Tuesday 19 February 2013

हिंसा को यहां से देखो - Review of "Broken Republic - Three Essays" authored by Arundhati Roy (Published in 'Hans'- Hindi Monthly June, 2012)

समीक्षा
हिंसा को यहां से देखो
नारायण सिंह
        अरुंधति राय की पुस्तक ‘आहत देश’ उनके गल्पेतर गद्य-लेखन की श्रृंखला में ताजातरीन दस्तावेज है। यह उनके अंग्रेजी शीर्षक ‘ब्रोकन रिपब्लिक: थ्री एस्सेज’ का अनूदित संस्करण है। इस संग्रह के पहले आलेख ‘चिदम्बरम जी की जंग’ (स्वतंत्र आलेख के रूप में अक्टूबर, 2009 में प्रकाशित) को ‘भूमकालः कामरेडों के साथ’ (मार्च, 2010) की पूर्वपीठिका कहा जा सकता है तो अंतिम आलेख ‘साहबी इंकलाब’ (सितंबर, 2010) को इसका उपसंहार। कुछ आलोचकों के साथ ‘भूमकाल: कामरेडों  के साथ’ को एक रिपोर्ताज कहने में कोई आपत्ति तो नहीं है, किंतु मेरा यह भी मानना है कि अट्ठासी पृष्ठों पर अंकित यह यात्रा वृत्तांत एक ऐसा ऐतिहासिक आख्यान है, जिसमें न केवल पढ़ने वाले, बल्कि रचनाकार की भी जीवन-दृष्टि को बदल देने की क्षमता मौजूद है। इसलिए मैं यह भी मानता हूँ कि इस पुस्तक की तटस्थ समीक्षा नहीं की जा सकती। आप इससे या तो सहमत हो सकते हैं या फिर असहमत। और यह पढ़ने वाले की मानसिकता पर निर्भर करता है कि आप इसके पक्ष में हैं या विपक्ष में।
        यह लगभग वैसा ही है जैसा कि उनके कुछ आलोचक उन पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि वे दुनिया को (लगभग 300 ई0 में हुए पारसी दार्शनिक मानी के नाम पर चलाए गए धर्म-दर्शन) मानीकियन दृष्टि से देखती हैं, जिसमें अच्छे और बुरे के संघर्ष में किसी एक का ही चुनाव किया जा सकता है।
        उनका पहला उपन्यास ‘द गाॅड आॅफ स्माल थिंग्स’ 1997 में आया था (1997 में जिसे मैन बुकर्स पुरस्कार मिला)। तब से उनके पाठकों और प्रकाशकों को उनके दूसरे उपन्यास की प्रतीक्षा रही है। लेकिन इस बीच स्थितियाँ शायद इतनी भयानक हो गई हैं कि इनसे आँखें चुराकर गल्प के मजे लेना उनके लिए मुश्किल महसूस होने लगा (वे उपन्यास को नृत्य कहती हैं जबकि अपने पाॅलेमिक लेखन को पैदल चलना)। आज का यथार्थ अपेक्षाकृत इतना मारक और दारुण रूप से चकित और चीख पैदा करने वाला हो चुका है कि वंचितों, दबे और कुचले गए लोगों के बीच जाकर उनके दुखों-संघर्षों पर शोध करना और उसे सीधे-सीधे न कहकर कहानियों एवं उपन्यासों में ढालना भले कुछ (और खासकर हिंदी) लेखकों के लिए अद्वितीय कला का रूप हो, अरुंधति राय के सोच का संसार कुछ और है। मैं यह भी मानता हूँ कि ‘द गार्जियन’ के लिए स्टीफेन माॅस को (5 जून, 2011 को) दिए गए उनके साक्षात्कार ;मदण्ूपापचमकपंण्वतहध्ूपापध्ंतनदकींजपतवलद्ध को पढ़े बिना ‘आहत देश’ की चर्चा अधूरी रहेगी। वे उसमें एक जगह कहती हैं ‘‘मैं कोई महत्वाकांक्षी व्यक्ति नहीं हूँ। ..... उपन्यास (लिखा जाता) है या नहीं; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जंगल में जाकर उन संघर्षशील आदिवासियों के बीच (तीन हफ्ते) रहना, मेरे लिए किसी भी दूसरे कार्य से अधिक महत्वपूर्ण था।
        अरुंधति राय उसी साक्षात्कार में आगे कहती हैं कि ‘मेरे लिए यह असंभव है  कि इन चीजों को राजनीतिक अथवा अपने कैरियर को बेहतर बनाने वाले प्रोजेक्ट के नजरिए से देखूँ।’ अपनी यात्रा के दौरान उन्हें उन गरीब किंतु अपने हक के लिए लड़ने वाले आदिवासियों के साथ जमीन पर सोना किसी ‘हजार सितारों वाले होटल’ के बिस्तर पर सोने जैसा लगता था।
        वे पुस्तक के पहले ही अध्याय में भारत के तत्कालीन गृहमंत्री चिदम्बरम को निशाना बनाती हुई उन पर आरोप लगाती हैं, कि ‘‘हम इस तथ्य का क्या मतलब निकालें कि आॅपरेशन ग्रीन हंट के प्रमुख कार्याधिकारी और हमारे गृहमंत्री पी. चिदम्बरम कारपोरेट वकील के रूप में अनेक खनिज निगमों के हितों के प्रतिनिधि रहे हैं। हम इस तथ्य का क्या मतलब निकालें कि जिस दिन 2004 में उन्होंने मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री के रूप में शपथ ली, उसी दिन उन्होंने वेदांत के गैरकार्यकारी निदेशक पद से इस्तीफा दिया था।’’
        यहाँ ध्यान देने की जरूरत है कि वेदांत वह कंपनी है जिसको उड़ीसा की नियमगिरि पहाड़ी से बाक्साइट निकालने का अधिकार दिया गया है। यह वही पहाड़ी है जिसे वहाँ के आदिवासी कोंड लोग अपना भगवान मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं और इसीलिए यह भी मानते हैं कि उन्हें अपने घरों और अपनी जमीन और अपने भगवान को बचाने का पूरा हक है; और यह अधिकार न केवल पारंपरिक है बल्कि संविधान-प्रदत्त भी है। वे लिखती हैं कि ‘आदिवासियों की भूमि का (जहाँ सबसे  अधिक खनिजों की भारी मात्रा है) अनिवार्यतः अधिग्रहण करना और उसे निजी खनन कंपनियों के हवाले करना पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित) अधिनियम (पेसा) के अंतर्गत गैरकानूनी और असंवैधानिक है।’ इस पेसा (1996) के अंतर्गत पूरे भारत में आदिवासी भूमि के अनिवार्य अधिग्रहण को किसी भी कारण से सही नहीं ठहराया जा सकता। ‘‘लिहाजा यह विडम्बना ही है कि जिन लोगों को माओवादी कहा जा रहा है (जिनमें वे सभी शामिल हैं जो भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं) वे दरअसल संविधान की रक्षा करने के लिए लड़ रहे हैं, जबकि सरकार उसका उल्लंघन और तिरस्कार करने की भरसक कोशिश कर रही है।’’ (‘आहत देश’, पृष्ठ-146)।
        यह एक विडंबना ही है कि देश के आम आदमी, के दिलोदिमाग में माओवादियों  की छवि महज एक कानून तोड़ने वाले हिंसक लुटेरों के रूप में अंकित है। कारपोरेट घरानों के पैसों पर चलने वाले अधिकांश मीडिया और सरकारी प्रचारतंत्र में उन्हें बदनाम करने की होड़ सी मची हुई है। यह पुस्तक आम पाठक को जंगलों में चल रहे इस तथाकथित युद्ध के असली कारकों का   परिचय देती है और इस प्रक्रिया में व्यवस्था, प्रशासन, पुलिस और मीडिया के असली चेहरों को बेनकाब करती जाती है। अरुंधति राय के अनुसार वहां की सबसे बड़ी लड़ाई जंगलों और पहाड़ियों में छुपे बाॅक्साइट भंडार सहित अन्य खनिजों के खनन को लेकर लड़ी जा रही है। सिर्फ उड़ीसा के बाक्साइट खनिज की कीमत (2004 में) 2.27 ट्रिलियन (खरब) डालर (भारत के सकल घरेलू उत्पाद के दोगुने से भी ज्यादा) आंकी गई थी; जो अब (2009 में) लगभग 4 ट्रिलियन डालर हो गई होगी। सरकार को इसमें मात्र सात फीसद राॅयल्टी मिलती है। जाहिर है कि बाकी पैसा उन कंपनियों और उनके सूबेदारों के पास ही जाएगा। अरुंधति राय प्रामाणिक आंकड़ों के साथ यह बताती हैं कि उड़ीसा के साथ-साथ छत्तीसगढ़ और झारखंड में बाॅक्साइट के अलावा कच्चा लोहा, यूरेनियम, डोलोमाइट, कोयला, टिन, ग्रेनाइट, संगमरमर, ताँबा, हीरा, सोना, क्वार्टजाइट, कारंडम, वैदूर्य और हरितमणि, सिलिका, फ्लुओराइट और याकूत जैसे अट्ठाइस दूसरे खनिज मौजूद हैं। झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, आंध्र, तेलांगाना और मध्य प्रदेश के इस क्षेत्र को मीडिया ‘लाल गलियारा’ का नाम देता है, जिसे अरुंधति राय ‘अनुबंध गलियारा’ कहती हैं, क्योंकि इस क्षेत्र के हर पहाड़ी, हर नदी, हर जंगल के लिए एमओयू या समझौते हो चुके हैं, जिनमें सरकार के साथ मित्तल, जिन्दल, टाटा, एस्सार, पाॅस्को, रिओ टिन्टो, बीएचपी बिलिटन और वेदान्त जैसी कंपनियाँ शामिल हैं जो हर हाल में वहाँ के अकूत खजाने को हासिल करना चाहती हैं। (पृष्ठ 31) 
        यहाँ यह भी विचारणीय है कि एक टन अल्मूनियम पैदा करने के लिए छह टन बाॅक्साइट चाहिए, जबकि इसके लिए हजार टन से ज्यादा पानी और बिजली की विराट मात्रा दरकार चाहिए। और यहाँ के लाखों लोगों के होने वाले विस्थापन की कीमत पर मिलने वाले अल्मूनियम का मुख्य उपयोग विदेशी हथियार उद्योगों के काम में किया जाएगा। इसके साथ-साथ झारखंड में जादूगोड़ा में हो रहे यूरेनियम के खनन से होने वाली तबाही को लेकर लगातार आंदोलन चल रहे हैं। माओवादी प्रभाव क्षेत्र में विकास न होने देने के आरोप का जवाब देते हुए वे लिखती हैं कि जहां माओवादियों का प्रभाव क्षेत्र नहीं है, वहाँ भी ‘न तो स्कूल हैं, न हस्पताल और न छोटे बांध। छत्तीसगढ़ में लोग इतने गंभीर कुपोषण से पीड़ित हैं कि डाक्टरों ने उसे ‘आहार संबंधी एड्स’ कहना शुरू कर दिया है। ज्यादातर लोगों के खून में (जिनमें जनमुक्ति छापामार सेना के लोग शामिल हैं) हेमोग्लोबिन की मात्रा 5 से 6 के बीच है। छोटे बच्चों को प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण दर्जा 2 है। (पृष्ठ 109)। जिस 16 दिसंबर, 12 के दिल्ली रेपकांड को लेकर पूरे देश में मीडिया ने भारी बवंडर उठाया था उससे भी भयानक कांड उन जंगलों में आदिवासी स्त्रियों के साथ आए दिन हुआ करते हैं किंतु मीडिया बिल्कुल चुप रहता है। अरुंधति राय लिखती हैं कि पहले वन विभाग के कारकून और बाद में पुलिस उन्हें निशाना बनाती थी। अब सुरक्षा बल के जवानों के साथ ‘जन जागरण अभियान’ के नाम से बनाई गई एक प्रकार की कारपोरेटी सेना सलवा जुडुम (जिसके शुरूआती साहूकारों में टाटा स्टील और एस्सार स्टील का नाम ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक समिति की ड्राफ्ट रिपोर्ट में शामिल है) के लोग यह काम करते हैं (पृष्ठ-79)। वे 2005 की एक घटना का विवरण देती हैं कि तब कोरमा गाँव पर नगा बटालियन और सलवा जुडुम ने हमला किया। उन्होंने गाँव को जलाने के बाद तीन लड़कियों को पकड़ लिया और उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया और फिर मार डाला। ‘‘उन्होंने उनके साथ घास पर बलात्कार किया था, लेकिन जब वह खतम हुआ तो  वहाँ घास नहीं बची थी। ....... पुलिस अब भी आती है, जब उन्हें औरतों या मुर्गियों  की जरूरत होती है।’’ (पृष्ठ-94) 
        इन तमाम संदर्भों को देखते हुए, अपने पूर्ववर्ती नक्सलवादियों की ही भांति ‘‘माओवादी मानते हैं कि भारतीय समाज की समूची संरचना में अंतर्निहित विषमता को  समाप्त करने के लिए भारतीय राज्य (स्टेट) को हिंसक तरीकों से उखाड़ फेंकना ही एकमात्र रास्ता रह गया है)’’ और यह रास्ता इन आदिवासियों ने पहली बार नहीं अपनाया है। जिस ‘भूमकाल’ (भूचाल) की सौवीं जयंती समारोह में अपने शामिल होने का जिक्र अरुंधति राय करती हैं, वह 1910 में अंग्रेजों के विरुद्ध आदिवासियों द्वारा किया गया सशस्त्र विरोध था। झारखंड और उड़ीसा के इतिहास में भी इस प्रकार के सशस्त्र विरोध के अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। हो सकता है इस बार यह माओवाद के नाम से वापस आया हो। और इसे ही देश के प्रधानमंत्री द्वारा ‘देश की आंतरिक सुरक्षा पर सबसे बड़ा खतरा’ के रूप में चिह्नित किया गया है। जिस काम को अंग्रेज नहीं कर सके उसे करने का बीड़ा आजाद भारत की सरकार ने उठाया है। और शायद इसीलिए अब वहाँ सेना की तैनाती के बारे में सोचा जा रहा है। लेकिन सेना वहाँ आने से पहले यह चाहती है कि उसे नगालैंड, मणिपुर, असम और कश्मीर की भांति वहाँ भी ‘सैन्य बल विशेष अधिकार अधिनियम (जो गैर कमीशन प्राप्त अफसरों को यह अधिकार देता है कि वे संदेह में किसी को भी गोली मार सकते हैं) के तहत वे सारे अधिकार दे दिए जायं। 
        अरुंधति राय लिखती हैं, ‘‘भारतीय राज्य को सारतः सवर्ण हिंदू राज्य के रूप में न देखना कठिन है (चाहे जो भी राजनीतिक दल सत्ता पर आसीन हो) जो दूसरे के प्रति एक सहज प्रतिक्रियापरक शत्रुता संजोए रखता है। जो सच्चे औपनिवेशिक ढंग से नगा और मिजो लोगों को छत्तीसगढ़ में, सिक्खों को कश्मीर में, कश्मीरियों को उड़ीसा में, तमिलों को असम में लड़ने भेजता है। यह सुदीर्घ युद्ध नहीं तो क्या है?’’ (पृष्ठ 108)। वे एक और जगह ‘कश्मीर, पश्चिम बंगाल, हैदराबाद, गोवा, नगालैंड, मणिपुर, तेलंगाना, असम, पंजाब, बिहार, आंध्रप्रदेश और मध्य भारत की लंबाई चैड़ाई में फैले आदिवासी इलाकों में नक्सलवादी संघर्ष के दमन का जिक्र करती हुई कहती है कि दसियोंझारों लोग बेखौफो-खतर मार दिए गए हैं लाखों को यातनाएँ दी गई हैं। यह सब लोकतंत्र के कल्याणकारी मुखौटे के भीतर।’’
        ‘आहत देश’ की लेखिका इस लोकतंत्र के कल्याणकारी मुखौटे के पीछे से सत्ता का संचालन कर रहे काॅकस को ‘चांडाल चैकड़ी’ का नाम देती हैं और इसमें नेताओं, नौकरशाहों और कारपोरेट घरानों के साथ (कुछ अपवादों के साथ) न्यायाधीशों को भी शामिल करती हैं तो चुनावों को ‘लोकतंत्र की भडैंती’ की संज्ञा देती हैं। (पृष्ठ-141)
        वे ‘आहत देश’ में लिखती हैं ‘‘आज अगर आदिवासियों ने हथियार उठा लिए हैं तो इसलिए क्योंकि वह सरकार जिसने इन्हें हिंसा और उपेक्षा के अलावा और कुछ नहीं दिया, अब इनकी आखिरी चीज भी छीन लेना चाहती है इनकी जमीन। (पृष्ठ 18)
        ‘द गार्जियन’ के जिस साक्षात्कार का जिक्र मैंने शुरू में किया है, उसी में अरुंधति राय देश की सत्ता के खिलाफ आदिवासियों के हिंसक प्रतिरोध का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘‘मान लें कि आप जंगल के भीतर के किसी गाँव में रहने वाले आदिवासी हैं और आपके गाँव को सीआरपी के 300 जवानों ने घेर लिया है और उसे जलाना शुरू कर दिया है तो आप क्या करेंगे? क्या आप भूख हड़ताल करेंगे? पहले से ही भूखा आदमी किस प्रकार भूख हड़ताल कर सकता है? अहिंसा एक प्रकार का  थिएटर है, जिसके लिए दर्शकों की जरूरत होती है। जब आपके साथ कोई नहीं तो आप क्या करेंगे? तब लोगों का यह हक बनता है कि वे विनाश (कारियेां) का प्रतिरोध करें।’’
        वे अपने साक्षात्कार में स्पष्ट रूप से कहती हैं कि वे कोई माओवादी सिद्धांतकार नहीं हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि कोई भी कम्यूनिस्ट आंदोलन पूंजीवाद से कम विनाशकारी नहीं सिद्ध हुआ है। वे माओवादियों के प्रतिरोध से सहानुभूति रखती हंै तो इसलिए क्योंकि आज के दौर में सरकार द्वारा जनता, जो केवल संविधान-प्रदत्त अपने अधिकार की मांग भारत के कोने-कोने में कर रही है, के दमन का विरोध जिस ढंग से किया जाना चाहिए कुछ कुछ वैसा ही विरोध माओवादियों द्वारा किया जा रहा है। और इसे औचित्य प्रदान करते हुए वे कहती हैं कि ‘बुलेटों और यातना की कोई भी हिंसा भूख और कुपोषण की हिंसा से बड़ी नहीं होती’। 
        यहाँ मैं यह भी जोड़ना चाहता हूँ कि यह पहली बार नहीं कि कोई लेखक या कोई ‘बाहरी’ व्यक्ति नक्सलवादियों के प्रति इस तरह की सहानुभूति का प्रदर्शन कर रहा है। 12 या 13 जून 1975 में बिहार के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की यात्रा करते हुए वहाँ के लोगों से जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि आप हिंसा का रास्ता छोड़कर ‘संपूर्ण क्रांति’ का रास्ता अपनाएँ। यदि पाँच वर्ष की अवधि के भीतर स्थितियों में कोई भी सुधार नहीं होता तो मैं आपको नक्सलवाद छोड़ने को नहीं कहूँगा। इस घटना का जिक्र करते हुए नक्सलवाद विरोधी सरकारी अभियान में हिस्सा लेने वाले भूतपूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह की प्रसिद्ध किताब ‘द नक्सलाइट मूवमेन्ट इन इन्डिया’ का निम्नलिखित अंश उद्धृत करना मैं यहाँ प्रासंगिक समझता हूँ, ‘‘नक्सलवाद ऐसा शब्द है जिसका अत्यधिक दुरुपयोग हुआ है। किसी क्षेत्र में सामाजिक या आर्थिक न्याय की मांग करने वाले किसी भी आदमी  के खिलाफ चलाई जा रही दमनात्मक कार्रवाइयों को कुछ निहित स्वार्थी तत्त्वों का समर्थन करने वाला प्रशासन उस पर यह शब्द चस्पा करके उसे उचित  सिद्ध करता रहा है। कुछ नक्सलवादी समूह, जो कुछ विवेकहीन हिंसा का काम करते रहे हैं, वे भी इस भ्रम के लिए दोषी हैं। मूलतः यह अपने सामाजिक एवं आर्थिक अस्तित्व के लिए शोषित किसानों, वंचित आदिवासियों और शहरी सर्वहारा द्वारा किए जा रहे  संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है। अपनी जनता को कम से कम इतना देना किसी भी सत्ता का कत्र्तव्य बनता है। यदि वह इतना भी नहीं दे सकती तो इसका परिणाम विनाशकारी होना निश्चित है।’’ 
        अरुंधति राय ने अपने आरोपों और तथ्यों के प्रमाणस्वरूप 46 संदर्भों का हवाला दिया है। वे भगत सिंह और चे गुएवारा के उद्धरणों और फैज अहमद ‘फैज’ और अनेक जनगीतों को भी किताब में जगह दी है। यही नहीं, वे माओवादियों की ‘जनताना’ सरकार का सकारात्मक पक्ष भी प्रस्तुत करती हैं। जिसके चलते आदिवासियों में उनकी पैठ निरंतर बढ़ती जा रही है। वन विभाग के कारकूनों से निजात दिलाना, तेंदू पत्तों के बंडल बनाने और जंगल से बाँस निकालने की मजदूरी में बहुत ज्यादा वृद्धि करवाना, स्त्रियों को आत्मरक्षा के लिए तैयार करना और सबसे बड़ी बात भूमि का पुनर्वितरण करना इन कार्यों में शामिल हैं। उनके अनुसार 1980 से 2000 के बीच पार्टी ने 3,00,000 एकड़ वन्य भूमि का पुनर्वितरण किया है और ‘जनताना सरकार’ के नौ विभाग हैं - कृषि, व्यापार उद्योग, आर्थिक, न्याय, रक्षा, हस्पताल, जनसंपर्क, स्कूल रीति-रिवाज और जंगल (जंगल बचाओ विभाग)। अपनी यात्रा के  दौरान साथ रही कामरेड जूरी के हवाले से वे लिखती हैं कि लोहण्डीगुडा स्थान  में जाने का फैसला माओवादियों ने तब लिया जब वहाँ की दीवारों पर यह लिखा मिलने लगा कि ‘नक्सली आओ, हमें बचाओ’। 
        वे अपने यात्रा-वृत्तांत में स्त्रियों की स्थितियों के वर्णन में अपेक्षाकृत ज्यादा रुचि लेती हैं। कामरेड वेणु के हवाले से वे लिखती हैं कि 1980 के दशक में सबसे पहले औरतें ही अपनी समस्याएं लेकर माओवादियों के पास आई थीं। उनमें से एक बूढ़ी माडिया आदिवासी औरत द्वारा अपनी भाषा में गाए गए गीत भी उद्धृत करती हैं जिसका अनुवाद भी साथ में दिया गया है,
                जब हम हाट में जाएँ दादा दाकोनिले
                आधा नंगा जाना पड़े दाकोनिले
                ऐसी जिनगिया भावे ना दादा दाकोनिले
                पुरखों को बोलो ई बात हमारी दादा, दाकोनिले। (पृष्ठ 90)
        यह गीत उस झूठ का भी पर्दाफाश करता है, जिसमें कुछ भारत भवनी लेखकों ने बस्तर के आदिवासियों के नंगेपन और भूख की मौजूदगी के पीछे पवित्रता की खोज की थी। इस पुस्तक की लेखिका अपने साथ चल रहीं स्त्री छापामारों को उद्धृत करते हुए लिखती हैं कि 1986 में क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन के गठन के बाद अब उसमें नब्बे हजार महिलाएं सदस्य बन चुकी हैं, जो गीत लिखती हैं, उन्हें गाती हैं और ‘जन नाट्य मंच’ द्वारा प्रस्तुत किए गए नाटकों में हिस्सा लेती हैं, और जरूरत के अनुसार आत्म रक्षा में बंदूक भी चलाती हैं।
        ‘आहत देश’ में जगह-जगह मौजूद व्यंग्य की धार विरोधियों के सीने को चाक करने की हद तक आहत करने वाला है। यहाँ एक उदाहरण द्रष्टव्य है। ‘‘नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में, युद्ध तेज कर देने का फैसला लिया गया। ........ गृह सचिव ने वादा किया कि अगले पाँच वर्षों के दौरान पुलिस के 8,00,000 सिपाही भरती किये जायेंगे। रोजगार गारंटी योजना के लिए यह अच्छा नमूना है: आधी आबादी को बाकी आधी को गोली मारने के लिए: नौकरियों में भरती कर लीजिए। किस्सा साफ।’’ आलेखों की भाषा में प्रवाह और प्रेरणा है। इस किताब को पढ़ना एक हाहाकारी और विनाशकारी तूफान के बीच से गुजरने जैसा है। कुछ कुछ ‘क्रास फायर’ जैसी स्थिति भी है, जिसे लेखिका ने शायद इसलिए महसूस किया है क्योंकि उन्होंने माओवादियों पर भी अनेक असहज सवाल उठाए हैं। उनके अभियानों में निर्दोषों के मारे जाने और स्वयं माओवाद पर भी। उन्होंने यह भी सवाल किया है कि यदि संयोग से उन क्षेत्रों का नियंत्रण उन्हें प्राप्त हो जाय तो क्या वे तब भी उन जंगलों पहाड़ों के नीचे खनिजों को वैसे ही जंगलों-पहाड़ों में दबे रहने देंगे या फिर चीन और विएतनाम में विश्व-बाजार के माहौल मेें जो कुछ किया जा रहा है, उसका अनुसरण करेंगे? 
        जो भी हो, इस किताब में दर्ज घटनाओं, साक्ष्यों, आंकड़ों और कुछ संवादों को थोड़े हेर-फेर के साथ इस विषय पर पिछले वर्ष रीलीज हुई एक लोकप्रिय फिल्म में अरुंधति राय को धन्यवाद दिये बिना उदधृत किया गया है और आगे भी नक्सलवाद पर बनायी जाने वाली फिल्मों में इससे प्रेरणा और सहायता ली जाती रहेगी। साथ ही साथ इन दिनों हिंदी कथा जगत में कुछ लोगों द्वारा जिस एक मुहावरे को बार-बार उद्धृत किया जा रहा है उसके विपरीत, अरुंधति राय का यह पोलेमिक लेखन साबित करता है कि सभी लेखक कायर नहीं होते।

                                                                                       - हंस. 2012
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पुस्तक का नाम: ‘आहत देश’
लेखिका: अरुंधति राय
अनुवाद: नीलाभ
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
मूल्य:      रुपये