ‘उपसंहार’ में कृष्ण जो भी सोचते हैं करते हैं, वह प्रभु के नहीं मनुष्य के ज्यादा करीब लगता है। हमें लगता है, अगर हम उनकी भूमिका में होते तो शायद वही सोचते-करते जो कृष्ण सोचते और करते हैं। इस पुस्तक की प्रासंगिकता और सफलता शायद इसी भाव और भाषा के आधुनिक बोध में निहित  है।                                                                                             
                                                --    तद्भव, (2014)