Sunday 29 November 2020

 ओलिम्पिक में भारत के प्रथम फुटबॉल कप्तान

डॉक्टर तालिमेरन अओ (Talimeren Ao)
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अनैतिक रूप से 'ईश्वर के हाथ' द्वारा इंगलैंड के खिलाफ विश्वकप के क्वार्टरफाइनल में विजयदायी गोल करने वाले अर्जेनटाइना के विश्व-प्रसिद्ध फुटबॉलर डिएगो मेरेडोना के प्रति देश के लोगों की श्रद्धा देखकर ओलिम्पिक में पहली बार 1948 में भाग लेने वाली भारातीय फुटबॉल टीम के कप्तान डॉक्टर तालिमेरेन अओ (28 जनवरी, 1918 – 13 सितंबर, 1998) का नाम स्मृति में गूँजने लगता है। हमारे देश में मराडोना को जानने वालों में से शायद बहुत कम लोग तालिमेरेन को जानते होंगे। लंदन ओलिम्पिक में भारतीय टीम को वाकओवर मिलने के बाद दूसरे राउंड में उसका मुकाबला फ्रांस की शक्तिशाली फुटबॉल टीम से था। जीतने के कगार पर खड़ी भारतीय टीम अंतिम समय में गोल खाने के कारण अंतत: 1-2 से हार गई। उसकी हार में दो पेनाल्टी किक को गोल में परिवर्तित न कर पाना तो कारण था ही, मुख्य बात यह थी कि भारतीय टीम नंगे पाँव खेल रही थी, जबकि सभी टीमें बूट पहनकर। मैच के बाद भारतीय कप्तान सेंटर हाफ तालिमेरेन से अखबार वालों ने पूछा कि आपकी टीम नंगे पाँव क्यों खेल रही है, तो तालिमेरेन ने कहा, ‘हम लोग फुटबॉल(Football) खेलते हैं, जबकि आप यूरोप के लोग बूटबॉल (Bootballखेलते हैं।’
कप्तान की हाजिरजवाबी देख अखबार वालों ने अगले दिन के अखबार में उनके कथन को प्रमुखता के साथ छापा। तालिमेरेन को इंगलैंड के प्रसिद्ध फुटबॉल क्लब आर्सेनल ने अपनी टीम से खेलने का प्रस्ताव दिया, लेकिन तालिमेरेन ने विनम्रता के साथ इन्कार कर दिया, क्योंकि उन दिनों वे मोहन बागान टीम की ओर से खेलते हुए कलकत्ता के कारमाइकल मेडिकल कॉलेज (अब आर. जी. कर मेडिकल कॉलेज) में एमबीबीएस की पढ़ाई भी कर रहे थे। 1950 में वे एमबीबीएस पास कर डॉक्टर बनने वाले प्रथम नगा नागरिक थे। फुटबॉल से ज्यादा जरूरी उनके लिए डॉक्टर बनना था, क्योंकि उनके पिता ने मरते वक्त उनसे वचन लिया था कि वे डॉक्टर बनकर नगा लोगों की सेवा करेंगे। यह सोचने की बात है कि यदि उन्होंने आर्सेनल का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता, तो वे फुटबॉल में कहाँ तक जा सकते थे। उन्हें ऐथलेटिक्स में भी महारत हासिल थी। देश की लंबी कूद का (23 फीट) रेकार्ड बहुत साल तक 5 फीट 10 ईंच लंबे तालिमेरेन के नाम बना रहा। ओलिम्पिक में वे पूरी भारतीय टीम के फ्लैग बेयरर भी रहे। उस दौरे की एक प्रमुख बात यह भी रही कि लगभग सभी अभ्यास मैचों में भारतीय टीम विजयी रही और विरोधी टीमों में से हॉलैंड की मशहूर टीम अजेक्स भी थी।
बहरहाल, डॉक्टरी पास करने के बाद उन्होंने 1938 से आरंभ हुए खेल-कैरियर को 1951 में उस समय अलविदा कह दिया, जब वे पूरे फॉर्म में थे। 1953 में वे कोहिमा अस्पताल में मेडिकल अधीक्षक बनाए गए, और 1963 में नागालैंड ने जब पूर्ण राज्य का दर्जा पाया तो उनको राज्य का स्वास्थ्य सेवा का पहला नगा निदेशक बनने का सौभाग्य मिला, जिस पद पर वे 1978 में सेवानिवृत्त होने तक रहे।
उन्हें 1968 में भारतीय फुटबॉल टीम की चयन समिति का एक सदस्य भी बनाया गया। अभी हाल में नागालैंड के मुख्य स्टेडियम जवाहर लाल नेहरु स्टेडियम का नाम बदलकर तालिमेरेन अओ स्टेडियम कर दिया गया है। इससे पहले पश्चिम बंगाल(कालियाबोर स्टेडियम) और असम(कॉटन कॉलेज इंडोर स्टेडियम) ने अपने यहाँ एक-एक स्टेडियम बना कर उन्हें सम्मानित किया था। उन्होंने अपने दो बेटों के जो नाम रखे हैं- तालिकोकचांग और इंडियनोबा)- उनके अर्थ क्रमश: ‘जो उत्कृष्ट है’ और ‘जिसने भारत का नेतृत्व किया’ है।
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Anil Analhatu, वि नो द and 38 others
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Monday 9 November 2020

 मन ना रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा: जाति संबंधी कुछ टिप्पणियाँ

कुछ दिनों से कुछ प्रश्न मन में घुमड़ते रहे हैं. मैं कोई विद्वान नहीं. लेकिन विद्वानों के लिखे की संगत करता रहता हूँ. हाल में एक मित्र के सौजन्य से एक ‘सवर्ण पृष्ठभूमि से आए’ लेखक के पोस्ट को पढ़ने का मौका मिला, जिसमें उन्होंने अफसोस जाहिर किया है कि ‘यह बेहद स्पष्ट है कि हम किस सामाजिक पृष्ठभूमि से आए हैं. सब समझदार जानते हैं कि इसका कोई कुछ कर नहीं सकता था. यह पसंद-नापसंद का मामला था ही नहीं’. पोस्ट पर, सूचनानुसार, काफी टिप्पणियाँ आई थीं और कुछ सवर्णेतर लेखकों के साथ उनके विवाद होने के बाद वह पोस्ट हटा लिया गया, जिसमें उनके दोस्तों द्वारा की गईं हँसी-मजाक से भरी टिप्पणियाँ भी शामिल थीं. पिछले आठ सितंबर को कँवल भारती का एक पोस्ट मैंने शेयर किया था, जिसके विरुद्ध इलाहाबाद के एक लेखक श्रीप्रकाश मिश्र ने आपत्तिजनक टिप्पणियाँ कीं, जिनका उनकी एक अन्य अश्लील टिप्पणी के साथ स्क्रीनशॉट लेकर फेसबुक साथी विनोद जी सार्वजनिक कर चुके हैं. अपनी दीवार पर मेरे एक अन्य मित्र (या ‘सवर्ण कथाकार’) द्वारा की गईं तीन टिप्पणियों का भी जिक्र प्रासंगिक है- एक, किसी खास जाति में जन्म लेना उनके वश में नहीं; और दो, जो लोग मनुस्मृति का विरोध करते हैं, वे अपने जीवन में अंतरजातीय विवाह क्यों नहीं करते! (तीसरी टिप्पणी में उन्होंने लिखा था कि मनुस्मृति के आधार पर ही भारतीय संविधान की रचना हुई है, जिसे बाद में शायद गलत मानते हुए हटा लिया, इसलिए उसकी चर्चा जरूरी नहीं.)
‘सवर्ण पृष्ठभूमि’ के लेखक ने पोस्ट के अंत में लिखा था, ‘आलोचना-प्रत्यालोचना होते रहना चाहिए मगर उसके पैमाने ठीक हों, दूसरे की जन्मगत जाति, धर्म आदि पर आधारित न हों, यही गुजारिश है.’एक ओर आप अपनी ‘जन्मगत जाति’ को मानते भी हैं, जिसके लिए कोई अन्य जिम्मेवार है, तो दूसरी ओर उस पर कोई आलोचना भी नहीं चाहते. यानी वे ‘हैं’, लेकिन दूसरे उन्हें ऐसा मानकर आलोचना मत करें. दूसरों को सोचने का संदेश देने से पहले वे खुद सोचें कि क्या यह विरोधाभासी कथन नहीं? और अगर वह कथन गलत नहीं था, तो उन्होंने उसे डिलीट क्यों किया?
उन्होंने जिस ‘सवर्ण पृष्ठभूमि’ की चर्चा की, उसकी वास्तविकता क्या है?
हम उस ग्रामीण समाज में पलते हुए बड़े हुए हैं, जिसमें सवर्णेतर जातियों के नाम पर गालियों का सृजन किया जाता है- क्षमायाचना सहित प्रसंगवश जरूरी कुछ आपत्तिजनक गालियों के नाम- (चोरी-चमारी, चांडाल चौकड़ी, डोमड़ा, दैत्य, राक्षस, असुर, नेटुआ, कंजड़). ये गालियाँ सदियों से दी जाती जा रही हैं, तो इसमें किसका दोष है? जब आप अनिच्छापूर्वक ही सही, उस समाज से होना स्वीकार करते हैं, तो फिर क्या हाथ झाड़कर चल देने से जिम्मेवारी खत्म हो जाती है! जब प्रतिक्रिया में दूसरा कोई आपको ब्राह्मण/राजपूत/वैश्य कहते हुए भला-बुरा कहता है तो आज भी यही गालियाँ उसे दी जाती हैं, जैसे श्रीप्रकाश मिश्र ने दी हैं. कँवल भारती का वह पोस्ट राधाकृष्णन की हिंदू धर्म की प्रतिगामी स्थापनाओं के विरोध में था, जो राहुल सांकृत्यायन के उद्धरणों पर आधारित था. जाहिर है, श्रीप्रकाश मिश्र वे गालियाँ कँवल भारती के साथ-साथ राहुल सांकृत्यायन और ऐसे तमाम लोगों को दे रहे थे, जो राहुल के निष्कर्ष के समर्थन में हैं; और ‘सवर्ण पृष्ठभूमि’ के लेखक के पोस्ट पर हँसी-मजाक करने वाले भी मिश्र जी वाला ही काम कर रहे हैं.
जो लोग अंतरजातीय विवाह करते हैं, वे सभी मनुस्मृति-विरोधी होते हैं, यह एक मिथक है. हमारे गाँवों पर जरा गहरी नजर डालने की जरूरत है, आपका यह भ्रम भस्म हो जाएगा. लिंगानुपातिक एवं आर्थिक असंतुलन के कारण वहाँ सवर्णों, विशेषकर राजपूत/क्षत्रिय/जाट जातियों के एक तिहाई नौजवान कुँवारे रह जाते, यदि उनकी शादियाँ अंडरग्राउंड ब्रोकरों की अनुकंपा से दूर-समीप के राज्यों की लड़कियों की अवैध आवाजाही नहीं होती रहती. जाहिर है, वे गरीब और इतर जातियों की हुआ करती हैं. तो मेरे मित्र कथाकार के हिसाब से ऐसे नौजवानों को तो जातिवादी नहीं होना चाहिए था, लेकिन गाँव-कस्बे के अनुभवों से कोई भी जान सकता है कि अन्यों की तुलना में ये लोग ज्यादा कट्टर जातिवादी होते हैं. एक बात और; मनुस्मृति में और भी बहुत कुछ है, जिनके औचित्य को लेकर डॉक्टर अंबेडकर ने उसकी प्रति जलाई थी और तमिलनाडु में आज भी उसको प्रतिबंधित करने/नहीं करने के प्रश्न पर विवाद हो रहा है.
सत्तर के दशक के बाद से जाति से जुड़ी एक और प्रवृत्ति सामने आई है. समाज में उन्हें मनुवादी न समझा जाय, इसलिए ‘प्रगतिशील सवर्णों’ द्वारा अपने नाम से सरनेम हटाकर ‘महाभारत’ या रामायण से उधार लेकर कोई नाम रख लेना अथवा काश्यप, भारद्वाज, पराशर, वसिष्ठ, अत्रि, वृहस्पति आदि जैसे गोत्रों का सरनेम लगा लेना इसमें शामिल है, जो प्रकारांतर से मनुष्य की ब्राह्मणवादी उत्पत्ति की सैद्धांतिकी से उनकी प्रतिबद्धता रेखांकित करती है. और कुछ लोग, जिनके लंबे-लंबे सरनेम दूर से ही दिखाई देते हैं, कोई जरूरी नहीं कि वे अनिवार्यत: जातिवादी हों. वैसे भी, ‘नाम में क्या रखा है’, शेक्सपियर अपने दुखांत नाटक ‘रोमियो जूलियट’ में जूलियट के मुख से कहलवाते हैं, ‘गुलाब का नाम बदलने के बाद भी उसकी सुगंध वैसी की वैसी मीठी बनी रहेगी.’ (What’s in a name? That which we call a rose by any other name would smell as sweet.’)
यथार्थत:, कौन बताएगा कि हम में से कितने लोग इस महामारी से मुक्त हो चुके हैं? हमारे भीतर हजारों साल के जो संस्कार घुसे हुए हैं, वे क्या नाम बदल लेने, सरनाम अथवा अंतरजातीय विवाह कर लेने मात्र से मिट जाएँगे?
“मानसिक आनुवंशिकता भी उतनी ही संस्कारप्रवण होती है जितना आनुवंशिक स्वामित्व, दोनों ही मन को समाज के विशिष्ट ढाँचे में पकड़कर रखते हैं और सीमित करते हैं, जिससे समाज का जड़मूल से परिवर्तन होने में रुकावट आती है. बालमन पर अतीतकाल की, आज्ञापालन की और अनुवर्तन की विद्यार्थी की चेतन तथा अचेतन प्रतिबद्धता, संस्कारिता जैसी मानसिक आनुवंशिकता के कारण नयी समाज-व्यवस्था के निर्माण में बाधा पड़ती है.” (जिद्दू कृष्णमूर्ति)
इस बाधा की प्रतिक्रिया में एक प्रश्न किया जा सकता है कि आखिर हम भीतर/बाहर से जो भी हैं, उसे क्यों नहीं स्वीकार कर लेते? शायद स्वीकृति के बाद इस बाधा को/से दूर करने/होने का कोई रास्ता दिखाई दे जाय! तब शायद हम अपने आप से पूछें कि आखिर हम हैं कौन, जिसको कवच के पीछे छुपाने का प्रयास करते रहते हैं?
शास्त्र व इतिहास में बिखरे सत्य से समाहित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘मानव समाज’ का एक उद्धरण: “बौद्ध, जैन तथा दूसरे धार्मिक संप्रदायों ने ईसापूर्व छठवीं सदी से रंग-वर्ग समन्वय का आंदोलन शुरू किया, वह धीरे-धीरे इतना प्रबल हो गया कि पुराने पुरोहित वर्ग को अपना अस्तित्व खतरे में दिखाई देने लगा. उन्होंने आर्यों के आगमन से वेद से उपनिषद काल तक, चले आते रंग के प्रश्न को नरम कर दिया, अनार्य देवताओं, अनार्य धार्मिक विचारों और परम्पराओं के बॉयकाट की नीति को छोड़ा और चौथी सदी ईसवी में गुप्त साम्राज्य की स्थापना के साथ सर्व-समन्वय का रास्ता अख्तियार किया. पुनरुज्जीवित ब्राह्मण या हिंदू धर्म की यही नई विशेषता थी, जिसने उसकी हिलती इमारत को बचा लिया. वर्णों में रंग के प्रश्नों को ही हटा दिया; पिछले दो-ढाई हजार वर्षों में रक्त सम्मिश्रण इतना हो चुका था कि गोरा होना सिर्फ ब्राह्मणों के लिए नहीं रह गया था. जहाँ बुद्ध के समय हम सोणदंड ब्राह्मण को ब्राह्मण बनानेवाली बातों में गौरवर्ण होने की प्रधानता स्वीकर करते देखते हैं, वहाँ अब वह गुण, कर्म, स्वभाव पर आश्रित माना जाने लगा और रंग बिल्कुल हटा दिया गया. नए सुधार ने चार वर्णों की संख्या यद्यपि चार ही रखी, किंतु अब वर्णों का द्वार खोल दिया गया था. पुरोहित वर्ग जिस किसी आर्य, अनार्य या संकर अथवा प्राचीन या नवागत जातियों को ऊँचे वर्ण में डाल सकता था…..इसी महान समन्वय के युग में शक, यवन जैसी नवागत जातियों का बहुत-सा भाग क्षत्रिय और ब्राह्मणों में शामिल हुआ. आमीर (अहीर), जट्ट, गुर्जर आदि में जो प्रभुताशाली थे, उन्हें क्षत्रिय वर्ण में स्थान मिला.” (पृष्ठ-104).
वंश परंपरा का आधार पुरुष-स्त्री का शारीरिक संबंध है. रामायण-महाभारत में वैवाहिक/स्त्री-पुरुष संबंधों में अनुशासन का अभाव प्रचुर मात्रा में दिखाई देता है. महाभारत का आदि पर्व ऐसे अनुशासन-विहीन वैवाहिक/शारीरिक संबंधों से पैदा हुई संतानों के असंख्य उदाहरणों से पटा पड़ा है. उनमें से कुछ सामने हैं- पराशर-मत्स्यगंधा (सत्यवती) से व्यास (63), व्यास-अंबिका/अंबालिका/दासी से पांडु/धृतराष्ट्र/विदुर, हिडिंबा-भीम(155),मणिपुर की राजकुमारी-अर्जुन (125), गौतम-जानपदी (से कृपि-कृपा130), भारद्वाज-घृताची (द्रोण-120) व्यास-घृताची (324) के समागम से -संतान उत्पत्ति के वर्णन मिलते हैं. संतान पैदा करने मात्र की नहीं, महाभारत के शांति पर्व के 234वें पद में तो राजा युवनाश्व द्वारा अपनी प्रिय स्त्री को दान देकर और मित्रसह द्वारा अपनी पत्नी पदयंती को वसिष्ठ को दान देकर स्वर्ग प्राप्ति करने की जानकारी मिलती है. महाभारत के अनुशासन पर्व के पद-2 में किसी सुदर्शन द्वारा अतिथि सेवार्थ अपनी भार्या देकर अमर कीर्ति प्राप्त करने की जानकारी है.
जिस भरद्वाज को द्रोण का पिता माना जाता है, उन्हीं की पुत्री इलाविडा रावण की विमाता थी; और उन्हीं भरद्वाज को आयुर्वेद की चरक सन्हिता में वर्णित एक चिकित्सकीय थ्योरी का श्रेय दिया जाता है- कोई भी गर्भ/भ्रूण मात्र किसी अकांक्षा, प्रार्थना, मस्तिष्क की शक्ति अथवा आध्यात्मिक कारणों से नहीं, बल्कि रजोचक्र के उपयुक्त समय के दौरान गर्भ में पुरुष के शुक्राणु और स्त्री के रजरक्त के संयोग से निर्मित होता है. (‘An embryo is not caused by wish, prayers, urging of mind or mystical causes, but it is produced from the union of a man’s sperm and menstrual blood of woman at the right time of her menstrual cycle, in her womb’.- The roots of Ayurveda: Selections from Sanskrit medical writings by D. Wujastyk(2003)- penguin books-page- 51-53).
एक ओर हम भरद्वाज के इस वैज्ञानिक सिद्धांत की प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं, तो दूसरी ओर तीन सौ तिरेपन रानियों (अयोध्या कांड, सर्ग 39, श्लोक 36,37) से दशरथ की एक भी संतान के न होने का सत्य जानने के बावजूद (वाल्मीकि रामायण में राम के जन्म संबंधी कारण) पुत्रेष्टि यज्ञ की अग्नि से निकली खीर खाने से दशरथ की तीन रानियों के गर्भ ठहरने की कथा को सही मानकर राम को ऐतिहासिक पात्र मान लेते हैं; यह कितनी बड़ी विडंबना है!
कुछेक को छोड़कर अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार राजपूत भारत में प्रवेश करने वाले सिथियनों और शकों के वंशज हैं, जिन्होंने स्थानीय लोगों के साथ वैवाहिक संबंध बनाए और यहीं की संस्कृति में रच-खप गए. क्षत्रिय/ राजपूत जाति के बारे में असंख्य विरोधाभासी स्थापनाएँ इतिहास में मिलती हैं, जिनका वर्णन बाद में किया जा सकता है. फिलहाल, कुछ अन्य बातें. डब्ल्यू जी ब्रिग्स की पुस्तक ‘द चमार्स’ में, (1919) जिसका जय प्रकाश कर्दम द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद- सम्यक प्रकाशन के यहाँ उपलब्ध है) उत्पत्ति के विभिन्न स्रोतों से प्राप्त किंवदंतियों एवं कथाओं के हवाले से चमार जाति को सवर्णों से ही जबरन अलग कर दी गई जाति की संज्ञा दी गई है. समाजशास्त्री और इतिहासकार एन आर मलकानी व गौर अंसारी के अलावा अरुण ठाकुर और मोहम्मद खडस ने संयुक्त रूप से लिखी गई अपनी पुस्तक ‘नरक सफाई’ में मेहतर जाति को राजपूतों का वंशज बताया है. मलकानी लिखते हैं, ‘आधुनिक काल में शहरों के विकास के साथ ही भंगी पेशा शुरू हुआ. सबसे पहले मुसलमानों ने इस व्यवसाय की नींव रखी. और अंगरेजों ने इस व्यवसाय को जबरन पुश्तैनी बना दिया.’
बौध धर्म के अनुयायी अशोक की मृत्यु और मौर्य वंश के अवसान के बाद, हिंदू पुनरूत्थान काल में वर्ण-व्यवस्था को पुनर्व्यवस्थित और सुदृढ़ करने का श्रेय लेने वाले शास्त्र मनुस्मृति में भी कुछ जातियों की उत्पत्ति के दिलचस्प सूत्र मिलते हैं. जैसे “ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से निषाद जाति की संतान पैदा होती है. क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से सूत (रथ हाँकने वाली) जाति की संतान और शूद्र पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से निम्नतम चांडाल जाति का आदमी पैदा होता है.” (मनुस्मृति : अध्याय 10 श्लोक 8-12).
कँवल भारती ने जिस राधाकृष्णन के बारे में पोस्ट लिखा था, उनकी जीवनी लिखते हुए उनके पुत्र ने राधाकृष्णन के जैविक पिता और सामाजिक पिता को अलग-अलग बताया है.
इन उदाहरणों को देखकर पूछा जा सकता है कि अपने पूर्वजों का मुख काला करने का काम क्यों? तो इसका आशय मात्र यही है कि अगर मनुष्य की वैज्ञानिक उत्पत्ति-नियम के बदले, ऋग्वेद को ही प्रमाण मानें; तो भी क्या हम (वर्ण की) उसी विशुद्ध अवस्था (Purest Form) में रह गए हैं, जब वे तथाकथित रूप से ऋग्वेद के दशम अध्याय के पुरुष सूक्त के ‘पुरुष’ के मुख, बाहु, जंघा और पैरों से निकले क्रमश: ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र के रूप में थे! ऐसी अवस्था में यदि कोई सवर्ण के रूप में हमारी आलोचना करता है, तो हमें बुरा क्यों लगना चाहिए! (जारी)
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