Wednesday 13 December 2017

मेरे उपन्यास 'ये धुआँ कहाँ से उठता है' की समीक्षा


वैकल्पिक समाज विज्ञान का आख्यान : ये धुआँ कहाँ से उठता है
दुर्गा सिंह
'यह धुआँ कहां से उठता है', नारायण सिंह का लिखा और साहित्य भण्डार, इलाहाबाद से हालिया प्रकाशित उपन्यास है।हालांकि यह उपन्यास से ज्यादा महाआख्यानों की वापसी है।भारत की अपनी कथा परम्परा में भी अगर इसे देखें, तकनीकी रूप इसका महाआख्यान ही ठहरता है।यह उन्नीस अध्यायों में विभाजित है। हर अध्याय का एक शीर्षक है। तथा, प्रत्येक अध्याय के भीतर तीन प्लाॅट अलग-अलग मुख्य शीर्षक के संदर्भ से निकले और सम्बद्ध हो कर आते हैं। अभी हाल ही में संजीव का उपन्यास 'फाँस' भी प्रकाशित हुआ है।वह भी महाआख्यानात्मक शैली का उपन्यास है। बड़ा दिलचस्प है कि 1990 के दशक में चले 'अंत' की घोषणा का अंत हो गया और 'नव जन्म' शुरू हो गया।इसे मनुष्य जीवन व सभ्यता के विकास के हर सन्दर्भ से जोड़ कर देखा जा सकता है। क्या समाज, क्या राजनीति और अब साहित्य-संस्कृति भी! खैर
फाँस और यह धुआँ कहाँ से उठता है में एक और समानता है। 'फांस' जहां स्थानीयता के बावजूद भारत के समस्त किसानों की महाकथा है, तो 'यह धुआँ कहाँ से उठता है' स्थानीयता या आंचलिकता के बावजूद भारत के समस्त औद्योगिक मजदूरों की महाकथा है। अर्थात शैली में महाआख्यान तथा कथातत्व में महाकथा। यह सब पृष्ठों से नहीं तय होता। इसे रामचरित मानस और कामायनी से बखूबी समझा जा सकता है। 'फाँस' का भूगोल विदर्भ है तो 'यह धुआं कहां से उठता है' का कोयलांचल। बहरहाल,
सीधी बात यह कि अभी की चौतरफा लगी आग और उठे धुएं को समझना हो तो नारायण सिंह के रचे 'यह धुआँ...' से गुजरना न सिर्फ साहित्य-संस्कृतिकर्मियों-प्रेमियों-अनुरागियों के लिए बल्कि समाजशास्त्रियों, नृतत्वशास्त्रियों और सबसे बढ़ कर राजनीतिशास्त्रियों-शोधार्थियों-कर्मियों के लिए भी बेहद जरूरी है। जिन्हें नया रचना है-निर्मित करना है उन्हें तो जरूर बाकी जो पुराने की सड़ांध को इत्र सा बताये फिरे-बिखरे हैं उन्हें पंक की गौरवगाथा गाने दें!
कहानी पहलवान उर्फ भानुप्रताप उर्फ बीपी सिंह उर्फ श्रीमान तथा मनोहर उर्फ मनहर उर्फ मन सर उर्फ मन दा के गांव जवार से शुरू होती है और मीनाक्षी उर्फ मीनी उर्फ मीनू की जीवन-गति के साथ समाप्त होती है। इस गति के भीतर ही मनोहर-मीनाक्षी का प्रेम और भानुप्रताप की राजनीति अपनी अपनी यतियां लिए आते हैं। परिवेश में है कोइलरी की धरती के भीतर बंधी आग और उसकी दरारों से उठता धुआं और इसमें क्रमशः ओझल होता भारत का लोकतंत्र। उपन्यास का जो केन्द्रीय विचार है यही है। उद्देश्य है इसमें राह तलाशती विचारधाराएं- उनका द्वन्द्व, संघर्ष, अन्तर्विरोध व वास्तविकता की तश्वीर पेश करना और उसमें वर्तमान को पहचानना और मानव मुक्ति का लक्ष्य तय करना।
कथा-समय 1960 से 1980 के बीच का है। कांग्रेस की राजनीति में अपराधियों, लम्पटों का प्रवेश, व्यक्तिपूजा, मूल्यों से तौबा और वर्णवाद और लोकतंत्र के बीच संतुलन का टूटना-धसकना। एक राष्ट्रीय पार्टी के बतौर मुख्य विपक्षी भाकपा में अवसरवाद, व्यक्तिवाद का बढ़ना व सबसे बढ़ कर भारत के समाज के भीतर संरचनागत आधार रूप में मौजूद वर्णवादी, जातिगत तथा सामंती विभाजन से समझौता व सहयोग, पार्टी का विभाजन तथा नक्सलबाड़ी का उदय, न सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर बल्कि पूरी भारतीय राजनीति में एक दम नये तत्व का प्रवेश। बांग्लादेश का बनना, आपातकाल, जेपी की अगुवाई में आपातकाल विरोधी राजनीतिक मंच का बनना, समाजवादी दलों व जनसंघ का मिल कर जनता पार्टी बनना और कांग्रेस के भीतर प्रविष्ट हुए अपराधियों, ठेकेदारों का सम्पूर्ण क्रांति की सवारी कर खुद नेतृत्व में आ जाना व भारतीय राजनीति में स्थापित हो जाना तथा इन्दिरा गांधी की सत्ता में पुनः वापसी, जनता पार्टी का बिखरना व उसमें से भारतीय जनता पार्टी का बनना इस बीच की घटनाएं हैं।
प्रसंग में मनोहर और मीनाक्षी का प्रेम, कांग्रेसी सत्ता के प्रतिनिधि सीपी सिन्हा और सीपीआई विधायक एसके शर्मा के ट्रेड यूनियनों के बीच वर्चस्व की जंग, इसी में एक छोटे किसान व ठाकुर परिवार के आर्थिक संकटों से कोलियरी में मजदूर बनने को विवश गांव में पहलवानी करने वाले भानुप्रताप का क्रमशः विधायक बनने तक का विकास। ट्रेड यूनियन राजनीति में मजदूरों के हक हूकूक व वर्ग राजनीति के प्रतिबद्ध लीडर एके विश्वास के लोकप्रिय होने, नक्सल समर्थक होने पर सीपीएम से निकाले जाने लेकिन सीटू के महासचिव बने रहने, आदिवासी विमर्श व झारखण्ड आन्दोलन के पक्षकार तथा संसद तक का सफर। रवि चक्रवर्ती उर्फ रतन घोष का बतौर नक्सली नेता विकास, कम्युनिस्ट राजनीति में जाति व अस्मितावादी विमर्श को वर्ग राजनीति की बहस में शामिल करने की पैरोकारी, पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित बंगाली सत्तन बाबू के परिवार की दारुण स्थिति व त्रासदियां, मनोहर की पत्नी की आत्मकथा तथा इन्हीं के इर्द गिर्द बाकी प्रसंगों व चरित्रों की बुनावट। 
नारायण सिंह ने बेहद स्पष्ट दृष्टि व विचार के साथ यह बुनावट की है। सबसे महत्वपूर्ण कि वस्तुगत रहते हुए। खास कर तब और जब राजनीतिक वस्तु कथा के केन्द्र में हो और प्रेम कथा उसमें एक लगातार बहने वाली अंतर्धारा के रूप में मौजूद हो। आत्मगत होने का खतरा बराबर बना रहता है, लेकिन नारायण सिंह ने अपने इस उपन्यास में यथार्थवाद की ऐतिहासिक परम्परा के साथ वर्तमान विमर्शों की ऐतिहासिकता को भी बेहद स्पष्ट दृष्टिकोण से बुना है।
यह बात कोई भी जो उनके विचारधारा और प्रतिबद्धता के प्रति पूर्वाग्रही न हो, उपन्यास पढ़ कर जान सकता है। खैर मशहूर मार्क्सवादी चिंतक रणधीर सिंह ने मार्क्सवाद को वैकल्पिक समाज विज्ञान कहा था। नारायण सिंह का उपन्यास इसकी ताकीद करता है।इसमें राजनीति विज्ञान, समाजविज्ञान, नृतत्व विज्ञान, भाषा, दर्शन, लोक सब उसी ज्ञान व दर्शन की उसी प्रक्रिया से देखे-समझे आत्मसात किये गये हैं।
दो प्रसंगों का जिक्र इस सिलसिले में उल्लेखनीय है।
कबीलों से राज्य की उत्पत्ति या राज्य का विकास या निर्माण तभी हुआ, जब रक्त सम्बन्धों व गोत्रों का विघटन हुआ। राज्य कबीले से बड़ी इकाई थी।वह और व्यापक उत्पादन सम्बन्धों पर टिका होता है, जिसे रक्त सम्बन्धों और गोत्र संरचना से नहीं बनाया जा सकता। प्रारम्भिक राज्य निर्माण में इसीलिए रक्त सम्बन्ध व गोत्र की संरचना टूटी या राज्य से इसकी टकराहट हुई। प्राचीन भारतीय राज्यों में जो राजपरिवारों में षड्यंत्र की कहानियां हैं, वह इसी को दिखाती हैं। लेकिन यह हर समाज और भूगोल में अलग अलग समयों में घटित हुआ। एक साथ नहीं। इसमें लोकतंत्र और समाजवाद या साम्यवाद राज्य के विकास की सबसे अधुनातन और उच्चतर अवस्थाएं हैं। इसीलिए अभी भी रक्तसम्बन्धों व गोत्र पर टिके धार्मिक या कबीलियाई समाजों से इनकी भयंकर टकराहट है। भारत में अभी जो संघ-भाजपा के नेतृत्व में चल रहा है वह लोकतंत्र के साथ उसकी वही टकराहट है। लेकिन यह आजादी के पहले से कांग्रेस के भीतर रहा और आजादी के बाद कन्टीन्यू किया जिसका चरम रूप संघ-भाजपा के उभार में व्यक्त हुआ।
अब उपन्यास से एक प्रसंग लेते हैं- जब भानुप्रताप कोलियरी में सीपी सिन्हा के गुण्डे के रूप में ट्रेड यूनियन में दाखिल हुआ, तो उसने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए अपने रक्त सम्बन्धियों व गोत-दयादों को कोलियरियों में भर्ती करना शुरू किया। राजनीति में जो ऊपर परिवारवाद था, वह नीचे उतर आया। जेपी की सम्पूर्ण क्रांति में यह नेतृत्व में आ गया। इससे हुआ यह कि आजादी के बाद अंगीकृत लोकतंत्र की संचारक शक्ति वर्णवाद, ब्राह्मणवाद या वर्णवादी सामंतवाद या भारतीय सामंतवाद बना रहा। नतीजा आज सामने हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ कर हर पार्टी में रक्तसम्बन्धों या गोत-दयादों का वर्चस्व है। और यह लोकतंत्र का घोर विरोधी होता है। यह धुआं तब का भी अब का भी यहां से उठता है। नारायण सिंह का उपन्यास इसे दिखाता है।
एक दूसरा प्रसंग है:
मनोहर व भानुप्रताप का जो वंश-गोत्र है, उसका एक किस्सा है। अलाउद्दीन खिलजी पराजित राजपूतों के सामने दो शर्त रखता था- या तो मेहतरी करिए या इस्लाम स्वीकारिए। भानु वगैरह के जो पूर्वज थे, वे पांच भाई थे। बड़े भाई ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और साथ ही यह विश्वास दिला दिया कि जब बड़े भाई ने स्वीकार कर लिया तो छोटे भाई स्वतः इसमें शामिल हो गये। लेकिन बड़ा भाई जब वापस आता है तो बाकी के चार उसे म्लेच्छ कहते हुए सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। जमीन-जायदाद से अलग कर देते हैं। एक प्राकृतिक आपदा में वह परिवार विस्थापित हो कर कोलियरी में आ जाता है। बाकी चार भाई राजपूत बने रहते हैं, इसी से भानुप्रताप और मनोहर जुड़े हैं। जब हारिस की हत्या होती है जो भानु का वफादार सहयोगी होता है, तब मनोहर उसके घर जाता है। वहां हारिस का बड़ा भाई जब मनोहर का गांव सुनता है, तो कहता है कि तुम्हारी बुनियाद में धोखा है क्योंकि हारिस उसी बड़े भाई का वंशज होता है। भानु का सबसे खास व साये की तरह रहने वाला हाकिम भी उसी वंश परम्परा से है। भानु के विधायक बनने के बाद हाकिम की हत्या हो जाती है, जिसमें शक भानु के भाई पर जाता है और जो अब हाकिम की जगह ले लेता है।
यह प्रसंग आज मुसलमानों के खिलाफ बनाये जा रहे माहौल और उनके प्रति गढ़े जा रहे झूठ को बेपर्द करता है और सामन्ती समाज की ब्राह्णणवादी विभाजन की विचारधारा के आजादी के बाद भी निर्णायक बने रहने को दिखाता है। इसी विभाजन को पुख्ता करता प्रसंग है सत्तन बाबू का जो पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित बंगाली हैं, लेकिन उन्हें भारत में अलगाव का शिकार सदैव बने रहना पड़ता है और सच्चा बंगाली नहीं माना जाता। जिस प्रकार पाकिस्तान में गये भारत के मुसलमान सच्चे मुसलमान नहीं माने जाते ।और पूर्वी पाकिस्तान से आये बंगाली सच्चे बंगाली नहीं माने जाते।धार्मिक या जातीय एकता भूगोल के आधार पर खण्डित हो जाती है और विभाजित पहचान को जन्म देती है।यह सामन्तवादी सामाजिक धार्मिक संरचना का सबसे अधिक कैरेक्टरिस्टिक और क्लासिकल गुण है।भारतीय सामंतवाद की यही विशिष्टता उसे योरोपीय सामंतवाद से अलग करती है।और यह विशिष्ता वर्णवादी या ब्राह्मणवादी विचारसरणि से उत्पन्न होती है।इसे चुनौती सिर्फ एक बार खिलजियों से मिली पर मुगलों में नव स्थापित हुई और अंग्रेजों के समय में इसे ही भारतीयता कहा गया।आजादी के आन्दोलन में यह कांग्रेस के भीतर तो आजादी के बाद पूरे देश में संविधान द्वारा स्वीकृत लोकतंत्र से इसका द्वन्द्व, तनाव, संघर्ष लगातार जारी रहा।और सत्तर तक जाते जाते दोनों के बीच संतुलन साधने की राजनीति ध्वस्त हो गयी।यह धुआं यहां से उठता है।बाकी हर हर मोदी और महिषासुरमर्दिनी तथा मोदी मोदी व इन्दिरा इज इण्डिया या इण्डिया इज इन्दिरा का दिखता ऐक्य महज संयोग नहीं भले ही लेखक की घोषणा है कि उपन्यास में जीवित पात्रों व सच्ची घटनाओं से समानता महज संयोग है। 
कहने का आशय यह कि नारायण सिंह ने यह जो महाआख्यान रचा है, वह जिस स्पष्टता, ईमानदारी से सम्भव हुआ है उसमें वैकल्पिक समाज विज्ञान की पूरी समझ कायम है।
अंत में प्रेम की इतनी सघन, इतनी दैहिक, इतनी स्प्रिचुअल अन्तर्कथा की बुनावट, पुराने तो छोड़िए नये कथाकारों के लिए भी चुनौती है।इस बात को उपन्यास पढ़ कर ही समझा और जाना जा सकता है।
उपन्यास के अंत में एक धुआं चिता से भी उठता है
कुल मिला कर न सिर्फ हमारे समय, बल्कि हिन्दी उपन्यास के इतिहास में एक अनूठी, विरल उपलब्धि है यह उपन्यास।

Tuesday 28 November 2017

'रेड ज़ोन' के बहाने सुन मेरे बंधु रे

                                   ‘रेड ज़ोन के बहाने सुन मेरे बंधु रे  
                              नारायण सिंह


विनोद कुमार का रेड जोन मुझे उनके पहले उपन्यास समर शेष है से बेहतर लगा. कुछ असहमतियों के बावज़ूद, झारखंड में शिबू सोरेन की ईमानदार और लड़ाकू छवि के लगातार क्षरण के रु-ब-रु नक्सलवाद (यहाँ माओवाद) के उदय के साथ ही उसमें आई पतनशीलता और प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में व्याख्यायित (अखबारी) मीडिया के ग्लेमर के भीतर ढकी-छुपी असुंदर असलियतों को परत-दर-परत खोलता यह उपन्यास अपने बहुआयामी (साथ ही विवादास्पद) विषयों और सरल भाषा के कारण मुझे काफी  प्रभावशाली और झारखंड को जानने और समझने वालों के लिए एक ज़रूरी उपन्यास लगा. खासकर भीड़तंत्र की क्रूरता और तानाशाह सत्ता से संघर्ष करती असंगठित जनता की बेचारगी और उन से अलग कटकर सशस्त्र संघर्ष करते नक्सलवाद के बरक्स हिंसा बनाम अहिंसा की शाकाहारी (जंतर-मंतरी) समाजवादी मीमांसा को पढ़ने के बाद मन में कुछ सवाल उठे. किसी हिंसक भीड़ के सामने एक अकेला और निहत्था आदमी प्राण-याचना करके क्या अंतत: अपनी जान बचा ले आ सकता है! और ऐसा क्यों है कि क्रूर सत्ता की दीवारों पर अहिंसा के प्रतीक गांधी की तसवीर लटकी होती है, जबकि हम में से अधिकांश अहिंसा की पैरोकारी करते हुए भगत सिंह, आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस के चित्र टांगना ज्यादा पसंद करते हैं.  
जो भी हो, इस पुस्तक के बहाने, इस विषय पर कुछ न कुछ लिखना ज़रूरी लगने लगा. इस तैयारी के सिलसिले में, आलमारियों में, कुछ किताबों की खोज स्वाभाविक थी.
पर इस खोजबीन के दौरान विमल रॉय निर्देशित फिल्म सुजाता (1959) अनायास हाथ लग गई. ज़ाहिर है उसे छोड़कर आगे जाना मुश्किल लगा. अपने समय के लिहाज़ से क्या खूब (क्रांतिकारी) फिल्म थी! किस्तों में फिल्म देख रहा था कि एस डी बर्मन की धुन में ढला वह प्रसिद्ध गीत आया और आते ही मुझे उसने बेड़ियों में जकड़ लिया. आप में से बड़ी उम्र के कई मित्रों को वह गीत ज़रूर याद होगा. सुन मेरे मितवा... सुन  मेरे साथी रे! मैंने इसे सैकड़ों बार सुना होगा और आनंद लिया होगा. फिर इस बार उसमें दुविधा कहाँ से आ गई! 
होता तू पीपल मैं होती अमरलता तेरी
होता तू पीपल मैं होती अमरलता तेरी
तेरे गले माला बन के पड़ी मुसुकाती रे...
सुनू मेरे साथी रे..
सुनू मेरे बंधू सुनू मेरे मितवा सुनू मेरे साथी रे... (मात्राएं उच्चारण के अनुसार).
फिल्म, धुन और आलाप से परे, गीत पहली बार चुभ गया. पुरुष पीपल और स्त्री अमरलता क्यों! पुरुष के गले में  एक माला बन कर रहने की विह्वल पुकार! स्त्री नदी और उसका सागर पुरुष क्यों? स्त्री... पुरुष की पराश्रयी! जबकि स्त्री के बिना पुरुष का अस्तित्व क्या और कहाँ है! कौन है पराश्रयी? क्या प्रेम में समर्पण का काम केवल स्त्रियों को ही सौंपा गया है?...या फिर एक ब्राह्मण पुरुष और एक दलित स्त्री के प्रेम में, यहाँ उस ब्राह्मण पुरुष के प्रति धन्य..धन्य के साथ दलित स्त्री के प्रति दया और सहानुभूति की याचना का स्वर सुनाई नहीं देता?
यह गीतकार मज़रूह सुल्तानपुरी की पुरुष मानसिकता थी या निर्देशक और समय की मांग, इसे जानना अब मुश्किल-सा है.         
फिलहाल रेड जोन और विनोद कुमार का धन्यवाद कि इस उपन्यास में इस प्रकार की कोई दुविधा नहीं. चाहे अनपढ़ आदिवासी दुर्गा हो अथवा पत्रकार नायक की शिक्षित और शिक्षिका पत्नी चारू, इस उपन्यास की अधिकांश स्त्रियां इस गीत की स्त्री से बिलकुल अलग...यानी अधिकांश मामलों में आत्मनिर्भर हैं.
***           
उपन्यास रेड जोन में,   दो प्रमुख स्त्री पात्र हैं.  एक है पत्रकार नायक मानव की पत्नी चारू, जिसका जीवन समतल मैदान है. न कोई पर्वत न कोई घाटी. एक ही ढर्रे पर चल रहे जीवन में, शिक्षक होने के नाते कम से कम उस लौह कारखाने के स्कूल में कुछ तो राजनीति रही होगी, विशेषकर तब, जब कारखाने और जिस अखबार में मानव काम कर रहा है उसके प्रबंधन, दोनों के साथ उसके संबंध मधुर नहीं रह पा रहे हों. लेकिन शायद उपन्यासकार की दृष्टि में चारू की समस्याएं लेखक के लिए मानव की दैनिंदिनी की तुलना में कम महत्वपूर्ण रही होंगी, या फिर उन्हें शामिल करने के बाद उपन्यास, जो कि अपने मूल आकार में भी काफी बड़ा है, महाकाय रूप धारण कर लेता. इसलिए औपन्यासिक मंच पर चारू का प्रवेश मानव की पत्नी होने मात्र पर निर्भर करता है. इस हिसाब से, ऊपर में सुजाता के दृष्टांत को देखते हुए, मेरे इस कथन से, पाठक को इस संशय में पड़ने की छूट दी जा सकती है कि लेखक पुरुष की तुलना में स्त्री को कहीं गौण तो नहीं समझता!
उसका यह संशय तब दूर हो जा सकता है जब वह एक पराई स्त्री- दुर्गा के जीवन-वृत्त को विषय बनाता है. दुर्गा के माता-पिता मर चुके हैं और अपने बड़े भाई के साथ वह लौह कारखाने की परिधि से सटे हुए एक ऐसे गांव में रहती है जिसका लौह कारखाने ने अधिग्रहण तो कर लिया है, किंतु वहाँ के लोगों ने जिसे पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया है. उसका भाई रोजी-रोटी के चक्कर में जब अवैध रूप से चंद्रपुरा वाशरी का कोयला बटोरकर बेचने गया हुआ होता है, घर में अकेली जान, उस पर पहले से कुदृष्टि रखने वाला तेज सिंह, जो एक व्यापारी होने के साथ-साथ मुक्ति मोर्चा के प्रसिद्ध नेता गुरु जी की पार्टी का जनामाना कार्यकर्ता है, उसके घर में बुरी नीयत से घुस जाता है. अपने बचाव में दुर्गा अपने सिरहाने रखे हंसिए से उसका गला काट देती है. अपनी बारी की प्रतीक्षा में बाहर खड़ा उसका साथी भागकर थाने जाता है और कुछ ही देर में दुर्गा थाने में होती है. वहाँ थानेदार कानूनी कार्रवाई करने के वजाय, अपने होल्स्टर को परे रख, तेज सिंह की भांति उसका शिकार करने को उद्यत होता है. वह एक बार फिर अपने बचाव में हिंसा-अहिंसा की दुविधा में पड़े बिना, थानेदार को धकेलकर, पलक झपकते, उसके होल्स्टर से रिवॉल्वर निकालकर फायर करती है और अपना निशाना चूक जाने के बाद रिवाल्वर लिए-दिए पास के पहाड़ी जंगल में कूद जाती है, जहाँ वह एक बार पहले भी, जंगल से लकड़ी काटने के दौरान, माओवादी कमांडर किनी चटर्जी से मिल चुकी है और उनके देसी कट्टे (नक्सल कमांडर के पास देसी कट्टा!) से फायर करने का तरीका जान चुकी है....
अहिंसा की पैरवी करने और अंत में नक्सलवाद की हिंसा / प्रतिहिंसा को खारिज़ करने वाले इस उपन्यास का अंत पूर्वनिश्चित सा लगता है. आरंभ के तुरत बाद अंत की बात असहज लग सकती है, पर अप्रासंगिक नहीं. पृष्ठ 396  का यह उद्धरण देखिए:
मानव ने गहरी श्वास ली......
स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटेकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता भी तो उनकी हिंसा का समर्थन करने लगे हैं!
अरविंद का स्वर तिक्त हो जाता है.
समाज में खंजरी बजाने वाले लोग होते हैं. किसी ने गाना शुरू किया नहीं कि खंजरी हो के पीछे हो लिए.          

यह एक चलताऊ टिप्पणी है. इन दोनों ने अपने-अपने क्षेत्र में अहिंसात्मक आंदोलन चलाए हैं और उस के लाभ-हानि को महसूस किया है, जेल गए हैं और हो सकता है उस आंदोलन की सीमाओं को भी समझा हो. जिस प्रकार मानव 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की, जिसका वह एक हिस्सा रह चुका था, असफलता को समझ चुका होता है. वे दोनों माओवाद की अंधहिंसा का समर्थन कर रहे हैं, इसमें भी संशय है. अग्निवेश तो वर्षों पहले, सत्ता और पिपुल्स वार के कार्यकर्ताओं के बीच समझौता कराने के अनेक प्रयासों के दौरान उनका विश्वास खो चुके थे. उनके माध्यम से जब भी ऐसा प्रयास हुआ, आरोप के अनुसार, तब-तब पिपुल्सवार के लोगों का एंकाउंटर हुआ है.
जो भी हो, यहाँ एक ज्वलंत प्रश्न किया जा सकता है कि यदि दुर्गा पहले तेज सिंह और बाद में थानेदार के सामने पूरे अंतरमन से याचना और प्रार्थना करती तो क्या अपने आप को बचा सकती थी? और यहीं पर दूसरा सवाल भी आता है कि पुलिस और सुरक्षा बलों को उत्तर-पूर्व और काश्मीर में जिस सैन्यबल विशेष अधिकार अधिनियम (जिसके अंतर्गत गैरकमीशन्ड अफसरों को यह अधिकार मिल जाता है कि वे संदेह में किसी को भी गोली मार सकते हैं) के तहत असीमित अधिकार दिए गए हैं, वे पूरे भारत में क्यों नही दिए गए हैं और यदि वे असीमित अधिकार पूरे देश में दे दिए जायं तो देश की जनता का क्या हाल हो सकता है!            
अरुंधति रॉय (ब्रोकन रिपब्लिक में) दुर्गा जैसी 2005 की एक घटना का जिक्र करते हुए लिखती हैं कि कोरमा गांव में नगा बटालियन के साथ मिलकर सलवा जुडुम (छतीसगढ़ में बिहार की रणवीरसेना की तरह का कांग्रेस-बीजेपी द्वारा संयुक्त रूप से गठित नक्सल-विरोधी एक सिविलियन सशस्त्र संगठन, जिसे 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंधित कर दिया था) ने हमला किया. उन्होंने गांव को जलाने के बाद तीन लड़कियों को पकड़ लिया और उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया और फिर मार डाला. उन्होंने उनके साथ घास पर बलात्कार किया था, लेकिन जब वह पूरा हुआ तो वहाँ घास नहीं बची थी..... पुलिस अब भी आती है, जब उन्हें औरतों या मुर्गियों की ज़रूरत होती है. (पेज 94)
हम में से कुछ लोग भारतीय पुलिस की क्रूरता और सत्ता के षड़यंत्रों को आइपीएस विभूति नारायण राय के लेखन में पढ़ चुके होंगे, पर सन 2003 में छपे उपन्यास कार्नेज बाइ ऐंजेल्स से, हो सकता है, कुछ लोग अनजान हों - शायद इसलिए क्योंकि एक तो वह उपन्यास अंगरेजी में था और दूसरे उसका वैसा प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया जैसा आम प्रकाशक अपने उपन्यासों का करते हैं. उसे पता नहीं किन कारणों से (शायद) लेखक ने खुद छपवाया था. लेखक थे पूर्व आइपीएस वाइ पी सिंह और इसलिए इसकी प्रामाणिकता से असहमत होने का कोई कारण दिखाई नहीं देता. अगर मिले तो यह उपन्यास ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए. यह एक ईमानदार आइपीएस अफसर रघु कुमार की त्रासद महागाथा है. ‘Carnage by Angels’ महाराष्ट्र में पुलिस और प्रशासन के साथ नेताओं के नेक्सस को बड़ी बारीकी से, उसके एक-एक पक्ष को उद्घाटित करता है. मैं यहाँ केवल एक उद्धरण के रूप में उपन्यास के नायक (आइपीएस) रघु के तबादले के समय आयोजित सम्मान समरोह में उसके वक्तव्य के एक छोटे-से अंश को रखना चाहता हूँ :

“Ladies and gentlemen, police when it takes money, it is over the dead bodies of the innocents. A corrupt police officer presides over cold blooded murders of those whom he has got no reason to murder, but for his marginal greed, which shall give him no pulpable gain. A robber couldn’t be worse than a corrupt police officer. He may plunder because he’s poor and his child may be hungry, or because he has spent his money to buy essential commodities in black market. A robber loots such a black-marketeer, and yet we check him.
“But what do many of us police officers do. We loot  the poorest of the poor, not in one, but in hundreds, nay thousands. Then those kill themselves or kill others in despair. Why…….?” [Page – 94 ; ‘Carnage By Angels’, Author- Y. P. Singh, Published in 2003 by Smt. Pushpa Singh for Samarpushp Books, All India Distribution by JAICO Publishing House, website: www.jaicobooks.com  Paperback Price Rs.250/-].
(“देवियो तथा सज्जनो ! पुलिस पैसे की उगाही निर्दोष लोगों की लाश पर ही करती है. एक भ्रष्ट पुलिस अफसर ऐसे लोगों की नृशंस हत्याओं का नियामक होता है, जिनका कोई कारण नहीं होता सिवाय उस निरे लोभ के जो उसे खास लाभ नहीं पहुंचा सकता. एक डाकू को किसी भ्रष्ट पुलिस अफसर से बदतर नहीं कहा जा सकता क्योंकि हो सकता है कि एक डाकू अपनी गरीबी के कारण या अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए अथवा इसलिए लूट-पाट करता हो क्योंकि उसने अनिवार्य वस्तुओं की खरीद पर काले बाज़ार में अपना पैसा लुटा दिया है. लुटेरा ऐसे कालाबाज़ारियों को लूटता है तो भी हम उसे पकड़ते हैं.
लेकिन हम में से अधिकांश पुलिस अफसर क्या करते हैं. हम एक नहीं, सैकडों...हज़ारों दीन-हीन गरीबों को लूटते हैं. और ...उसके बाद वे लोग हताशा में कुछ खुद को तो बाकी दूसरों को मारने लगते हैं...आखिर ऐसा होता ही क्यों है?)        

उपर्युक्त उद्धरण की ही पृष्ठभूमि में, कभी यूपी के डीजीपी रहे पूर्व आइपीएस तथा समय-समय पर उल्फा व कशमीरी उग्रवादियों और नक्सलवादियों के खिलाफ पुलिस व बीएसएफ की कमान संभाल चुके प्रकाश सिंह की (प्रथम संस्करण 1995 में प्रकाशित) पुस्तक द नक्सलाइट मूवमेंट इन इंडिया के प्राक्कथन का एक छोटा अंश :

Naxalism arose from certain basic factors- social injustice, economic inequality and the failure of the system to redress the grievances of large sections of people who suffered –and continue to suffer- as a result therefrom. These factors unfortunately continue to exist, perhaps in a more aggravated form. The embers would continue to simmer; occasionally there might even be a violent flame or a raging fire depending on the volume of popular resentment and the presence of a master brain to orchestrate those into a well coordinated movement.
“………
“Naxalism is much a abused tem. The authorities playing second fiddle to vested interests in an area use this terminology to brand anyone crying for social or economic justice and justify repressive measures against him. Some Naxalite groups have been indulging in senseless violence are also to blame for the misconception. Basically however, shorn of  polemics, it represents the struggle of the exploited peasant, the deprived tribal and the urban proletariat for a place in the sun, for social and economic survival. The system has to provide this minimum. If  it does not or cannot, the consequences are bound to be disastrous.”
(सामाजिक अन्याय, आर्थिक असमानता और इनसे सतत आक्रांत और पीड़ित लोगों की शिकायतों का निराकरण करने में असफलता- ये कुछ मूलभूत कारण हैं जिनसे नक्सलवाद का जन्म हुआ. दुर्भाग्य से ये कारक अपनी बदतर शक्ल में अभी भी मौज़ूद हैं. इसलिए यह आग बुझने वाली नहीं है और जनअसंतोष की उग्रता के अनुरूप, यह अंगारा कभी-कभार उग्र ज्वाला या प्रचंड अग्नि का रूप धारण कर सकता है, यदि इसे एक समन्वित आंदोलन के रूप में दिशा देने वाला कोई मास्टरब्रेन मिल जाय.
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नक्सलवाद ऐसा शब्द है, जिसका अत्यधिक दुरुपयोग हुआ है. किसी क्षेत्र में किन्हीं स्वार्थी तत्त्वों के सहायक के रूप में काम करने वाले अधिकारी, इस शब्द को सामाजिक या आर्थिक न्याय की मांग करने वाले किसी भी आदमी पर चस्पां कर देते हैं ताकि उन पर की गई दमनात्मक कार्रवाइयों का औचित्य सिद्ध किया जा सके. , विवादरहित रूप से, नक्सलवाद मूलत: उन शोषित किसानों, वंचित आदिवासियों और शहरी सर्वहारा द्वारा किया जाने वाले संघर्ष है, जो सामाजिक व आर्थिक रूप से एक सम्मानपूर्वक जीवन जीने की आकांक्षा रखते हैं. यह उनका न्यूनतम अधिकार है, जिसे मुहैय्या करना किसी भी तंत्र का कर्तव्य है. और यदि ऐसा नहीं किया जाता तो इसका विनाशकारी परिणाम अवश्यंभावी है.)   
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प्रिय बंधु, (साभार : नरेंद्र नागदेव की कहानियां) यह उपन्यास रेड जोन’, जिस पर हम बात कर रहे हैं, वास्तव में रेड ज़ोन के बारे में बहुत कम (उपन्यास का लगभग एक तिहाई) पत्रकारिता और राजनीति के क्रमश: येलो और ब्लैक ज़ोन का आंखों देखा हाल ज्यादा (लगभग दो तिहाई) लगता है. रेड ज़ोन तो मानव के माध्यम से पत्रकारिता के रस्ते आता है और उसी के रस्ते वापस भी हो लेता है. जहाँ प्रोफेसर नंदिनी सुंदर जैसी शोधकर्ता खतरनाक और दुर्गम घाटियों-पहाड़ियों की अनेक यात्राओं के बाद द बर्निंग फॉरेस्ट लिखती हैं और अरुंधति रॉय तीन हफ्ते तक पिपुल्स वार की एक महिला टुकड़ी के साथ रहने के दौरान भूमकाल (भूचाल) समारोह की सौवीं जयंती में शामिल होने के बाद ब्रोकन रिपब्लिक जैसा यादगार रेपोर्ताज़ देती हैं, जिसकी प्रामाणिकता की वज़ह से उन के डाटा और फीचर सामग्री के अंश अनेक हिंदी फिल्मों और उपन्यासों में बिना किसी आभार के, ले लिए जाते हैं, वहीं, इस जगह आपको सही-गलत यह भ्रम हो सकता है कि मानव रेड जोन से संबधित सामान्य ज्ञान के लिए जंगल की परिधि का स्पर्श करते हुए गुरु जी के साथ की यात्राओं व पात्रों के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं पर ही निर्भर करता है.  
वर्तमान हिंदी पत्रकारिता- विशेषकर छोटे शहरों-कस्बों की पत्रकारिता-  का एक दुर्भाग्य रहा है. सामान्यतया विरल अपवादों को छोड़कर, उसमें अंगरेजी पत्रकारिता की तुलना में, न तो उतना जोखिम उठाकर अनुभव हासिल करने का साहस है और न विश्व-साहित्य की विविध विधाओं के माध्यम से संवेदना के नए-नए कल्पना-क्षितिज तक पहुंचने का माद्दा और समय. (अपवाद के रूप में अनिल यादव के यह भी कोई देस है महाराज जैसे कुछ औपन्यासिक रेपोर्ताज़ों को उदाहरण माना जा सकता है). मानव भी अगर इसका अपवाद नहीं तो इसके लिए हम उसे दोषी नहीं ठहरा सकते. लेकिन तब, पदयात्रा को माध्यम बनाकर जनता के बीच जागरूकता पैदा करने के उसके अभियान में अचानक से, हिंसा की दुनिया से, पार्टी में सामूहिक निर्णय न होने के हवाले से, (जबकि उनके प्रवेश की पुष्टि का निर्णय भी ऊपर से ही आया था) वापसी करके आई हुई दुर्गा और उसका भाई कालीचरण अचानक से शामिल हो जाते हैं तो रेड ज़ोन की दुनिया नाटकीय-सी लगने लगती है.
जैसा कि इतिहास हमें बताता है, ब्रिटिश काल में सशक्त सत्ता के खिलाफ झारखंड में ही बिरसा मुंडा, सिधू-कान्हो आदि के और छतीसगढ़ में भूमकाल जैसे सशस्त्र संघर्ष सफल नहीं हो सके. सत्ता-प्रायोजित हिंसा के विरोध में प्रतिहिंसा अपने दुष्परिणामों की वज़ह से कठिन और निषिद्ध होती है. पर उससे भी कठिन है अहिंसा. गांधी अब तक एक ही हो सके हैं, जैसे बुद्ध एक ही हो सकते थे. जिस रास्ते से उन लोगों ने जो हासिल किया, ज़रूरी नहीं कि दूसरा भी उस रास्ते चलकर वही अभीष्ट हासिल कर ले; बल्कि यह कहना सम्यक-सा लगता है कि हासिल ही नहीं किया जा सकता. जैसा कि देश में इन दिनों अक्सर हो जा रहा है. जनता आत्महत्याएं कर रही है, धरना-प्रदर्शन कर रही है, पदयात्राएं कर रही है, पर ....जो परिणाम है वह सामने है.
यहाँ इस समय द बर्निंग फॉरेस्ट का यह उद्धरण दिया जा सकता है :

Despite having such a large force at its command, the government is loath to let go of vigilantism. Indeed, with the coming of the Modi led government in 2014 and growing incidence of vigilantism against minorities and liberals, the Salwa Judum has gone mainstream across the country. For every protest against the violence of  right wing non-state actors, there is a counter protest supported by the police.”[पेज- 16].
(अपने नियंत्रण में इतनी बड़ी पलटन होने के बाद भी, सरकार सतत निगरानी {विजिलैन्टिज़्म = किसी गैरपुलिस समूह द्वारा की जा रही निगरानी} को रोकना नहीं चाहती. वास्तव में, 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद से ही अल्पसंख्यकों और उदारवादियों के साथ विज़िलैंटिज़्म की बढ़ती घटनाओं के साथ-साथ सलवा जुड़ुम अखिल भारतीय स्वरूप धारण कर चुका है. दक्षिणपंथी गैरसरकारी लोगों या संस्थाओं की हर हिंसा के बाद होने वाले विरोध-प्रदर्शन के विरोध में पुलिस समर्थित एक जवाबी विरोध-प्रदर्शन होने लगा है.)   

प्रजातंत्र के ऐसे अघोषित आपातकाल में, जब युद्ध को एक स्थाई माहौल में तब्दील कर दिया गया हो और विपक्ष (जिसकी भ्रष्टाचारिता के कारण मोदी-सरकार का आना संभव हो सका) मात्र एक परछाईं लगने लगी हो, क्या ऐसा नहीं लगता कि हम संवेदनशून्यता की एक ऐसे स्थिति में आ पहुंचे हैं, जहाँ यह भी पता नहीं चलता कि हमारे साथ क्या किया जा रहा है!
तॉल्सतॉय को अहिंसा का एक प्रमुख विचारक एवं प्रचारक माना गया है. हमारे गांधी जी के भी वे, किसी न किसी रूप में, आदर्श रहे हैं. उनकी मृत्यु 1910 में हुई और उनका प्रसिद्ध और आखिरी महत्त्वपूर्ण उपन्यास रेज़रेक्शन 1899 में प्रकाशित हुआ. ज़ाहिर है, रूस में यह क्रांति का अरंभिक काल था और 1898 में एकीकृत मार्क्सिस्ट रशियन सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की स्थापना हो चुकी थी. उन दिनों क्रांतिकारियों के साथ राष्ट्रद्रोही जैसा वर्ताव किया जा रहा था. पूरे उपन्यास में ज़ारशाही काल के अन्याय, शोषण, गैरबराबरी, जटिल और पक्षपातपूर्ण कानूनी प्रक्रिया आदि का वर्णन इस प्रकार मिलता है कि हमें महसूस होने लगता है कि यदि वहाँ क्रांति नहीं हुई होती तो वहाँ के नब्बे-पंचानबे फीसद नागरिकों का कैसे निस्तार हुआ होता!  
रेज़रेक्शन के संपूर्ण तीसरे भाग में ऐसे क्रांतिकारियों के एक समूह का विस्तृत विवरण मिलता है; क्योंकि उपन्यास की नायिका कैटरिना मस्लोवा (कटुशा) उनके साथ जेल में होती है और बाद में देश-निकाले की अपनी सज़ा पूरी करने उन्हीं के साथ साइबेरिया जा रही होती है, जबकि नायक, जिसे तॉल्स्तॉय का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र कहा जा सकता है, उसे छुड़ाने का प्रयास करता है और साइबेरिया के रास्ते में ही, इस में उसे अपने पूर्व के शासकीय जीवन के संबंधों के माध्यम से सफलता भी मिल जाती है पर उसकी कभी प्रेमिका रही मस्लोवा, जिसे नायक नेख्ल्युदोव की बेवफाई की वज़ह से अपनी पूरी युवावस्था तमाम तरह की विपदा-आपदा में गुजारना पड़ा है; रिहाई से इंकार कर देती है क्योंकि उसे उन क्रांतिकारियों में से एक से प्रेम हो गया है और चूंकि उस के प्रेमी की रिहाई संभव नहीं, वह खुद भी उसके साथ साइबेरिया जाना चाहती है. इस हृदयविदारक प्रेमकथा से परे, हालांकि जिसे भूलना कठिन है, इस तीसरे भाग में क्रांतिकारियों के बारे में तॉल्स्तॉय एक जगह लिखते हैं :

There were some among them who had turned revolutionists because they honestly considered it their duty to fight the existing evils, but there were also those who chose this work for selfish, ambitious motives; the majority, however, was attracted to the revolutionary idea by the desire for danger, for risks, the enjoyment of playing with one’s life, which, as Nekhlyudov knew from his military experiences, is quite common to the most ordinary people while they are young and full of energy. But wherein they differed from ordinary people was that their moral standard was a higher one than that of ordinary men. They considered not only self-control, hard living, truthfulness, but also the readiness to sacrifice everything, even life, for the common welfare as their duty. Therefore the best among them stood on a moral level that is not often reached, while the worst were far below the ordinary level, many of them being untruthful, hypocritical and at the same time self satisfied and proud.”)

(उनमें से कुछ ऐसे थे जो इसलिए क्रांतिकारी बने क्योंकि वे वर्तमान बुराइयों से ईमानदारीपूर्वक लड़ना अपना कर्तव्य समझते थे, लेकिन उनमें कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने स्वार्थी और महत्वाकांक्षाजन्य प्रयोजनों के कारण यह कर्म अपनाया था. तथापि, इन में से अधिकांश वे हैं जो अपने जीवन को खतरे और जोखिम में देख मज़े लेने की नीयत से क्रांतिकारी विचारधारा की ओर आकर्षित हुए थे. जैसा कि नेख्ल्युदोव को उनके मिलिटरी अनुभवों से ज्ञात था, ऐसी प्रवृत्ति, सामान्यत: हर साधारण मनुष्य में मौजूद होती है जब वह नवजवान और ऊर्जा से भरा होता है. लेकिन वे साधारण मनुष्यों से इस मामले में भिन्न थे कि उनका नैतिक स्तर बहुत ऊंचा होता था. वे आत्मसंयम, कठोर जीवन, सच्चाई को अपनाना ही नहीं; समाज-कल्याण हेतु अपना सब कुछ और यहाँ तक कि अपना जीवन तक न्योछावर कर देना अपना कर्तव्य समझते थे. अतएव उन में जो बेहतरीन थे, उनका नैतिक स्तर इतना ऊंचा था कि वहाँ तक पहुंचना साधारण मनुष्य के लिए प्राय: संभव नहीं होता, जबकि उनमें जो बदतरीन थे उनका स्तर साधारण से भी गया-गुजरा था और बहुत से तो झूठे, पाखंडी होने के साथ-साथ आत्म-तुष्ट और अहंकारी भी थे.) [Ressurection, Wordsworth Editions Limited, 2014, page 392]. 
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विनोद कुमार के इस उपन्यास में ( इस सूची में प्रह्लाद चंद्र दास की कहानी अगिन जरै कि काठ सहित कुछ अन्य लेखकों की कुछ कहानियां जुड़ सकती हैं) जिन तथाकथित नक्सलाइट ग्रूप का विवरण दिया गया है, वह इस आलेख में उद्धृत रेज़रेक्शन के साथ-साथ प्रकाश सिंह के उद्धरणों के इटैलिक्स वाले अंशों में वर्णित ग्रूप ही हो सकता है, जिनके समाचार झारखंड के अखबारों में आए दिन पढ़ने को मिल जाया करते हैं. डॉ. नंदिनी सुंदर ऐसे नक्सलवादी समूहों की असलियत को और भी बेहतर तरीके से स्पष्ट कर देती हैं :

In writing the history of the Indian Maoists in the late twentieth and early twenty-first century, appropriate space must be given to……… the corruption introduced by the faction-ridden, extortionist gangs of Jharkhand which call them Maoist but are propped up with police support, like the ‘Tritiya Prastuti’ or the People’s Liberation Front of India;……” (page 13).

(बीसवीं सदी के अंतिम तथा इक्कीसवीं सदी के आरंभिक दौर के भारतीय माओवादियों के इतिहास में; , पर असल में पुलिस के सहयोग से अस्तित्व में आए तृतीय प्रस्तुति या पीपल्स लिबरेशन फ्रॉन्ट ऑफ इंडिया;........ जैसे गुटबाजी के शिकार और जबरन वसूली व भ्रष्टाचार में लिप्त दलों को भी शामिल करना पड़ेगा.)

लेकिन जैसा कि ऊपर के उद्धरणों से स्पष्ट है, वह ग्रूप नक्सलवाद की मुख्यधारा का प्रधिनिधित्व नहीं करता. इसलिए मेरे विचार से, जिस नक्सलवादी ग्रूप को विनोद कुमार ने अपने उपन्यास का विषय बनाया है, उसके वर्णन को उनकी वास्तविक निर्मिति और प्रकृति के अनुरूप ही कहा जा सकता है.
यहाँ यह भी देखने की ज़रूरत है कि जिसे भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा था; और जिसकी प्रकृति और प्रवृत्ति झारखंड या रेड जोन उपन्यास के नक्सल ग्रूप से बिल्कुल अलग है- वह बस्तर, उड़ीसा या दूसरी अन्य जगहों में सीपीआइ (माओइस्ट) के नाम के उस प्रतिबंधित नक्सलवादी ग्रूप के बारे में क्या कहा जा रहा है. अरुंधति रॉय माओवादियों की जनताना सरकार के उस सकारात्मक पक्ष को भी प्रस्तुत करती हैं जिसके चलते आदिवासियों में उनकी पैठ बढ़ती जा रही है : वन विभाग के कारकूनों के अत्याचार से मुक्ति दिलाना, इन कार्यों में शामिल हैं. 1980 से 2000 तक पार्टी द्वारा तीन लाख एकड़ वन्य भूमि का वितरण किया जा चुका था. जनताना सरकार के नौ विभाग हैं- कृषि, व्यापार, उद्योग, आर्थिक, न्याय, रक्षा, अस्पताल, जनसंपर्क, स्कूल, रीति-रिवाज और जंगल(जंगल बचाओ विभाग). अपनी यात्रा के दौरान साथ रही कामरेड जुरी के हवाले से वे लिखती हैं कि लोहंडीगुडा में जाने का फैसला माओवादियों ने तब लिया जब वहाँ की दीवारों पर नक्सली आओ हमें बचाओलिखा मिलने लगा.
(5 जून,2011 को) दिए साक्षात्कार में अरुंधति रॉय ने कहा था,मान लें कि आप जंगल के भीतर किसी गांव में रहने वाले एक आदिवासी हैं और आपके गांव को सीआरपी के 300 जवानों ने घेर लिया है और उसे जलाना शुरू कर दिया है तो आप क्या करेंगे?       
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उपन्यास में एक-दो और भी चलताऊ टिप्पणियां आ गई हैं. जैसे नीचे दिया गया उद्धरण :
सूरजदेव सिंह बहुतों के लिए कोयला माफिया और बड़े क्रिमिनल हैं, लेकिन बहुत सारे लोग उन्हें गरीबों का मसीहा मानते हैं.
कैसी बात करते हैं अविनाश जी! हर अपराधी खुद को रॉबिनहुड बनाकर पेश करता है. उसकी बिरादरी के लोग भी उसे रॉबिनहुड का ही दर्जा देते हैं. पर पता है इन लोगों ने क्या किया है? कोयलांचल के एक बड़े श्रमिक नेता के लठैत बनकर आए थे और आज करोड़ों की संपत्ति के मालिक हैं. कैसे? जहां ज़मीन से कोयला निकाला जाता है वहाँ खाली जगह को बालू से भरने का प्रावधान है. इन लोगों ने बालू भरने का ठेका लिया और काम ठीक से किया नहीं. इनकी वज़ह से झरिया के अकूत कोयला भंडार में आग लगी है, जो निरंतर बढ़ रही है. अरबों की राष्ट्रीय संपत्ति तो जलकर राख हो ही रही है, लाखों लोगों का जीवन भी खतरे में है क्योंकि पूरा झरिया आग के मुहाने पर है.
जो उद्धृत अंश इटैलिक्स में है वह एक हल्की टिप्पणी है, पर यह टिप्पणी है उपन्यास के नायक मानव की. जो पूरी तरह अविश्वसनीय और पूर्वाग्रहपूर्ण है. लगभग 100 किलोमीटर क्षेत्र में पूरे झरिया कोयलांचल में फैली आग और उसका जिम्मेवार एकमात्र ऐसा आदमी जो इस कोयलांचल में 1960 के बाद आया ! वास्तव में, झरिया कोयलांचल में भूमिगत आग की पहली घटना 1916 में झरिया के बिलकुल पास की कोलियरी खास झरिया में घटित हुई. 1930 में मालिक के बंगले सहित कुछ अन्य घर जमींदोज होकर उस आग में भस्म हो गए. यह तथ्य आसानी से यहाँ के अभिलेखों में और विकिपीडिया पर देखा जा सकता है :

Jharia is famous for a coal field fire that has burned underground for a century. The first fire was detected in 1916. According to records, it was the Khas Jharia mines of Seth Khora Ramji Chawda (1860–1923), who was a pioneer of Indian coalmines, whose mines were one of the firsts to collapse in underground fire in 1930. Two of his collieries, Khas Jharia and Golden Jharia, which worked on maximum 260-foot-deep shafts, collapsed due to now infamous underground fires, in which their house and bungalow also collapsed on 8 November 1930, causing 18 feet subsidence and widespread destruction. The fire never stopped despite sincere efforts by mines department and railway authorities and in 1933 flaming crevasses lead to exodus of many residents. The 1934 Nepal–Bihar earthquake led to further spread of fire and by 1938 the authorities had declared that there is raging fire beneath the town with 42 collieries out of 133 on fire.”

[झरिया कोल्फील्ड आग के लिए मशहूर है, जो ज़मीन के भीतर एक सौ साल से जल रही है. पहली बार आग का पता 1916 में लगा था. अभिलेखों के अनुसार, भारतीय कोयला खदानों को शुरू करने वालों में अगुआ सेठ खोड़ा रामजी चावड़ा (1860 – 1923) की कोलियरियों में आग से खदान के जमींदोज़ होने की पहली घटना 1930 में हुई. उनकी खास झरिया और गोल्डेन झरिया की दो खदानों के अधिकतम 260 फुट नीचे तक के चानक और उनके बंगले व कुछ घर 8 नवंबर, 1930 को जमींदोज़ होकर आज कुख्यात हो चुकी उस भयंकर आग में समा गए. तब से खान विभाग एवं और रेल अधिकारियों के ईमानदार प्रयासों के बावजूद वह आग कभी नहीं बुझ सकी और 1933 में धरती की दरारों से लपटों के ऊपर आ जाने के कारण बहुत से निवासियों को वहाँ से भागना पड़ा. 1934 के नेपाल-बिहार भूकंप के कारण आग और भी व्यापक रूप से फैल गई और 1938 तक तो प्राधिकारियों ने यह घोषणा कर दी थी कि कुल 133 कोलियरियों में से 42 कोलियरियों में भूमिगत आग लग चुकी है जबकि शहर के नीचे प्रचंड आग मौजूद है.]  

तथापि, खोजने से तो महान से महान उपन्यास में भी इस प्रकार की एक-दो तथ्यात्मक भूलें मिल जाएंगी.
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यह तो लेखक ही बता सकता है कि ऐसा क्यों है, पर उपन्यास रेड जोन में कुछ पात्रों के नाम असली हैं तो कुछ के बदले हुए. एक पात्र हैं महेंद्र सिंह, जिनका असली नाम लिखा गया है, आइपीएफ के नेता और बाद में माले के विधायक थे. माले और माओवादियों में नहीं पटती, जबकि वे दोनों नक्सल ग्रूप की ही दो शाखाएं थीं. महेंद्र सिंह उपन्यास में एक जगह अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं:
मैं न हिंसा के खिलाफ हूँ और न माओवादियों के खिलाफ. मैं उनकी कार्यप्रणाली के खिलाफ हूँ. झारखंड में हिंसा कोई नई परिघटना नहीं. सत्ता के खिलाफ जनप्रतिहिंसा भी यहाँ समय के विभिन्न हिस्सों में होती रही है. खुद झारखंड आंदोलन भी कई अर्थों में हिंसा-प्रतिहिंसा से कभी मुक्त नहीं रहा. किंतु इन हिंसक-प्रतिहिंसक संघर्षों में व्यापक भागीदारी ने अपने दवाब के बल पर राजनीतिक शक्तियों और सत्तागत ढांचों पर अपना गहरा असर डाला है. सिद्धो-कान्हू का हूल और बिरसा का उलगुलान इसके उदाहरण हैं. लेकिन 90 के दशक में उभरी माओवादी हिंसा इसका अपवाद है. परिणाम(?) के लिहाज से कहीं अधिक होने के बावज़ूद इसने राजनीतिक यथास्थिति को मज़बूती दी है. माओवादी हिंसा अब तक झारखंड की गौरवशाली प्रतिरोध संस्कृति के साथ अपने रिश्ते तलाश नहीं कर पाई है. धीरे-धीरे उसने आतंक का स्वरूप अख्तियार कर लिया है.....झारखंड के माओवादियों का दायरा अभी बेहद तंग तो है ही, उनके व्यहार का मूल परिणाम ही जन सक्रियता को कुंद कर देना है. माओ के उद्धरणों के जरिए वे माओ के विचारधारा का ही निषेध कर रहे हैं. (पेज 345).
कुछ समय बाद महेंद्र सिंह की हत्या हो जाती है. स्पष्ट है कि किसने किया होगा. पर कई दशक बाद आज भी, वह केस अभी भी अदालत में पड़ा हुआ है.
माओवादियों के साथ लंबा समय बिताने के बाद दुर्गा, अंतत:, उनके द्वारा उसकी साथी फूलमणि के प्रेमी को मार दिए जाने की घटना से आहत और विचलित होकर (उसका भाई कालीचरण तो पहले ही, माओवादियों द्वारा चिह्नित किसी एनजीओ में कर्मचारी बनकर जा चुका था), अलग होने का मन बना लेती है. साथ छोड़ने से पहले की उसकी वैचारिक कशमकश को नीचे के उद्धरण में देखा जा सकता है :
....और यह सेंट्रल कमिटी क्या बला है? किसकी बात करते हैं किनी. किसकी दुहाई देते हैं? ये अदृश्य चेहरे उसके जीवन के नियामक कब से बन गए? उसने उन्हें यह अधिकार कब दिया कि वे उनके जीवन की हर छोटी-बड़ी बात में हस्तक्षेप करें? उसे याद आया कि विस्थापितों के रोज़गार और पुनर्वास की मांग को लेकर उसके भाई ने लंबा आंदोलन चलाया था. लेकिन सारे फैसले बस्ती के आंगन में बैठकर, सभी मिलजुल कर लेते थे.....लेकिन यहाँ तो बस आदेश आता है और ये निकल पड़ते हैं मरने-मारने के लिए.... नहीं, नहीं. वह नहीं रहेगी यहाँ...(पेज-338).
यह विडंबना है कि, सेंट्रल कमिटी की अनुमति के बिना और हिरावल दस्ते के बगैर’; दुर्गा की पहल पर   बैगनकोचा गांव के लोगों के साथ मिलकर वह और केवल गिने-चुने हथियारबंद लोग कोलाहिर गांव पर हमला करते हैं और उस हमले में अपने एक महत्वपूर्ण साथी रतिलाल को खो देते हैं. इसके बावज़ूद पहली गलती मानकर दुर्गा को छोड़ दिया जाता है जब कि फूलमणि के प्रेमी बलराम की पहली गलती पर; और वह भी कैसी गलती कि उससे उसकी प्रेमिका फूलमणि को गर्भ ठहर जाने के बाद डर से वह उसे छोड़कर भाग गया था, फूलमणि की पैरवी के बावजूद उसे मौत की सज़ा दे दी जाती है.
आश्चर्य होता है कि उपन्यास में किनी चटर्जी के कद का एक नक्सल दुर्गा (कुछ आदिवासियों में पुरुषों के नाम भी दुर्गा रखे जाते हैं) को महिषासुर-मर्दिनी के नाम से संबोधित करते हुए पारंपरिक बंगालियों की तरह एकाधिक बार मां-मां कहकर पुकारता है.
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उपन्यास का एक और सकारात्मक प्रसंग यहाँ उद्धृत करना ज़रूरी हो जाता है:
...गुरु जी उस चबूतरे पर बैठ गए. वहीं पर एक युवा और एक वृद्ध स्त्री खड़ी थी. युवा स्त्री संभवत: श्यामलाल की पत्नी और वृद्धा उसकी मां थीं. एक लंबी-सी काया जो थोड़ा झुक गई थी. युवा स्त्री कुछ देर में पीतल का एक कठौता और एक लोटा लेकर आई. उसने कठौता गुरु जी के पैर के नीचे रख दिया और लोटे के पानी से उनका पैर धो दिया. गुरु जी के बगल में बैठे एक अन्य व्यक्ति का भी इसी तरह पैर धोया गया. उसके साथ अंगोछा लेकर साथ चल रही एक अन्य लड़की ने उन दोनों के पैर पोछ दिए. अंत में वह मानव के पास पहुंची. वे अचकचा गए. और हाथ से इनकार का इशारा किया.
यह आदिवासी समाज की परंपरा है...
नहीं, मैं खुद धो लूंगा. (रेड जोन पेज 154).
संयोग देखिए कि कुछ दिन पहले (11 जुलाई, 2017) ही अखबारों में यह समाचार छपा था कि (शायद पैर पखारे जाने वाली इसी परंपरा के अनुसार) झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास के भी पैर एक स्त्री के हाथों पखारे गए, सीपीएम नेता वृंदा करात ने जिसकी आलोचना की थी.
आदिवासी समाज के बारे में मेरी जानकारी बहुत कम है. लेकिन मेरे कई दोस्त लेखक आदिवासी जीवन-शैली को ज्यों का त्यों रहने देने की वकालत करते हैं. उनसे मेरा यहाँ कोई मतभेद नहीं. छोड़ना पकड़ना उस समाज पर निर्भर करता है. मुझे तो बस इस प्रसंग के साथ-साथ, आदिवासी समाज में प्रचलित डायन-बिसाही जैसी परंपरा के चलते वृद्ध स्त्रियों की हत्याओं की खबरें, जो आए दिन अखबारों में छपा करती हैं विचलित करती और असहज बनाती हैं.
जो भी हो, मानव और उपन्यासकार की प्रशंसा करनी होगी कि गुरु जी के, जिनका वह सम्मान करता है, इस आचरण का गहन ऑव्ज़र्वेशन करता है और विचलित हुए बिना, निस्संग भाव से इसे अस्वीकार कर देता है. यही नहीं जहाँ भी ज़रूरत हुई, ऐसे लोगों की आलोचना करने से भी नहीं चूकता :
भीषण गरीबी है इन गावों में. गुरु जी ने एक ज़माने में महाजनी शोषण के खिलाफ आंदोलन चलाया था, लेकिन अब राजनीति करने लगे हैं. जमीनी अंदोलन कही नहीं है. महाजनी का चक्र एक बार फिर वेग से चलने लगा है. महाजन से पैसा लेने पर एक रुपया के बदले अगहन में 8 पैला बड़ा या 12 पैला छोटा धान भर-भर कर लौटाना पड़ता है. चुका नहीं पाए तो पेड़, जमीन या बैल गिरवी रखनी पड़ती है. उसके बाद नंबर आता है बेट-बेटी को बंधुआ बनाने की. बीमारी, त्योहार, विवाह, बीज, हल के लिए कर्ज़ लिया और बदले में बच्चे को गिरवी रख दिया. बच्चा महाजन के यहाँ मवेशी चराने, पानी भरने जैसा काम करते हैं. उस वक्त तक जब तक कि उसका बाप कर्ज़ न चुका दे.(पेज 369).
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संक्षेप में, कुछ असहमतियों के बावज़ूद, विनोद कुमार की जनपक्षधर दृष्टि और झारखंड की जनता एवं यहाँ के जल, ज़मीन और जंगल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिह्न खड़ा नहीं किया जा सकता. वस्तुत:, रेड जोन झारखंड में औद्योगीकरण के बाद हुए विस्थापन, पुनर्वास संबंधी गलत नीतियों के दुष्परिणाम, उद्योगों में स्थानीय लोगों की उपेक्षा; सत्ता, पुलिस व राजनीति के अपवित्र गठबंधन, अतीत में, अपने झारखंड और झारखंडी समाज के हित के लिए लड़ने वालों के वर्तमान विचलन की गहन और निष्पक्ष समीक्षा करता है. रेड जोन तथाकथित नक्सलपंथ की कमियों और विरोधाभासों को उजागर करते हुए और उसके विकल्प में अहिंसात्मक आंदोलन और उसमें संपूर्ण जनता की भागीदारी की अनिवार्यता को रेखांकित करता है. यह मीडिया की व्यावसायिकता और पतनशीलता की पोल खोलता हुआ भविष्य में इसके और भी पतित होने की भविष्यवाणी करता-सा लगता है जो कि आज सही लगती है. इन सब का प्रस्तुतीकरण वह जिस तटस्थता के साथ करता है, वह अद्भुत और प्रशंसनीय है. और यही इसे एक ज़रूरी और महत्वपूर्ण औपन्यासिक दस्तावेज बनाता है.
       

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                                                --- मंतव्य के 2017/18 के अंक में प्रकाशित