कुलघाती
पिछले
हफ्ते का अभियान एक गांव में था। मेरे साथ मेरे परिचित रामविचार पांडे भी थे। उनकी
ससुराल उसी गांव में थी। लड़के के बाबा से जो हमारी बातचीत हुई उसका ब्यौरा कुछ इस
प्रकार है-
‘‘लड़की का ममहर कहां है?’’
‘‘भोजपुर..........।’’
‘‘कौन गांव...........?’’
‘‘सोनपटिया.........।’’
‘‘केकरे इहां..........?’’
‘‘.........।’’
‘‘काहे चुप हो गए ठीकेदार साहेब? लड़की
के नाना का क्या नाम है?’’
‘‘क्या बोलें ठाकुर साहब? दरअसल
बात यह है कि दिलीप बाबू की ससुराल में कोई जिंदा नहीं है,’’ चौकी
पर आलथी-पालथी मारकर बैठे हुए पांडे जी ने कहा। वे अपनी बाईं हथेली पर खैनी को
दाएं अगूठे से मीसते हुए मुझे चुप रहने का इशारा कर रहे थे।
‘‘अरे,
जब इनके ससुर जिंदा रहे होंगे तब उनका
कुछ न कुछ तो नाम रहा ही होगा न, पांडे बाबा? अभी
भी कोई पर-पट्टीदार तो होगा ही, कि समूचा गांवे नावल्द हो गया है? मेरी
ससुराल से चार कोस पर ही तो है सोनपटिया। कितने लोगों की तो आज भी मुझे याद है।
हाथी वाले गिरिजा बाबू, भूतपूर्व विधायक देवकी मिसिर, बक्सर
में तेल मिल लगाकर लखपति बने जुगुल तेली, और........सीबचन चमार और उसका बेटा
गजटेड अफसर मोहन राम, जिसकी बेटी को किसी बबुआन ने उठाकर अपने घर में
बैठा लिया था। बीस-पच्चीस साल पहले...... हो हो हो ऽऽ..........।’’
पांडे
जी खैनी जोर-जोर से पीटने लगे और बाबू मनसोख सिंह के ठहाके छींकों के तूफान में
बदल गए। थोड़ी देर में वातावरण सहज हो जाने पर पांडे जी ने मेरी तरफ बेचारगी से
देखा और पिछला सूत्र फिर से जोड़ने की कोशिश की, ‘‘अरे,
हम लोग विधायक जी के कहने से आए हैं
मलिकार। आपको उन्होंने कुछ नहीं बताया क्या!’’
‘‘कौन विधायक जी?’’ बूढ़े
ने चैंकने का सुंदर अभिनय किया।
‘‘कई ठो विधायक आपके दामाद हैं, बबुआन?’’ पांडे जी ने हंसते हुए उस गांव में अपनी ससुराल
होने का पूरा लाभ उठाते हुए कहा। घुटा हुआ बूढ़ा खिसियानी हँसी हँसने लगा और बोला, ‘‘आप कमल जी की बात कर रहे हैं? अब
उनको फुरसत कहाँ! आज
पटना तो कल दिल्ली। याद आया, एक बार उन्होंने कुछ कहा तो था। बाकी..... सादी-बिआह
तो जांच-बूझ के ही होगा न।’’
मैंने सोचा कि अब बात पूरी हो जानी चाहिए।
मैंने कहा, ‘‘ठाकुर
साहब, आप बुजुर्ग हैं। आपसे क्या छुपाना! मैंने
अंतरजातीय विवाह किया है। सोनपटिया के उसी शिवबचन की पोती से। गजटेड आफिसर मोहन जी
की लड़की के साथ।’’
थोड़ी
देर तक कोई कुछ नहीं बोला। खामोशी के कारण वातावरण अचानक भारी हो उठा। पांडे जी
उठने का उपक्रम करने लगे। शायद उन्होंने यह देख लिया था कि सामने बैठे बूढ़े का
शरीर एकदम अचानक तन गया है। मूंछें फड़फड़ाने लगी हैं। अंतत: क्रोध से हिलता हुआ वह
भारी शरीर मेरी तरफ मुखातिब था, ‘‘अरे.........तो वह आप ही धर्मावतार हैं! सीबचना की नतिनी की जन्माई के लिए इस उज्जैन के
दुआर पर चढ़ आए हैं! यह कम मरदाही का काम नहीं। अब चुपचाप रस्ता
नापिए..........और सुन लीजिए। आज भी कुछ लोग हैं तो सात पीढ़ियों का हिसाब-किताब
करते हैं। पैसा कमा लेने से हाड़ पवित्तर नहीं हो जाता ठीकेदार साहेब...!”
बहुत
दिनों तक वहाँ से चुपचाप उठ आने का मलाल बना रहा। मन में न जाने कितने तल्ख जवाब
आते-जाते रहे। ऐ बूढ़े! तुम्हारा दामाद कमल दसो नोह जोड़कर मेरे दरवाजे पर आया था।
चुनाव के वक्त मैं भी उससे रास्ता नापने के लिए कह सकता था। उस वक्त तुमने उसे सात
पीढ़ियों का हिसाब लेने के लिए क्यों नहीं हिदायत दी थी? तुम्हारी
बेटी ने उसी सीबचन की नतिनी के आंगन में अपना आंचर कई बार पसारा था- क्यों श्यामा
बहिना, बड़ होकर नन्हवन की तरफदारी करती हो! बस
एक दिन मेरे साथ घूम लीजिए, फिर तो दलित ओट हरहरा कर ‘उनकी’ तरफ
भहरा जाएंगे। अरे, कौन सी चिंता है? बेटी
की शादी की? अरे, ऐसी सुंदर और
पढ़ी लिखी लड़की के व्याह के चिंता..........! यह
तो जिस घर में जाएगी वही घर अंजोर हो जाएगा। जरा अपना कान इधर लाइए न।
मेरे भाई का लड़का है। दिल्ली में एम.बी.ए. कर रहा है। लड़का आपको पसंद हो तो बस
पान-फूल पर बियाह तय समझिए।...उस वक्त तुम्हारा वह उज्जैन किस लोक में छुप गया था
बुढ़ऊ?
फिर
भी झूठ नहीं बोलूंगा। इधर अपने आप से कई बार पूछा है। बाईस तेईस साल पहले जो मैंने
निर्णय लिया उसे क्या तब भी ले पाता यदि मुझे उसका यह अंजाम पता होता!
***
‘‘कुल का नाश होने से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते
हैं और धर्म का नाश हो जाने से सारे कुल को सब ओर से पाप दबा लेता है। हे कृष्ण!
इस तरह पाप से घिर जाने पर उस कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर उस कुल में
वर्ण-संकरता आ जाती है। वह वर्ण-संकरता उन कुलघातियों को और कुल को नरक में ले
जाने का कारण बनती है, क्योंकि उनके पितर लोग पिण्ड-क्रिया और
जल-क्रिया नष्ट हो जाने के कारण अपने स्थान से पतित हो जाते हैं...........’’
बाईस-तेईस
वर्ष पहले लिया गया वह निर्णय क्या महज एक कच्ची उम्र का ज्वार था!
यह प्रश्न मुझे अपने आप से इधर के दिनों में कई
बार करना पड़ा है। दिलीप
की परेशानी देखकर। उसकी परेशानी मेरी परेशानी है। एम.ए. में पढ़ रही, घर
में बैठी एक सुंदर, जवान बेटी। लड़के की खोज में वह हर हफ्ते घर से
ऐसे निकलता है जैसे पर्वतारोहण के अभियान पर जा रहा हो।........और वापसी ऐसी जैसे
बेमौसम की आंधी-वर्षा ने बीच रास्ते से ही घर लौटने के लिए मजबूर कर दिया हो। एक
बार उसने मुझसे कहा था कि लड़की के बाप होने के दर्द को मैं नहीं समझ सकती। ठीक है।
हर पीड़ा अपने आप में मौलिक हुआ करती है। उसकी पीड़ा को मैं नहीं जान सकती, पर
स्वयं लड़की होने की पीड़ा कितनी त्रासद होगी क्या वह कभी भी जान सकेगा!
उस
दिन दिलीप बहुत उदास था। इतना कि मुझे उससे डर लगने लगा। मेरे पूछने पर उसने सारा
किस्सा सुनाया। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। कमल जी और उनकी पत्नी की मदद मैंने अपने
पति के कहने से की थी। अपनी बेटी की शादी के लालच में नहीं। क्योंकि मैंने लड़के को
नहीं देखा था और जो बिना देखे जाने किसी अनजान पुरुष के हाथ में अपनी बेटी का हाथ
केवल इसलिए दे देते हैं क्योंकि वह शुद्ध रक्तवाला है, मैं
उन लोगों में से नहीं।
मैंने
दिलीप को समझाना चाहा, ‘‘तो
इसमें परेशान होने की कौन सी बात है?
लड़की एम.ए. कर रही
है। एम.बी.ए. या पी.एच.डी. करेगी....।”
‘‘जल्दी तो नहीं होती, श्यामा, पर
एक दिन मैंने उसे दीपक के साथ ए.सी. मार्केट में देखा। वे दोनों हँस हँसकर
आइसक्रीम खा रहे थे........उसी दिन मैंने निश्चय किया कि इस जंजाल से जितनी जल्दी
छुटकारा मिल जाय उतना ही अच्छा होगा।
मैंने
जान-बूझ कर ‘जंजाल’ शब्द को बेआवाज निगल लिया और कहा, ‘‘आइसक्रीम
खाना जुर्म है क्या?’’
‘‘मेरे कहने का मतलब है.........दीपक के
साथ....... ।’’
‘‘क्यों? दीपक में कौन सी खराबी है? पढ़ने
में तेज है। इंजीनियरिंग के आखिरी वर्ष में है। तुम्हारे सबसे करीबी दोस्त राम
प्रसाद का बेटा है!’’
मेरी
बात सुनने के बाद वह झुंझला गया। शायद वह कुछ बोलना चाहता था, पर
किसी कारणवश उसकी बात उसके गले तक आकर अटक गई थी। वह क्या कहने वाला था, उसका
हल्का-सा आभास जरूर हुआ और ऐसा महसूस होते ही मुझे लगा मैं किसी पहाड़ को चोटी से
धकेल दी गई हूँ।
वह
रात मुझसे काटे नहीं कट रही थी। लगता था अपने किसी प्रियजन की मृत्यु की खबर मिल
गई हो। उसने मेरी इस उदासी को लक्ष्य कर लिया था। शायद इसीलिए मुझे बार-बार अपनी
बाहों में लेने की कोशिश कर रहा था। मेरे बदन में जैसे जान ही नहीं थी। मुझे लगा
आज तक जो भी होता रहा वह सब कुछ नकली था। उसकी मनुहार भी उस क्षण नकली लग रही थी।
फिर भी मेरे लिए उससे बहुत देर तक रूठे रहना बहुत मुश्किल था। ठीक सही वक्त
जानकर अचानक मैंने उससे पूछा, ‘‘मान लो, श्वेता और दीपक एक दूसरे से प्रेम करने
लगे हों तो.....!’’
प्रश्न
सुनते ही उसकी दैहिक क्रियाएँ स्थगित हो गईं। उसका चेहरा कम रोशनी में भी सपाट जान
पड़ने लगा। शायद थोड़ा-थोड़ा बदसूरत भी।
‘‘प्रेम........! इस कच्ची उमर में प्रेम........! यह केवल शारीरिक आकर्षण हो सकता है,’’ वह आंखें मूंदे जैसे किसी नाटक का संवाद
बुदबुदा रहा था। मुझे लगा, उसकी जगह मैं होती तो शायद मेरे हिस्से में भी
वही संवाद आता। फिर भी हम अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे थे।
‘‘हमारे साथ भी ऐसा ही था क्या?’’ लगा
मैंने उस नाटक का अगला संवाद दुहराया हो। मेरी आवाज बहुत धीमी थी, पर
उसके लिए इतनी तेज कि उसके ढीले शरीर में फिर से जान आ गई। वह उठकर बैठ गया और
थोड़ी ऊँची आवाज में बोला, ‘‘मेरे
साथ भी ऐसा ही होता तो क्या मैं आज तुम्हारे साथ यहीं इस बिस्तर पर पड़ा होता! अपना
हित, मित्र, कुटुंब, समाज
और उस वक्त की अपनी नौकरी सबकुछ छोड़कर यहाँ तुम्हारे बच्चों का गूह-मूत कर रहा
होता क्या!’’
मैंने
उसकी तरफ से अपना चेहरा फिरा लिया, क्योंकि मेरे अंदर थोड़ी-थोड़ी जुगुप्सा, थोड़ा
गुस्सा जन्म लेने लगा लगा था। और रोना भी! नाटक अब यथार्थ में बदल गया था। या फिर नाटक
खत्म होने के बाद का खालीपन एक अव्यक्त चीख की तरह बजने लगा था। हद हो गई! उसे वह
हर चीज बखूबी याद थी जिसे मुझे पाने के क्रम में उसे छोड़नी पड़ी थी। क्या वह उन
चीजों की कीमत आज मुझसे सूद सहित वसूलना चाहता है! वह क्या अपने किए पर पश्चाताप कर रहा है! क्या मैं भी वैसा ही करूँ! क्या खोया क्या पाया, क्या
मैं भी याद करूँ!
यह
सही है कि जब उसकी तरफ के ढेर सारे लोग यहाँ दूसरी जाति की स्त्रियों के साथ
शारीरिक संपर्क करने के बाद किसी भी तरह की जिम्मेवारी से अपने को मुक्त कर ले रहे
थे, दिलीप ने अपने आपको उन सबसे अलग सिद्ध किया था, पर
यदि वह अपने इस कृत्य पर गर्व कर रहा है तो फिर मैं भी क्यों न सोचूँ कि गर्व करने
के लिए मेरे पास उससे अधिक कारण हैं?
जहाँ मैं ग्रेजुएट थी, दिलीप
ढंग से मैट्रिक पास भी नहीं था। मेरे पिता एक बड़े अधिकारी थे, तो
वह अनाथ होकर किशोर उम्र में ही अपने गांव के एक दबंग नेता की सिफारिश पर
(प्राइवेट) कोलियरी में डिपो मुंशी का काम कर
रहा था। मेरी शादी एक इंजीनियर लड़के से तय थी, तो
उसे अपनी जाति में किसी अच्छे घर की कोई ढंग की लड़की का मिलना कठिन था। हां, उसके
व्यक्तित्व में जो आकर्षण था उसकी वजह से भले ही कोई भी लड़की मेरी तरह घर से भाग सकती
थी.... । मुझे ही लुभाने के लिए उसने क्या क्या नहीं किया था! घर से पढ़ने जाया करती, तो
देखती-वह हर रोज बस-स्टॉप पर मेरा इंतजार कर रहा है। अगले दिन मेरे सलवार-सूट के
रंग की पैंट और शर्ट पहने वह बस-स्टॉप पर मेरी तरफ नजरें पसारे खड़ा मिलता।.....आज, जब
पुराने दिनों में एक बार फिर से लौट रही हूँ तो लगता है मेरा तो बहुत कुछ छूट गया।
मुझे
याद है, जब बाबूजी पुलिस लेकर दिलीप की उस छोटी सी
कोठरी में गए तो मुझे काफी लताड़ा था,
‘‘इस आवारा शराबी के साथ कैसे ऐडजस्ट कर
पाओगी तुम? अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। वह इंजीनियर लड़का सब कुछ
जानते हुए अब भी तैयार है.........वापस चलो...... ।’’
यानी
मेरा संसार मुझे फिर से अपनाने के लिए तैयार था। जबकि दिलीप का संसार एकदम ही पलट
गया था। उसकी नौकरी छूट गई थी, कोठरी से उसका सामान बाहर निकाल फेंका गया था।
उसके सारे अपनों यहाँ तक कि बहन-भाई ने भात-रोटी का संबंध तोड़ लिया था। अपने पर और
अपने समाज पर किसे गर्व करना चाहिए! उसे
या मुझे? और वही दिलीप अपने प्रयास में अपनी जाति के
लोगों से बार-बार अपमानित होने के बाद भी आज अपने उसी पुराने सड़े-गले समाज में
लौटना चाहता है!
***
‘‘प्रकृति संकर जाति के अधिक विकास के पक्ष में
नहीं। यूँ भी संकर जाति की दूसरी, तीसरी, चौथी तथा पाँचवीं पीढ़ियों को क्रमशः
अधिक से अधिक और बहुत अधिक कष्ट भोगने पड़ते हैं। वे न केवल उत्तरोत्तर परंपरागत
पैतृक गुणों से वंचित होते जाते हैं बल्कि अपने रक्त की गुणवत्ता और समरस के अभाव
के कारण उनमें निश्चित इच्छा शक्ति और तेजोमयी अद्भुत संकल्पशक्ति का अभाव होता
जाता है।’’
दीपक
को लेकर मेरे मन में गलत-सलत ख्याल कैसे आ गए! वह रामप्रसाद का बेटा है। और राम प्रसाद? माफ
करना मित्र! लगता है मेरा दिमाग ठीक नहीं, वरना
अपने ऊपर उपकार करने वाले दोस्त के लड़के को अपनी लड़की के साथ हँस हँसकर आइसक्रीम
खाते देख उसकी और अपनी जाति पर नहीं उतर जाता। मुझे याद आता है बाईस-तेईस वर्ष
पहले का समय। श्यामा से शादी के बाद मेरी नौकरी छुड़वा दी गई। मेरा सामान कोठरी से
बाहर फिकवा दिया गया तो मैं सीधा नेताजी के पास पहुंचा था।
‘‘गांव के रिश्ते से आप मेरे चाचा हैं। आप ही ने
मेरी नौकरी लगवाई। अब अपने ही हाथों से लगाया पेड़ क्यों काटना चाहते है?’’ मुझे
उम्मीद थी कि मेरी विनम्रता शायद बिगड़ा हुआ काम बना देगी।
‘‘तुमने मेरा भारी नुकसान कर दिया है, दिलीप,’’ वे
गहरी सांस लेकर बोले।
‘‘मैंने?’’ हैरतअंगेज आवाज
में मैंने पूछा।
‘‘हाँ,
तुमने। देखो, मेरी छवि लंगोट के पक्के आदमी की है। अब कोई
मेरा आदमी किसी लड़की को भगा ले आए और वह भी एक दलित को तो.........क्या होगा? तुम
तो जानते हो कि अगला चुनाव मुझे लड़ना है.......!’’
‘‘पर यह बात तो श्यामा पुलिस, अपने
पिता और आप सब के सामने स्वीकार कर चुकी है कि उसे मैंने भगाया नहीं है। वह बालिग
है और उसके साथ मेरी शादी कोर्ट में हुई है,’’ मैंने सफाई दी।
‘‘यही तो गड़बड़ हुई। खाकर हांड़ी गले में टांग कर चलने की सलाह किसने दी थी! अब
वैसी फरकट से शादी करने की बात तेरे दिमाग में आई कैसे!’’
‘‘फरकट!’’ मेरा स्वर बदल
गया था। उस आपत्तिजनक शब्द की गरमी ने मेरी नरमी के खोल को पिघला दिया था। मेरे
अंतर में छिपी हुई उस व्यक्ति के प्रति घृणा हठात अनावृत्त हो गई थी।
‘‘और क्या? प्रेम-व्रेम विवाह क्या सती सावित्रियाँ किया
करती हैं?’’ वह व्यक्ति मेरी पत्नी को लगातार गालियाँ दिए
जा रहा था, और वह भी मेरे ही सामने। मैं कैसे चुप रह सकता
था!
‘‘तो सती सावित्रियाँ क्या करती हैं? प्रेम
किसी एक से और ब्याह किसी दूसरे से.....!’’ उसके बाद मेरी
आवाज नेताजी की गालियों में डूब गई थी।
कई
दिनों तक मुझे अपनी चोटें सहलानी पड़ी थीं। वह भी कहाँ तो उसी रामप्रसाद के
क्वार्टर में। कई महीनों तक रामप्रसाद का क्वार्टर मेरी शरणस्थली बना रहा था। वहीं
रहते-रहते मुझे राम प्रसाद के जूनियर इंजीनियर पद के प्रभाव से पहला ठीका मिला।
काम शुरू होते समय मेरे पास पूंजी नहीं थी। उसने उसका भी जुगाड़ किया। आज जो मेरे
पास कार है, यह बड़ा सा मकान है, ट्रकें
हैं, और इन सबकी वजह से समाज में मान-सम्मान है, इतना
कि इस क्षेत्र के विधायक कमल मेरे दरवाजे हाथ जोड़े आने जाने लगे हैं- तो इसके पीछे
रामप्रसाद के योगदान को मैं कैसे भूल सकता हूँ!
माफ
करना रामप्रसाद! गनीमत है कि तुम्हारे बेटे के बारे में आया ख्याल शब्द बनकर बाहर
नहीं निकला। क्या करूँ! संस्कार
एक जन्म में थोड़े बदलते हैं! असल
में संकर, सुर्तवाला, सुरतान........कुछ
ऐसे शब्द हैं जिनके अर्थ से बचकर निकल जाने का मन हुआ करता है, पर
बचपन के अबूझ और जिज्ञासा से भरे कालखंड में अनचाहे भी बहुत कुछ जाना जा सकता है।
जेहन में माई की आवाज अब भी कभी कभी गूंज जाती है- सुरतनवा के साथ खेलते हो! सुर्तवाला
के साथ खाते हो!
मेरा
सहपाठी राम प्रसाद चमरटोली का है। उसके साथ खाने खेलने की मनाही को मेरा बचपन थोड़ा
थोड़ा समझने लगा है, पर मनोहर और कामता, जिनके
बाबा मेरे बाबा के सहोदर भाई थे, के साथ चलने खाने की मनाही की बात एकदम समझ में
नहीं आती।
‘‘माई रे, यह सुर्तवाला कौन सी जाति है?’’ मैं
झुंझलाकर पूछता हूँ। पूर्णिमा के दिन पूजा करने आए शास्त्री जी अपनी विद्वतापूर्ण
शैली में समझाते हैं, ‘‘अपनी जाति की लड़की नहीं मिली तो छोटी जाति की
किसी लड़की को खरीद लाया गया। किसी गरीब बेटी-बेचवा के घर से। इस ब्याह से जो वंश
चला वह वर्णसंकर। यानी सुर्तवाला। यह मिश्रित रक्तवाला आदमी शुद्ध रक्तवाले से न
केवल निकृष्ट है बल्कि उसका विनाश भी जल्दी हो जाता है। संकट आते ही मिश्रित
रक्तवाले व्यक्ति के हाथ पाँव फूल जाते हैं। गांव में नजर उठा कर देख लो। इस तरह
के लगभग सभी परिवारों की विपन्नता कौन सी कहानी कहती है?’’
रामप्रसाद
के घर से निकलकर मैंने भाड़े का घर ले लिया। कुछ वर्षों बाद जब अपना घर बना लिया और
गृह प्रवेश की तैयारी करने लगा तो उसी दौरान शास्त्री जी मेरे घर आए। वे मेरे गांव के उसी
नेता के पास पूजा-पाठ करने आए थे। जब मैं अतिथि धर्म निभा चुका तो वे बोले,
‘‘बेटा दिलीप, एक
काम से आया हूँ। एक बाछी को गांव भेजना है। किसी खटाल से नाठा भैंस-गाय के किसी
लाट में मेरी भी बाछी लदा जाती तो काम बन जाता। है कोई जान पहचान..........!’’
‘‘बाछी आपको यहाँ से भेजनी है? गांव
में बाछियों की कमी है क्या?’’ मैंने पूछा।
‘‘नेता जी ने दान किया है। दिया क्या है मैंने ही
माँग लिया। नेताजी तो ना-नुकूर कर रहे थे, पर मलिकाइन धर्मात्मा हैं सो राजी हो
गई। असल में वह बाछी है ही ऐसी कि कोई भी देखे तो मन डोल जाए। बस इतना ही समझ लो
चेला कि बड़ी होकर कामधेनु निकलेगी।’’
‘‘ऐसी क्या खासियत है बाबा उसमें?’’ मैंने
जिज्ञासा से पूछा।
‘‘पहली बात तो यह कि उसका पूरा शरीर एकबरन का है।
एकदम काला। दूसरे में दोगली नस्ल की है। जर्सी सांड़ और देसी गाय के जोड़ से पैदा
हुई।’’
मैंने
उन्हें आश्वासन दिया कि जब तक वे अपने दामाद के यहाँ इस शहर में रहेंगे मैं बाछी
को गांव भेजने का कोई न कोई उपाय कर दूँगा। जब वे चलने लगे तो अपनेपन से बोले, ‘‘क्यों
यजमान, शादी तो चुपके से कर ली, अब
गृहप्रवेश भी क्या दूसरे पंडित से ही कराने का मन है!’’
मैं
दुविधा में पड़कर बोला, ‘‘बाबा, क्या
आप मेरे घर कथा कह लेंगे,’’ मेरी आवाज में कहीं न कहीं व्यंग्य का भी पुट
था। फिर भी वे सहज ढंग से बोले, ‘‘क्यों
तुमने कौन सा अपराध किया है? फिर
हम तो गोहत्या तक में यजमान के साथ रहते हैं। बाभन से शूद्र....... किसकी शादी और
किसके श्राद्ध में शामिल नहीं होते! तुम
तो रामखेलावन के लड़के हो। पहले के राजा महाराजा तो न जाने कितनी रानियाँ रखते थे।
हमारे धर्मशास्त्रों में भी कहा गया है कि कुँआरी कन्या में कोई दोष नहीं होता। और
फिर गोसाईं जी ने भी तो कहा ही है- समरथ के कछु नहीं दोष गोसाईं.........’’
ढेर
सारे दृश्य, ढेर सारे संवाद। स्कूल में सहपाठियों के साथ
बगीचे से चुराए गए अमरूद चबाते हुए पता नहीं कहाँ कहाँ की बतकूचन होती-
‘‘अरे यार, बाभन, छत्री, बनिया, हरिजन
तो ठीक है पर यह भूमिहार जाति कहाँ से आई?’’ कोई पूछता।
‘‘अरे,
जानते नहीं, यह
बाभन छत्री के जोड़ से बनी है!’’ कोई दूसरा लड़का मजाकिया आवाज में कहता।
‘‘तब तो मर्द बाभन रहा होगा,’’ कोई
बाभन लड़का बोलता।
‘‘नहीं वह छत्री थी,’’ कोई
क्षत्रिय लड़का बात काटता।
समझ
में नहीं आता कि हमारे गांव में शास्त्री जी, गीता में अर्जुन और जर्मनी में हिटलर
रक्त शुद्धता के विषय पर एक ही भाषा में क्यों बोलते हैं?
***
‘‘इस तरह हम देखते हैं कि एक मिश्रित रक्तवाला
व्यक्ति शुद्ध रक्तवाले व्यक्ति से न केवल निकृष्ट है बल्कि उसका विनाश भी जल्दी
हो जाता है। शुद्ध जाति असंख्य संकटों को झेलती हुई जीवित रहती है, जबकि
संकर जाति साधारण सी ठोकर लगते ही नष्ट हो जाती है। प्रकृति शुद्ध रक्त से
सुधारकों और व्यवस्थापकों को पैदा करती है, वह सृजन से शुद्ध रक्त की क्षमताओं का
विकास करती है और संकरों की जनन क्षमता को प्रतिबंधित कर उन्हें विनाश की ओर ले
जाती है........ ।’’
मैं
हिटलर की आत्मकथा माइन काम्फ बंद कर देती हूँ। साथ में अपनी आँखें भी। रक्त
शुद्धता को बनाए रखने के चक्कर में न जाने कितनी जनजातियाँ और नस्लें लुप्त होने
के कगार पर हैं।.........और आर्यों,
शकों, हुणों, अरबों, अफगानों, ईरानियों, तुर्कों
और मंगोलों के रक्त को अपने अंदर आत्मसात करनेवाली भारतीय नस्ल की बढ़ती आबादी पर
पूरा विश्व ही चिंतित है...।
किसी
के पदचाप से मेरी आँखें खुल जाती हैं। दिलीप है। थका सा दिखाई देता है। बढ़ी हुई
दाढ़ी। गिरी हुई मूंछें। रक्त-शुद्धता...........मेरे अंदर अचानक एक खिलखिलाहट
गूंजती है। आर्यों, यूनानियों, शकों, हुणों, अरबों, अफगानों, ईरानियों, तुर्कों, उजबेगों, मंगोलों
और अंग्रेजों के आक्रमण और उनके हजारों साल के शासनकाल के बाद किस-किस की धमनियों
में कितनी मात्रा में बचा रह पाया होगा शुद्ध रक्त! पहले के राजा क्या करते थे? जिधर
भी जाते और कोई सुंदर औरत देखते, उसे रनिवास में डाल लेते। पुराना राजा मरता, नया
गद्दी पर बैठता। कुछ जवान औरतों तथा पटरानियों को छोड़कर रनिवास और किले की बाकी
सभी बूढ़ी और बेकार हो चुकी औरतों को मय अंडे-बच्चे समेत बाहर खदेड़ दिया जाता। वे
खानाबदोशों की तरह घूमते हुए अंत में कहीं किसी ठिकाने पर अपनी बस्ती तैयार करते
और अपने को राजपुत्र यानी राजपूत घोषित कर लेते।
मेरा
मन करता है कि दिलीप से पूछूँ कि उसका वंश किस राज्य के राजसिंहासन पर किस ईसा
पूर्व सन् या ईस्वी में विराजमान था! पर
मुझे उसका चेहरा देखकर दया आ जाती है। मैं पूछ लेती हूँ, ‘‘क्या हुआ?’’
‘‘होगा क्या! वही जो हमेशा होता है जहाँ भी जाता हूँ, लोग बहाना बना देते हैं......! वह बिस्तर पर गिर कर अपनी उखड़ी साँसें सहेजने
की कोशिश करने लगता है। मैं सोचती हूँ,
जिस बात को कहने का मैं इतने दिनों से
मौका खोज रही थी, वह वक्त बिलकुल सामने उपस्थित है।
‘‘एक बात कहूँ?’’ मैं
भूमिका बनाती हूँ। वह अपनी आँखें उठाता है तो लगता है जैसे वह पूछ रहा हो कि आज
कुछ कहने से पहले उसकी इजाजत क्यों मांगी जा रही है। मैं अपनी बात पूरी करती हूँ, ‘‘तुम
श्वेता का ब्याह दीपक के साथ क्यों नहीं कर देते!’’
उसकी
आंखों में क्षणभर के लिए शोले भड़कते हुए दिखाई देते हैं और उसकी जुबान झटके से फिसल
जाती है, ‘‘होश
में तो हो! चमार के घर में लड़की दे दूँ?’’
मैं
ईश्वर को धन्यवाद
देती हूँ कि बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद आखिर दिलीप मेरे जाल में फँस गया है। मैं
जो चाहती थी, उसने वही कहा है। मैं बिना देर किए झट
से कहती हूँ, ‘‘चमार
के घर से लड़की ला सकते हो और चमार के घर में लड़की दे नहीं सकते? क्यों? मुझसे
तुमने जो ब्याह किया उसके पीछे कौन सी वजह थी! प्रेम या आक्रांता के अंदर का विजय-दर्प, जो
जीती हुई चीज पाने के बाद पैदा हुआ करती है! क्यों, बोलते
क्यों नहीं! या
अपनी असलियत जाहिर हो जाने के पश्चाताप में डूबे हुए हो.........!’’
वह
थोड़ी देर तक मेरी आँखों में आर्तभाव से झांकता रहता है, फिर अचानक किसी अबोध बच्चे की तरह मुझसे लिपट
जाता है। मैं महसूस करती हूँ, मेरे कंधे पर अपना सिर टिकाए वह जोर-जोर से
रोने लगा है।
---------
(हंस,
अर्द्धशती विशेषांक- 1997)
(‘कथा’
संस्था द्वारा चयनित, अनूदित
एवं ‘ट्रांस्लेटिंग कास्ट’ नामक
पुस्तक में संकलित)