नारायण सिंह, धनबाद- 20 अक्टूबर, 2017.
किताबों के बीच कैश-कैबिन : अमिताभ चक्रवर्ती
अमिताभ से मेरी पहली भेंट पंजाब नेशनल बैंक की धनबाद शाखा (बैंक मोड़)
में हुई थी. वे वहाँ के कर्मचारी थे. वह भेंट ‘पहल’ लेने के सिलसिले में हुई थी. उनके पास इस
पत्रिका की दस प्रतियाँ आया करती थीं. वहाँ वे कैश-कैबिन में बैठे खिड़की से
ग्राहकों के साथ पैसे का लेन-देन कर रहे थे. मुझे किसी से कहकर उन्होंने कैबिन के
बाहर बैठवाया और खुद अपना काम करने लगे. मैंने गौर किया आस-पास किताबों से भरी
दो-तीन आलमारियाँ थीं. जैसे कोई छोटा-मोटा पुस्तकालय हो. कैश-कैबिन के आजू-बाजू
किताबों से भरी आलमारियाँ देखकर अच्छा लगा. और अजीब भी. अजीब इसलिए कि इससे पहले
किसी बैंक में कम से कम मैंने ऐसा दृश्य नही देखा था. लगा जैसे लक्ष्मी के सेतु पर
से गुजरकर सरस्वती-गेह में प्रवेश हो रहा हो.
धनबाद में अमिताभ चक्रवर्ती को सेतु का पर्याय माना जाता था. शहर के
दो साहित्यकारों के बीच बंद हो चुके संवाद को फिर से शुरू करने की बात हो या फिर
बांग्ला से हिंदी और हिंदी से बांग्ला साहित्य के बीच आवा-जाही का मामला हो, अमिताभ एक पुल की
भूमिका में दिखाई देते थे. बाद में उन्होंने ‘साहित्य सेतु’ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन भी इसी
उद्देश्य से आरंभ किया, किंतु उसके सिर्फ दो अविस्मरणीय अंक निकालने के बाद ही वे असामयिक
मृत्यु के शिकार हो गए.
अमिताभ एक ऐसे विचारक, संवेदनशील कवि और एक कुशल अनुवादक थे, जिनके लिए रचना के
लिए रचना या कला के लिए कला जैसा कुछ अभीष्ट नहीं था. इसीलिए ज्ञानरंजन ने ‘पहल’ में जब बांग्लादेश
की कविताओं के विशेष अंक की योजना बनाई तो उन्हें अमिताभ चक्रवर्ती से बेहतर कोई
दूसरा दिखाई नहीं दिया. यह एक कठिन कार्य था. इसके लिए उन्होंने अथक श्रम किया, अनेक यात्राएँ कीं. बांग्लादेशी कविताओं पर
केंद्रित ‘पहल –
39’ का वह
अंक हिंदी साहित्य की धरोहर और कठिन समय में प्रेरणा-स्रोत के रूप में याद किया जाता
रहेगा. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है चयनित कविताओं की प्रकृति एवं प्रवृत्ति, जो आरंभ में ही इस
मुहावरे में परिलक्षित होती है- ‘खामोशी का अर्थ पराजय नहीं होता / बांग्लादेश की
एक सौ तीन जनमुखी कविताएं.
उस अंक के बीस
पृष्ठों के अपने संपादकीय आलेख- ‘बांग्लादेश की कविता का पूर्वपाठ’ में वे बांग्लादेश के राजनीतिक, भौगोलिक एवं साहित्यिक इतिहास का परिचय देते हुए
पूर्व व पश्चिम बंग के बीच के तमाम हालात के अंतर को स्पष्ट करते हुए शमसुर रहमान
को उद्धृत करते हैं, “दोस्तो! आप जो कवि
हैं / स्वतंत्र देश के कवि / आपके उस भाग्य पर / ईर्ष्या हो रही है आज.”
और फिर दाउद हैदर के
शब्दों में, “जी चाहता है /
शहीद मीनार के शिखर पर चढ़कर / आकाश को चीरते हुए चीत्कार करूँ / देखो, सीमाके उस पार मेरा घर है / यहाँ मैं अकेला हूँ, परदेसी.”
अमिताभ चक्रवर्ती
मार्क्सवादी तो थे, पर उनमें किसी
प्रकार का छद्म नहीं था. कम्युनिस्ट
मैनिफेस्टो जारी होने के डेढ़ सौ साल पूरे होने के अवसर पर ‘पहल’ द्वारा इस विषय पर जारी अमिताभ की पुस्तिका से हमें ज्ञात होता है कि
समाजवाद के प्रति उनकी कैसी निष्ठा थी और इस आंदोलन की भारत में असफलता को लेकर
उनके भीतर कितनी गहरी पीड़ा थी. ‘पहल’ के बांग्लादेशीय
कविता-अंक की उपर्युक्त भूमिका के अंतिम परिच्छेद में वे लिखते हैं, “अवसरवादी बुर्जुआ नेतृत्व के हाथों में
साम्यवादी आंदोलन की ऐसी-तैसी हो गई है. आज की सामाजिक समस्याओं की वैज्ञानिक व्याख्या
और उनके निदान के लिए संगठित लोकतांत्रिक पहल इन समझौतावादी लोगों के वश की बात
नहीं है. संपूर्ण विश्व में साम्यवाद के सामने जो संकट गहराया है और विश्व की
साम्राज्यवादी शक्तियों ने एकजुट होकर उसके लिए जो विरोधी वातावरण तैयार किया है, उसके परिणामस्वरूप विकासशील देशों के समाजवादी
आंदोलनों को जबरदस्त धक्का लगा है. इस
चुनौती का सामना करने का मनोबल अवसरवादी नेतृत्व में नहीं है. इसलिए साम्राज्यवादी
शक्तियों और उनके दलालों के साथ ये लगातार समझौता कर रहे हैं और समाजवादी लक्ष्य
से पीछे हटते जा रहे हैं. मेहनतकश वर्ग के हितों के पक्ष में यह कदापि नहीं है.”
किसी मनुष्य के
जीवनकी सार्थकता उसके लंबे होने में नहीं, बल्कि इस अर्थ में है कि वह उसे जीता कैसे है. दिन, घंटे और मिनट के हिसाब से अमिताभ चक्रवर्ती का
जीवन बहुत छोटा दिखाई दे सकता है. पर सार्थकता के लिहाज से उनका जीवन हम जीवितों
से बहुत बड़ा है.
आने वाले दिनों में, आज के माहौल को देखते हुए, अमिताभ चक्रवर्ती द्वारा चयनित तथा अनूदित इन 103
बांग्लादेशीय कविताओं में से रफीक़ आज़ाद की ‘भात दे हरामजादे’ के अलावे कुछ अन्य कवियों की इसी मिज़ाज़ वाली कविताओं
को सामने रखने का इरादा है.
नारायण सिंह, धनबाद.