Friday 5 October 2018

सुर-असुर की नई व्याख्या

सुर-असुर की नई व्याख्या : संदर्भ पुणे अंतरराष्ट्रीय लिटरेरी फेस्टिवल.
पुणे में इस साल का तीनदिनी लिटरेचर फेस्टिवल 28 से 30 सितंबर तक आयोजित था. पुणे में रहते हुए मैं भी तीन घंटे के लिए 29 को एक श्रोता के रूप में उसमें शामिल रहा. पिछले साल अकेला गया था. इस बार कानपुर के साहित्यकार धनंजय सिंह भी साथ थे, जो मेरी ही तरह अपने बेटे के यहाँ आए थे.
फेस्टिवल मुख्यत: अँगरेजी लेखकों और श्रोताओं का था. इसलिए काव्य-पाठ, कथा-पाठ या परिचर्चा अँगरेजी पुस्तकों पर केंद्रित था. कुछ विमर्श कला, संस्कृति, सिनेमा और राजनीति पर भी केंद्रित थे. उस दिन हम ने भी एक राजनीतिक बहस को काफी देर तक सुना, जिसमें बीजेपी के तुहिन सिन्हा और विपक्ष के तहसीन पूनावाला और बंगलौर से आए तनवीर अहमद के साथ गुरचरन दास जैसे लोग मंच पर मौजूद थे. मॉडरेटर राखी बक्षी ने बड़े सलीके से बहस को संचालित किया. हम दोनों अनुपमा जैन के कहानी-पाठ के भी श्रोता रहे. साथ ही, चार्ल्स डिकेंस पर केंद्रित शानदार प्रदर्शिनी के भी दर्शन किए.
पर जिस ‘बुक-नुक’ कार्यक्रम का व्यौरा देना मेरा अभीष्ट है, वह मिथक-आधारित उपन्यासों पर केंद्रित था. इस कार्यक्रम के मंच पर मॉडरेटर के अलावा एक ऐतिहासिक उपन्यास-लेखिका सहित कुल चार लेखक थे. जब हम लोग पहुँचे तो सुर और असुर या राक्षस या दैत्य की चरचा चल रही थी. जहाँ विनीत बाजपेयी और अभिनव सहित मॉडरेटर रितुराज शर्मा व चंगेज़ खान पर उपन्यास लिखने वाली लेखिका सुतापा बसु ने उनकी मनुष्य जैसी कद-काठी का जिक्र करते हुए उन्हें पर्यावरण का ‘रक्षक’ बताया, वहीं इन सब के साथ सहमत होते हुए भी उपन्यास ‘काली’ के लेखक पृथ्वीराज बनर्जी ने ‘सुर’ और ‘असुर’ की एक अलग व्याख्या प्रस्तुत की. उन्होंने कहा कि ‘सुर’ वे थे जो शांति और सुर में सुर मिलाकर रहते थे. इसके लिए उन्होंने ‘हारमनी’ शब्द का प्रयोग किया.
वेदव्यास के ‘महाभारत’ के आदि पर्व में आस्तीक पर्व और बाल्मीकीय रामायण में सुर और असुर कौन थे, इसको स्पष्ट रूप से बताया गया है. बाल्मीकीय रामायण में इसे लगभग इस प्रकार से प्रस्तुत किया गया है : सागर मंथन से निकली यह परम सुंदरी सुरादेवी अपने को स्वीकार करनेवाले पुरुष की खोज करने लगी. ओ वीर श्रीराम, दिति के पुत्र दैत्यों ने उस वरुणकन्या सुरा को ग्रहण नहीं किया, परंतु (दिति की बहन) अदिति के पुत्र देवताओं ने इस अनिंद्य सुंदरी को ग्रहण कर लिया. सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य असुर कहलाए और सुरा सेवन के कारण ही देवताओं को सुर की संज्ञा मिली. (बाल्मीकीय रामायण, बालकांड के पैंतालीसवें सर्ग के श्लोक संख्या 36 से 38).
जो लेखक मिथकों पर आधारित उपन्यास लिखे और महाभारत और रामायण का अध्ययन न करे, यह संभव नहीं जान पड़ता. फिर यह सुर में सुर मिलाकर मित्रभाव (harmony) के साथ रहने वालों को देवता की संज्ञा देने के पीछे कौन सा कारण हो सकता है? क्या देवता दूसरों के साथ सच में मित्रवत या हार्मनी के साथ रहा करते थे?
पिछले कई दशकों से पुराणों को अलोचक की दृष्टि से पढ़ने-समझने वाले पाठकों और लेखकों के नए वर्ग के बीच देवताओं की बिगड़ी हुई छवि को सुधारने का यह कोई नया प्रयोजन तो नहीं!
एक और बात- उस दिन इसी मंच पर अगले कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित फेस्टिवल में हिंदी के शायद एकमात्र ('बेस्ट सेलर और 300 किताबों के') लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक का कार्यक्रम था.