Friday 31 July 2020

क्रांति की अवैज्ञानिक मानसिकता और जीवन की विडंबनाओं पर प्रभावशाली प्रहार


                                 श्रीप्रकाश मिश्र

नारायण सिंह का सद्यप्रकाशित उपन्यास ये धुआं कहाँ से उठता है आने वाले दिनों में एक महत्वपूर्ण उपन्यास बनकर उभरेगा. कारण यह है कि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की संयुक्त सीमा पर विस्तृत कोयला क्षेत्र को लेकर यूं तो कई उपन्यास लिखे गए हैं, पर सीमित उद्देश्य, सीमित अनुभूति और उथली प्रस्तुति के कारण वे वहाँ के जीवन की उस गहराई से बात नहीं कर पाते, नारायण सिंह ने प्रस्तुत किया है. वे उसी इलाके में, जन्म से ही, धनबाद में रहते हैं और कोयला खानों में काम करने वालों की ज़िंदगी से ताज़िंदगी जुड़े रहे हैं. इसलिए तथ्यों को जुटाने और उसकी प्रामाणिकता के लिए अलग से ढिढोरा पीटने की आवश्यकता उन्हें नहीं पड़ती. ऊपर से विचारधारा के प्रति सजग रहने के कारण उनकी दृष्टि साफ है. इतनी साफ कि विचारधारा ही नहीं, जीवन के अंतरविरोधों और हमारे व्यवहार पर पड़ने वाले उनके प्रभाव को पूरी जटिलता और समग्रता में आचक्षु कर पाते हैं. वे रचना के एक-एक पात्र से वाकिफ हैं और उनके व्यवहार के छद्म और भलमनसाहत दोनों को प्रस्तुत करने में सक्षम हैं. उनके लिए जीवन और समाज केवल प्रत्यक्ष अवस्थिति नहीं है, वह गतिशील इतिहास-प्रक्रिया का एक स्थाई चरण है. इसलिए उसकी निर्मिति के लिए उत्तरदायी कारकों के अंवेषण और विश्लेषण का दायित्व भी उन्होंने इस उपन्यास में खूब निभाया है.

रचना-काल सन 1970 से लेकर आपात काल की स्थिति के बाद जनता दल की स्थापना और पतन, कोई दस वर्षों तक फैला है. ऐसा वे कहते नहीं हैं, घटनाक्रमों से समय-समय पर आभाषित होता है. पृष्ठगत दस साल और अवसान में भी कोई दस साल का समय है. इन तीस वर्षों में राजनीतिकदल कोयलांचल का इस्तेमाल किस तरह से करते हैं, इसका समीचीन खुलासा वहाँ रखा गया है. यह वही समय है, जब राजनीति में गुंडई, जातिवाद प्रवेश करता है : यह जयप्रकाशकी संपूर्ण क्रांति की विडंबना ही है कि इसमें बूथ कैप्चर करने वाले और जातियों को गोलबंद करने वाले लोग हावी होते जाते हैं. दोनों का आरंभिक गढ़ बिहार है और दोनों के अगुआ जयप्रकाश के आंदोलन से निकले लोग हैं जो हर दल में अपनी पैठ बनाते हैं और दलबदल हमारी राजनीतिका स्थायी लक्षण बन जाता है, जिसका हर तरह का अभिशाप भारत आज तक झेल रहा है. ऐसे में पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर लेकर पूर्वी बंगाल (यानी बांग्लादेश) के

विस्थापित और गरीब लोगों का जीवन मर्म, जीवन संघर्ष, उसका छल-छद्म, कोयला खानों की लूट, स्थानीय लोगों की हर तरह की अनुपस्थिति और नि:संग दूरी, एक कवि बाबू का प्रेम औरऔर क्रमश: पहलवानबनते जाने की नियति और उस प्यार के ही बूते पर निकल भागने का इशारा पूरे गझिन ताने-बाने के साथ वर्णित है.

उपन्यास में उस अंचल की समस्या और जीवन अपने पूरे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक उठान और जटिलता के साथ प्रस्तुत हुआ है. सामाजिक जीवन तो वहाँ के सीमित परिप्रेक्ष्य में ही नहीं, कोयला खदानों में काम करने वाले मज़दूरों, पहलवानों, बाबुओं और मालिकों के मूल स्थानों तक पहुंचा हुआ है, जहाँ से वे आते हैं और जो उनकी मानसिक तद्जन्य व्यवहार को बनाता है. मालिक लोग बाहर के हैं- अमूमन गुजरात के, जो व्यापार में दक्ष हैं. चेहरा आभिजात्य का है, कर्म शोषण का, जिसे वे सीधेनहीं करते, अपने गुर्गों से कराते हैं : वे गुर्गे चाहे बाबू हों,या पहलवान. उनके माध्यम से वे कहीन अवैध खनन करते हैं, तो कभी-कभी मजदूरों के हित में लड़ने वाले नेताओं का हड़ताल तुड़वाते हैं. बदले में पहले वे उन्हें नौकरी देते हैं, फिर खानोंका ठीका ही देने लगते हैं. उससे जो लूट मचती है, उसे पूछिए मत. बाबू लोग बंगाल के हैं, अमूमन पूर्वी बंगाल के शरणार्थी, जिन्हें (पश्चिम बंग एवं बिहार का) स्थानीय बंगाली नीची निगाह से देखता है. वे स्वयं पछिमहा (हिंदीभाषी) लोगों को नीची निगाह से देखते हैं, विशेष्त: इसलिए कि वे मजदूर हैं, फिर भी ये बाबू लोग उनकी गुंडई का मुकाबला नहीं कर सकते क्योंकि वे मारपीट करना बर्बरता और ओछी हरकत मानते हैं. उन्हीं की संततियां जब बमों के इस्तेमाल से क्रांति का आह्वान करती हैं, तब मारपीट ओछी हरकत नहीं रह जाती- भले ही बाबू वर्ग उसका समर्थन न करे, उनका जन तो करता ही है.

इन विस्थापित बांग्लादेशी लोगों को लेकर हिंदी में नहीं के बरबर लिखा गया है, जबकि पश्चिमी पाकिस्तान के विस्थापितों को लेकर खूब लिखा गया है. बटवारा एक जैसा होने के बावजूद उसके दर्द की अभिव्यक्ति में फांक रही है. इसके कारण को जानने के लिए जब मैंने 24/02/2017 को साहित्य अकादमी के लेखक से मिलिए कार्यक्रम में नासिरा शर्मा के समक्ष उठाया तो उन्होंने इसका उत्तर टाल दिया. कहा कि बंगाली व असमिया में लिखा गया होगा. मेरा मतलब हिंदी से था. संबंधित लेखन की मानसिकता को टटोलता हूँ तो पाता हूँ कि पंजाब के विभाजन पर लिखने वाले कम्युनिस्ट हैं और उनका इरादा विस्थापितों को आर्यसमाज और अकाली दल से खींचकर अपनीओर लाना है. पूर्वी बंगाल का बंगाली आते ही कम्युनिस्ट खेमे में चला जाता है, क्योंकि स्थानीय परंपरागत रूप से रहनेवाला बंगाली कांग्रेसी होता है, और वह अपने में सटने

नहीं देता. इसलिए उस पर अलग से लिखने की ज़रूरत हिंदीवालों को नहीं पड़ी. यह बात भी नारायण सिंह के उपन्यास से बखूबी जाहिर होता है.

अधिकांश मज़दूर पूर्वी उत्तर प्रदेश व पश्चिमी बिहार के यानी भोजपुरी बोलने वाले लोग हैं, जो अपनी आर्थिक तंगी से निज़ात पाने के लिए कोलियरी जाते हैं और वहाँ जो आर्थिक जंग शुरू होती है, उसमें इलाकाई एकता और पारिवारिक संबंध कौन कहे, अगुआ और अनुशरणकर्ता, विचारधारा और लगाव तक बलि चढ़ जाता है, सर्वाइवल के लिए. राजनीतिक रूप से वे चार धड़ो में विभाजित हैं और उनके केंद्र में है वहाँ की मजदूर यूनियनों की वर्चस्वके लिए निरंतर चल रही लड़ाई. पहले कांग्रेस व ऐटक में, फिर सीपीआई की ऐटक-सीपीएम-एमएल की तत्कालीन

सीटू और फिर जनता दल के फ्रंट में. लड़ाई गलाकाट है. पर सामान्य जन को हाथ लगती हैं विडंबनाएं. उपन्यास के नायक मनोहर की सोच के माध्यम से लेखक इस विडंबना का निचोड़ कुछ इस तरह से रखता है, बुर्जुआ चरित्रों के रु-ब-रु इन प्रगतिशील साम्यवादियों का यह चरित्र समझ में आने से परे था कि एक दूसरे को अकम्युनिस्ट कहकर क्यों एक दूसरेको हेय समझते हैं, जबकि सत्ता और बुर्जुआ वर्ग में कम्युनिस्टशब्द एक गाली और अपराधी भाव में इस्तेमाल किया जाता है. पी सुंदरैय्या की नज़र में एके विश्वास , एके विश्वास की नज़र में सत्य नारायण सिंह और रवि की नज़र में एसके शर्मा कम्युनिस्ट नहीं हैं.....और यह भी कि इतिहासमें अल्ट्रालेफ्ट नेताओं द्वारा भूमिगत रहते हुए संगठन चलाने के अनेक उदाहरण हैं.

नारायण सिंह बड़े ही संवेदनशील और स्पष्ट दृष्टि के लेखक हैं. इसी के परिणामस्वरूप वे कम्युनिस्टों में व्याप्त जातिवाद, संप्रदायवाद और क्षेत्रवाद को अपनी विवेचना की जद में लाते हैं. परिणामस्वरूप वे दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और अब आदिवासी विमर्श पर भी अपनी टिप्पणी आयत कर देते हैं. वहीं वे ऑनर किलिंग और महिषासुरमर्दिनी की नूतन व्याख्या का भी वर्णन कर देते हैं, जो इधर चार-पांच वर्षों में उभरी प्रवृत्ति है. यह रचना को थोड़ा देश-काल के परिप्रेक्ष्य में अविश्वसनीय भी बनाता है. तो भी यह तो स्पष्ट है ही कि रचनाकार देश-काल की कायकता में यथार्थ की संरचना की व्याख्या अपनी विश्वदृष्टि से प्राप्त समाज के ज्ञानिक निष्कर्षों और उसके उपकरण के प्रयोग से अपनी रचनादृष्टि की विशिष्टता अर्जित करता है.

मौखिक इतिहास का उपयोग वे सिर्फ मोहनिया गांव के नामकरण के लिए ही नहीं करते, भानु प्रताप के आरंभिक चरित्र के निर्माण में भी करते हैं जो उनके भावी संघर्ष का आधार बनता है. एक-एक घटनाएं जो न केवल व्यक्ति की बल्कि कौम का इतिहास रचती है, वे सभी लिखी नहीं जातीं, जिंदा सबूत की तरह एक पीढ़ी के मुंह से दूसरी पीढ़ी में प्रक्षेपित होती रहती है. लिखा वह जाता है, जो शासक वर्ग रिकार्ड करता है, वह भी अपने काम के लिए. इसलिए सरकारी दस्तावेज़ के आधार पर लिखा गया इतिहास शासक वर्ग का इतिहास होता है. उसकी वक़ालत करने वाले शासक वर्ग के ही प्रतिनिधान होते हैं, चाहे वे रामचंद्र गुहा ही क्यों न हों. ज़िंदा कौमों का इतिहास उनकी पुराकथा, मिथक, साहित्य और मौखिक इतिहास के बूते पर लिखा जाताहै. वही उनकी कूटभाषा होती है. नारायण सिंह ने वही काम ये धुआं कहाँ से उठता है लिखकर किया है.

 उपन्यास के केंद्र में भोजपुरिया मनोहर सिंह और पूर्वी बंगाल की मीनाक्षी चक्रवर्ती की प्रेमकथा है, बंगाली भावुकता से ओत-प्रोत. बंगाली भावुकता यानी गलदश्रु रुमानियत. इसकी असफलता देवदास जैसे आत्महंता पात्र सृजित करती है. पर यह लेखक की कलम का संतुलन है कि वह प्रेमिका के मनुहारस्वरूप वर्गांतरित होकर एक विवेकशील राजनीतिक कार्यकर्ता और जिम्मेदार गृहस्थ बनता है. विडंबना यह है कि मीनाक्षी स्वयं कालकवलित हो जाती है, नायक के नाते कम, संदेह करने वाले नालायक पति के कारण अधिक.

लेखक ने अनेक जगह अपने गहरे और बहुआयामी अध्ययन का प्रमाण दिया है और मौलिक टिप्पणियां की हैं. बनलता सेन, अंगरेजी की रोमांटिक कविता, चेखव और मोपासां की कहानियां, उदय प्रकाश की कहानी की दारुण परिणति उसके कुछ उदाहरण हैं. और भी ऐसी बहुत सी बाते हैं, जिन्हें उपन्यास पढ़कर जानना ही उचित होगा. लेखक हमारी कोटिश: बधाई का पात्र है.

 

                                                (कथा के दिसंबर, 2017 अंक में प्रकाशित)                                                                                  श्रीप्रकाश मिश्र, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)

 

                           

Tuesday 28 July 2020

अहंकार, संस्कार, विचार और धर्म


अहंकार, संस्कार, विचार और धर्म
“…हम स्वयं के अंतरंग में अधूरे, खोखले होने से, उस रिक्तता को स्वामित्व के भाव से, सत्ता, पद या ज्ञान से, तुष्टिदायी सिद्धांतों इत्यादि से भरने के लिए आगे बढ़ते हैं, मन की चीजों से उस खालीपन में भीड़ कर देते हैं. भानपूर्वक अथवा अभानपूर्वक यह स्वयं को भर देने की, आश्रय खोजने की प्रक्रिया अहंकार का जाल है, यह अहं मैंकी वह ईकाई, जिसने स्वयं का किसी सिद्धांत के साथ, सुधार के साथ, किसी विशिष्ट कर्म की पद्धति के साथ तादात्म्य प्राप्त किया होता है. कुछ बनने की प्रक्रिया में- जो है स्व-पूर्ति -निरंतर विफलता की छाया रहती है.
“….बचपन से आप अपने जन्मदाताओं से प्रभावित हुए हैं, और समाज से यह पाया है कि  विशिष्ट विश्वासों तथा सिद्धांतों के साँचे के अनुसार विचार को ढालना है. बाद में इस सबके विरोध में आप भले बगावत करें और अन्य किसी साँचे को अपनावें, जिसे धर्म कहा जाता है;  आप बगावत करें या न करें, आपकी तर्कबुद्धि आपकी सुरक्षा की कांक्षा पर, ‘आध्यात्मिकदृष्टि से सुरक्षित होने की चाह पर आधारित होती है, और उस प्रेरणा पर आपकी पसंदगी, चुनाव निर्भर करता है. कुछ भी हो, आखिर तर्कबुद्धि या विचार संस्कार का नतीजा है, झुकाव की, पूर्वग्रह की, चेतन या अचेतन भय इत्यादि की परिणति है. आपकी बौद्धिक विचारणा कितनी ही तर्कशुद्ध और कुशल क्यों न हो, वह उस तक नहीं ले जाती जो मन के परे है. जो मन के परे है उसके उद्भव के लिए मन सम्यक रूप से निश्चल होना आवश्यक है.
“…विचार कभी मुक्त नहीं होता, क्योंकि हर विचारणा स्मृति का प्रतिसाद मात्र है; स्मृति के अभाव में विचारणा नहीं होती. स्मृति या ज्ञान यांत्रिक है; अतीत के कल में उसकी जड़ें होने से वह सदा ही अतीत का होता है. सब प्रकार की जिज्ञासा, तर्कयुक्त या अतार्किक, ज्ञान से प्रारंभ होती है; जो बीत चुका, उससे. जब विचार मुक्त नहीं है, वह बहुत दूर तक नहीं जा सकता; वह अपने संस्कारों की, स्वयं के ज्ञान तथा अनुभवों की सीमा में गतिशील रहता है. प्रत्येक नया अनुभव अतीत के अनुसार स्पष्ट किया जाता है, और इससे वह अतीत को प्रबल बनाता है, जो परंपरा है, जिसे संस्कारित अवस्था कहना होगा. इसलिए विचार सत्य के आकलन का पथ नहीं है.
“…मन का उपयोग करने की प्रत्यक्ष प्रक्रिया में ही, स्पष्ट विचारणा की; स्वस्थ, विवेचनात्मक युक्तियुक्तता की प्रक्रिया में ही, हमें विचार की मर्यादा का स्वयमेव पता चलता है. मानवी संबंध में विचार मन का प्रतिसाद है, वह भावरूप में या अभावस्वरूप में स्वहित से बद्ध है; वह महत्त्वाकांक्षा से, मत्सर, स्वामित्व, भय इत्यादि से बँधा हुआ है. यह बंधन ही अहंकार है, और मन जब इसे झाड़कर फेंक देता है, तभी वह मुक्त होता है. इस बद्धता का आकलन है स्व-ज्ञान.
“धर्म में विश्वास या आस्था होना, यह सत्य का पथ नहीं है. आस्था और अनास्था प्रभाव की, दबाव की बातें हैं, और जो मन खुलकर या प्रछन्न रूप से दबाव के नीचे है, वह कभी सीधा उड़ नहीं सकता. मन को प्रभाव से, आंतरिक विवशताओं से, प्रेरणाओं से मुक्त रहना होगा, जिससे वह अकेला रहे, अतीत की बेड़ियों से मुक्त, तभी कालातीत है, उसका आविर्भाव हो सकेगा. उसकी ओर जाने का कोई पथ नहीं है. धर्म किसी सिद्धांत की बात नहीं है, न पुराणमतवादिता की या कर्मकाण्ड की; वह संघटित आस्था या विश्वास नहीं है. संघटित विश्वास प्रेम और मित्रता की हत्या करता है. धर्म है पावित्र्य का भाव, करुणा की, प्रेम की अनुभूति.”
   --जे. कृष्णमूर्ति