Sunday 29 November 2020

 ओलिम्पिक में भारत के प्रथम फुटबॉल कप्तान

डॉक्टर तालिमेरन अओ (Talimeren Ao)
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अनैतिक रूप से 'ईश्वर के हाथ' द्वारा इंगलैंड के खिलाफ विश्वकप के क्वार्टरफाइनल में विजयदायी गोल करने वाले अर्जेनटाइना के विश्व-प्रसिद्ध फुटबॉलर डिएगो मेरेडोना के प्रति देश के लोगों की श्रद्धा देखकर ओलिम्पिक में पहली बार 1948 में भाग लेने वाली भारातीय फुटबॉल टीम के कप्तान डॉक्टर तालिमेरेन अओ (28 जनवरी, 1918 – 13 सितंबर, 1998) का नाम स्मृति में गूँजने लगता है। हमारे देश में मराडोना को जानने वालों में से शायद बहुत कम लोग तालिमेरेन को जानते होंगे। लंदन ओलिम्पिक में भारतीय टीम को वाकओवर मिलने के बाद दूसरे राउंड में उसका मुकाबला फ्रांस की शक्तिशाली फुटबॉल टीम से था। जीतने के कगार पर खड़ी भारतीय टीम अंतिम समय में गोल खाने के कारण अंतत: 1-2 से हार गई। उसकी हार में दो पेनाल्टी किक को गोल में परिवर्तित न कर पाना तो कारण था ही, मुख्य बात यह थी कि भारतीय टीम नंगे पाँव खेल रही थी, जबकि सभी टीमें बूट पहनकर। मैच के बाद भारतीय कप्तान सेंटर हाफ तालिमेरेन से अखबार वालों ने पूछा कि आपकी टीम नंगे पाँव क्यों खेल रही है, तो तालिमेरेन ने कहा, ‘हम लोग फुटबॉल(Football) खेलते हैं, जबकि आप यूरोप के लोग बूटबॉल (Bootballखेलते हैं।’
कप्तान की हाजिरजवाबी देख अखबार वालों ने अगले दिन के अखबार में उनके कथन को प्रमुखता के साथ छापा। तालिमेरेन को इंगलैंड के प्रसिद्ध फुटबॉल क्लब आर्सेनल ने अपनी टीम से खेलने का प्रस्ताव दिया, लेकिन तालिमेरेन ने विनम्रता के साथ इन्कार कर दिया, क्योंकि उन दिनों वे मोहन बागान टीम की ओर से खेलते हुए कलकत्ता के कारमाइकल मेडिकल कॉलेज (अब आर. जी. कर मेडिकल कॉलेज) में एमबीबीएस की पढ़ाई भी कर रहे थे। 1950 में वे एमबीबीएस पास कर डॉक्टर बनने वाले प्रथम नगा नागरिक थे। फुटबॉल से ज्यादा जरूरी उनके लिए डॉक्टर बनना था, क्योंकि उनके पिता ने मरते वक्त उनसे वचन लिया था कि वे डॉक्टर बनकर नगा लोगों की सेवा करेंगे। यह सोचने की बात है कि यदि उन्होंने आर्सेनल का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता, तो वे फुटबॉल में कहाँ तक जा सकते थे। उन्हें ऐथलेटिक्स में भी महारत हासिल थी। देश की लंबी कूद का (23 फीट) रेकार्ड बहुत साल तक 5 फीट 10 ईंच लंबे तालिमेरेन के नाम बना रहा। ओलिम्पिक में वे पूरी भारतीय टीम के फ्लैग बेयरर भी रहे। उस दौरे की एक प्रमुख बात यह भी रही कि लगभग सभी अभ्यास मैचों में भारतीय टीम विजयी रही और विरोधी टीमों में से हॉलैंड की मशहूर टीम अजेक्स भी थी।
बहरहाल, डॉक्टरी पास करने के बाद उन्होंने 1938 से आरंभ हुए खेल-कैरियर को 1951 में उस समय अलविदा कह दिया, जब वे पूरे फॉर्म में थे। 1953 में वे कोहिमा अस्पताल में मेडिकल अधीक्षक बनाए गए, और 1963 में नागालैंड ने जब पूर्ण राज्य का दर्जा पाया तो उनको राज्य का स्वास्थ्य सेवा का पहला नगा निदेशक बनने का सौभाग्य मिला, जिस पद पर वे 1978 में सेवानिवृत्त होने तक रहे।
उन्हें 1968 में भारतीय फुटबॉल टीम की चयन समिति का एक सदस्य भी बनाया गया। अभी हाल में नागालैंड के मुख्य स्टेडियम जवाहर लाल नेहरु स्टेडियम का नाम बदलकर तालिमेरेन अओ स्टेडियम कर दिया गया है। इससे पहले पश्चिम बंगाल(कालियाबोर स्टेडियम) और असम(कॉटन कॉलेज इंडोर स्टेडियम) ने अपने यहाँ एक-एक स्टेडियम बना कर उन्हें सम्मानित किया था। उन्होंने अपने दो बेटों के जो नाम रखे हैं- तालिकोकचांग और इंडियनोबा)- उनके अर्थ क्रमश: ‘जो उत्कृष्ट है’ और ‘जिसने भारत का नेतृत्व किया’ है।
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Anil Analhatu, वि नो द and 38 others
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Monday 9 November 2020

 मन ना रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा: जाति संबंधी कुछ टिप्पणियाँ

कुछ दिनों से कुछ प्रश्न मन में घुमड़ते रहे हैं. मैं कोई विद्वान नहीं. लेकिन विद्वानों के लिखे की संगत करता रहता हूँ. हाल में एक मित्र के सौजन्य से एक ‘सवर्ण पृष्ठभूमि से आए’ लेखक के पोस्ट को पढ़ने का मौका मिला, जिसमें उन्होंने अफसोस जाहिर किया है कि ‘यह बेहद स्पष्ट है कि हम किस सामाजिक पृष्ठभूमि से आए हैं. सब समझदार जानते हैं कि इसका कोई कुछ कर नहीं सकता था. यह पसंद-नापसंद का मामला था ही नहीं’. पोस्ट पर, सूचनानुसार, काफी टिप्पणियाँ आई थीं और कुछ सवर्णेतर लेखकों के साथ उनके विवाद होने के बाद वह पोस्ट हटा लिया गया, जिसमें उनके दोस्तों द्वारा की गईं हँसी-मजाक से भरी टिप्पणियाँ भी शामिल थीं. पिछले आठ सितंबर को कँवल भारती का एक पोस्ट मैंने शेयर किया था, जिसके विरुद्ध इलाहाबाद के एक लेखक श्रीप्रकाश मिश्र ने आपत्तिजनक टिप्पणियाँ कीं, जिनका उनकी एक अन्य अश्लील टिप्पणी के साथ स्क्रीनशॉट लेकर फेसबुक साथी विनोद जी सार्वजनिक कर चुके हैं. अपनी दीवार पर मेरे एक अन्य मित्र (या ‘सवर्ण कथाकार’) द्वारा की गईं तीन टिप्पणियों का भी जिक्र प्रासंगिक है- एक, किसी खास जाति में जन्म लेना उनके वश में नहीं; और दो, जो लोग मनुस्मृति का विरोध करते हैं, वे अपने जीवन में अंतरजातीय विवाह क्यों नहीं करते! (तीसरी टिप्पणी में उन्होंने लिखा था कि मनुस्मृति के आधार पर ही भारतीय संविधान की रचना हुई है, जिसे बाद में शायद गलत मानते हुए हटा लिया, इसलिए उसकी चर्चा जरूरी नहीं.)
‘सवर्ण पृष्ठभूमि’ के लेखक ने पोस्ट के अंत में लिखा था, ‘आलोचना-प्रत्यालोचना होते रहना चाहिए मगर उसके पैमाने ठीक हों, दूसरे की जन्मगत जाति, धर्म आदि पर आधारित न हों, यही गुजारिश है.’एक ओर आप अपनी ‘जन्मगत जाति’ को मानते भी हैं, जिसके लिए कोई अन्य जिम्मेवार है, तो दूसरी ओर उस पर कोई आलोचना भी नहीं चाहते. यानी वे ‘हैं’, लेकिन दूसरे उन्हें ऐसा मानकर आलोचना मत करें. दूसरों को सोचने का संदेश देने से पहले वे खुद सोचें कि क्या यह विरोधाभासी कथन नहीं? और अगर वह कथन गलत नहीं था, तो उन्होंने उसे डिलीट क्यों किया?
उन्होंने जिस ‘सवर्ण पृष्ठभूमि’ की चर्चा की, उसकी वास्तविकता क्या है?
हम उस ग्रामीण समाज में पलते हुए बड़े हुए हैं, जिसमें सवर्णेतर जातियों के नाम पर गालियों का सृजन किया जाता है- क्षमायाचना सहित प्रसंगवश जरूरी कुछ आपत्तिजनक गालियों के नाम- (चोरी-चमारी, चांडाल चौकड़ी, डोमड़ा, दैत्य, राक्षस, असुर, नेटुआ, कंजड़). ये गालियाँ सदियों से दी जाती जा रही हैं, तो इसमें किसका दोष है? जब आप अनिच्छापूर्वक ही सही, उस समाज से होना स्वीकार करते हैं, तो फिर क्या हाथ झाड़कर चल देने से जिम्मेवारी खत्म हो जाती है! जब प्रतिक्रिया में दूसरा कोई आपको ब्राह्मण/राजपूत/वैश्य कहते हुए भला-बुरा कहता है तो आज भी यही गालियाँ उसे दी जाती हैं, जैसे श्रीप्रकाश मिश्र ने दी हैं. कँवल भारती का वह पोस्ट राधाकृष्णन की हिंदू धर्म की प्रतिगामी स्थापनाओं के विरोध में था, जो राहुल सांकृत्यायन के उद्धरणों पर आधारित था. जाहिर है, श्रीप्रकाश मिश्र वे गालियाँ कँवल भारती के साथ-साथ राहुल सांकृत्यायन और ऐसे तमाम लोगों को दे रहे थे, जो राहुल के निष्कर्ष के समर्थन में हैं; और ‘सवर्ण पृष्ठभूमि’ के लेखक के पोस्ट पर हँसी-मजाक करने वाले भी मिश्र जी वाला ही काम कर रहे हैं.
जो लोग अंतरजातीय विवाह करते हैं, वे सभी मनुस्मृति-विरोधी होते हैं, यह एक मिथक है. हमारे गाँवों पर जरा गहरी नजर डालने की जरूरत है, आपका यह भ्रम भस्म हो जाएगा. लिंगानुपातिक एवं आर्थिक असंतुलन के कारण वहाँ सवर्णों, विशेषकर राजपूत/क्षत्रिय/जाट जातियों के एक तिहाई नौजवान कुँवारे रह जाते, यदि उनकी शादियाँ अंडरग्राउंड ब्रोकरों की अनुकंपा से दूर-समीप के राज्यों की लड़कियों की अवैध आवाजाही नहीं होती रहती. जाहिर है, वे गरीब और इतर जातियों की हुआ करती हैं. तो मेरे मित्र कथाकार के हिसाब से ऐसे नौजवानों को तो जातिवादी नहीं होना चाहिए था, लेकिन गाँव-कस्बे के अनुभवों से कोई भी जान सकता है कि अन्यों की तुलना में ये लोग ज्यादा कट्टर जातिवादी होते हैं. एक बात और; मनुस्मृति में और भी बहुत कुछ है, जिनके औचित्य को लेकर डॉक्टर अंबेडकर ने उसकी प्रति जलाई थी और तमिलनाडु में आज भी उसको प्रतिबंधित करने/नहीं करने के प्रश्न पर विवाद हो रहा है.
सत्तर के दशक के बाद से जाति से जुड़ी एक और प्रवृत्ति सामने आई है. समाज में उन्हें मनुवादी न समझा जाय, इसलिए ‘प्रगतिशील सवर्णों’ द्वारा अपने नाम से सरनेम हटाकर ‘महाभारत’ या रामायण से उधार लेकर कोई नाम रख लेना अथवा काश्यप, भारद्वाज, पराशर, वसिष्ठ, अत्रि, वृहस्पति आदि जैसे गोत्रों का सरनेम लगा लेना इसमें शामिल है, जो प्रकारांतर से मनुष्य की ब्राह्मणवादी उत्पत्ति की सैद्धांतिकी से उनकी प्रतिबद्धता रेखांकित करती है. और कुछ लोग, जिनके लंबे-लंबे सरनेम दूर से ही दिखाई देते हैं, कोई जरूरी नहीं कि वे अनिवार्यत: जातिवादी हों. वैसे भी, ‘नाम में क्या रखा है’, शेक्सपियर अपने दुखांत नाटक ‘रोमियो जूलियट’ में जूलियट के मुख से कहलवाते हैं, ‘गुलाब का नाम बदलने के बाद भी उसकी सुगंध वैसी की वैसी मीठी बनी रहेगी.’ (What’s in a name? That which we call a rose by any other name would smell as sweet.’)
यथार्थत:, कौन बताएगा कि हम में से कितने लोग इस महामारी से मुक्त हो चुके हैं? हमारे भीतर हजारों साल के जो संस्कार घुसे हुए हैं, वे क्या नाम बदल लेने, सरनाम अथवा अंतरजातीय विवाह कर लेने मात्र से मिट जाएँगे?
“मानसिक आनुवंशिकता भी उतनी ही संस्कारप्रवण होती है जितना आनुवंशिक स्वामित्व, दोनों ही मन को समाज के विशिष्ट ढाँचे में पकड़कर रखते हैं और सीमित करते हैं, जिससे समाज का जड़मूल से परिवर्तन होने में रुकावट आती है. बालमन पर अतीतकाल की, आज्ञापालन की और अनुवर्तन की विद्यार्थी की चेतन तथा अचेतन प्रतिबद्धता, संस्कारिता जैसी मानसिक आनुवंशिकता के कारण नयी समाज-व्यवस्था के निर्माण में बाधा पड़ती है.” (जिद्दू कृष्णमूर्ति)
इस बाधा की प्रतिक्रिया में एक प्रश्न किया जा सकता है कि आखिर हम भीतर/बाहर से जो भी हैं, उसे क्यों नहीं स्वीकार कर लेते? शायद स्वीकृति के बाद इस बाधा को/से दूर करने/होने का कोई रास्ता दिखाई दे जाय! तब शायद हम अपने आप से पूछें कि आखिर हम हैं कौन, जिसको कवच के पीछे छुपाने का प्रयास करते रहते हैं?
शास्त्र व इतिहास में बिखरे सत्य से समाहित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘मानव समाज’ का एक उद्धरण: “बौद्ध, जैन तथा दूसरे धार्मिक संप्रदायों ने ईसापूर्व छठवीं सदी से रंग-वर्ग समन्वय का आंदोलन शुरू किया, वह धीरे-धीरे इतना प्रबल हो गया कि पुराने पुरोहित वर्ग को अपना अस्तित्व खतरे में दिखाई देने लगा. उन्होंने आर्यों के आगमन से वेद से उपनिषद काल तक, चले आते रंग के प्रश्न को नरम कर दिया, अनार्य देवताओं, अनार्य धार्मिक विचारों और परम्पराओं के बॉयकाट की नीति को छोड़ा और चौथी सदी ईसवी में गुप्त साम्राज्य की स्थापना के साथ सर्व-समन्वय का रास्ता अख्तियार किया. पुनरुज्जीवित ब्राह्मण या हिंदू धर्म की यही नई विशेषता थी, जिसने उसकी हिलती इमारत को बचा लिया. वर्णों में रंग के प्रश्नों को ही हटा दिया; पिछले दो-ढाई हजार वर्षों में रक्त सम्मिश्रण इतना हो चुका था कि गोरा होना सिर्फ ब्राह्मणों के लिए नहीं रह गया था. जहाँ बुद्ध के समय हम सोणदंड ब्राह्मण को ब्राह्मण बनानेवाली बातों में गौरवर्ण होने की प्रधानता स्वीकर करते देखते हैं, वहाँ अब वह गुण, कर्म, स्वभाव पर आश्रित माना जाने लगा और रंग बिल्कुल हटा दिया गया. नए सुधार ने चार वर्णों की संख्या यद्यपि चार ही रखी, किंतु अब वर्णों का द्वार खोल दिया गया था. पुरोहित वर्ग जिस किसी आर्य, अनार्य या संकर अथवा प्राचीन या नवागत जातियों को ऊँचे वर्ण में डाल सकता था…..इसी महान समन्वय के युग में शक, यवन जैसी नवागत जातियों का बहुत-सा भाग क्षत्रिय और ब्राह्मणों में शामिल हुआ. आमीर (अहीर), जट्ट, गुर्जर आदि में जो प्रभुताशाली थे, उन्हें क्षत्रिय वर्ण में स्थान मिला.” (पृष्ठ-104).
वंश परंपरा का आधार पुरुष-स्त्री का शारीरिक संबंध है. रामायण-महाभारत में वैवाहिक/स्त्री-पुरुष संबंधों में अनुशासन का अभाव प्रचुर मात्रा में दिखाई देता है. महाभारत का आदि पर्व ऐसे अनुशासन-विहीन वैवाहिक/शारीरिक संबंधों से पैदा हुई संतानों के असंख्य उदाहरणों से पटा पड़ा है. उनमें से कुछ सामने हैं- पराशर-मत्स्यगंधा (सत्यवती) से व्यास (63), व्यास-अंबिका/अंबालिका/दासी से पांडु/धृतराष्ट्र/विदुर, हिडिंबा-भीम(155),मणिपुर की राजकुमारी-अर्जुन (125), गौतम-जानपदी (से कृपि-कृपा130), भारद्वाज-घृताची (द्रोण-120) व्यास-घृताची (324) के समागम से -संतान उत्पत्ति के वर्णन मिलते हैं. संतान पैदा करने मात्र की नहीं, महाभारत के शांति पर्व के 234वें पद में तो राजा युवनाश्व द्वारा अपनी प्रिय स्त्री को दान देकर और मित्रसह द्वारा अपनी पत्नी पदयंती को वसिष्ठ को दान देकर स्वर्ग प्राप्ति करने की जानकारी मिलती है. महाभारत के अनुशासन पर्व के पद-2 में किसी सुदर्शन द्वारा अतिथि सेवार्थ अपनी भार्या देकर अमर कीर्ति प्राप्त करने की जानकारी है.
जिस भरद्वाज को द्रोण का पिता माना जाता है, उन्हीं की पुत्री इलाविडा रावण की विमाता थी; और उन्हीं भरद्वाज को आयुर्वेद की चरक सन्हिता में वर्णित एक चिकित्सकीय थ्योरी का श्रेय दिया जाता है- कोई भी गर्भ/भ्रूण मात्र किसी अकांक्षा, प्रार्थना, मस्तिष्क की शक्ति अथवा आध्यात्मिक कारणों से नहीं, बल्कि रजोचक्र के उपयुक्त समय के दौरान गर्भ में पुरुष के शुक्राणु और स्त्री के रजरक्त के संयोग से निर्मित होता है. (‘An embryo is not caused by wish, prayers, urging of mind or mystical causes, but it is produced from the union of a man’s sperm and menstrual blood of woman at the right time of her menstrual cycle, in her womb’.- The roots of Ayurveda: Selections from Sanskrit medical writings by D. Wujastyk(2003)- penguin books-page- 51-53).
एक ओर हम भरद्वाज के इस वैज्ञानिक सिद्धांत की प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं, तो दूसरी ओर तीन सौ तिरेपन रानियों (अयोध्या कांड, सर्ग 39, श्लोक 36,37) से दशरथ की एक भी संतान के न होने का सत्य जानने के बावजूद (वाल्मीकि रामायण में राम के जन्म संबंधी कारण) पुत्रेष्टि यज्ञ की अग्नि से निकली खीर खाने से दशरथ की तीन रानियों के गर्भ ठहरने की कथा को सही मानकर राम को ऐतिहासिक पात्र मान लेते हैं; यह कितनी बड़ी विडंबना है!
कुछेक को छोड़कर अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार राजपूत भारत में प्रवेश करने वाले सिथियनों और शकों के वंशज हैं, जिन्होंने स्थानीय लोगों के साथ वैवाहिक संबंध बनाए और यहीं की संस्कृति में रच-खप गए. क्षत्रिय/ राजपूत जाति के बारे में असंख्य विरोधाभासी स्थापनाएँ इतिहास में मिलती हैं, जिनका वर्णन बाद में किया जा सकता है. फिलहाल, कुछ अन्य बातें. डब्ल्यू जी ब्रिग्स की पुस्तक ‘द चमार्स’ में, (1919) जिसका जय प्रकाश कर्दम द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद- सम्यक प्रकाशन के यहाँ उपलब्ध है) उत्पत्ति के विभिन्न स्रोतों से प्राप्त किंवदंतियों एवं कथाओं के हवाले से चमार जाति को सवर्णों से ही जबरन अलग कर दी गई जाति की संज्ञा दी गई है. समाजशास्त्री और इतिहासकार एन आर मलकानी व गौर अंसारी के अलावा अरुण ठाकुर और मोहम्मद खडस ने संयुक्त रूप से लिखी गई अपनी पुस्तक ‘नरक सफाई’ में मेहतर जाति को राजपूतों का वंशज बताया है. मलकानी लिखते हैं, ‘आधुनिक काल में शहरों के विकास के साथ ही भंगी पेशा शुरू हुआ. सबसे पहले मुसलमानों ने इस व्यवसाय की नींव रखी. और अंगरेजों ने इस व्यवसाय को जबरन पुश्तैनी बना दिया.’
बौध धर्म के अनुयायी अशोक की मृत्यु और मौर्य वंश के अवसान के बाद, हिंदू पुनरूत्थान काल में वर्ण-व्यवस्था को पुनर्व्यवस्थित और सुदृढ़ करने का श्रेय लेने वाले शास्त्र मनुस्मृति में भी कुछ जातियों की उत्पत्ति के दिलचस्प सूत्र मिलते हैं. जैसे “ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से निषाद जाति की संतान पैदा होती है. क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से सूत (रथ हाँकने वाली) जाति की संतान और शूद्र पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से निम्नतम चांडाल जाति का आदमी पैदा होता है.” (मनुस्मृति : अध्याय 10 श्लोक 8-12).
कँवल भारती ने जिस राधाकृष्णन के बारे में पोस्ट लिखा था, उनकी जीवनी लिखते हुए उनके पुत्र ने राधाकृष्णन के जैविक पिता और सामाजिक पिता को अलग-अलग बताया है.
इन उदाहरणों को देखकर पूछा जा सकता है कि अपने पूर्वजों का मुख काला करने का काम क्यों? तो इसका आशय मात्र यही है कि अगर मनुष्य की वैज्ञानिक उत्पत्ति-नियम के बदले, ऋग्वेद को ही प्रमाण मानें; तो भी क्या हम (वर्ण की) उसी विशुद्ध अवस्था (Purest Form) में रह गए हैं, जब वे तथाकथित रूप से ऋग्वेद के दशम अध्याय के पुरुष सूक्त के ‘पुरुष’ के मुख, बाहु, जंघा और पैरों से निकले क्रमश: ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र के रूप में थे! ऐसी अवस्था में यदि कोई सवर्ण के रूप में हमारी आलोचना करता है, तो हमें बुरा क्यों लगना चाहिए! (जारी)
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Tuesday 4 August 2020

मोहम्मद हनीफ का उपन्यास 'रेड बर्ड्स' यानी लाल परिंदे

      ‘रेड बर्ड्स’ : लाल परिंदे / कार्डिनल

 

रेड बर्ड्स’ (Red Birds) मोहम्मद हनीफ का तीसरा उपन्यास है. 2018 में प्रकाशित इस उपन्यास के समीक्षक इसे उत्तर-आधुनिक उपन्यास की संज्ञा देते हैं. उत्तर-आधुनिक रचना की विशेषताओं के बारे में मुझे बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन उपन्यास के बारे में इतना कह सकता हूँ कि यह युद्ध और उसके परिणाम के परिप्रेक्ष्य में अपने वाग्वैदग्ध्य एवं तीखे व्यंग्य से पाठक को कदम-दर-कदम सोचने-विचारने के लिए मजबूर करता है. उपन्यास का लोकेशन मिडल ईस्ट/अरब का वह कोई भी देश हो सकता है, जहाँ दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान है; जिसके एक तरफ यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका का एयर-ट्रैफिक टावर (रीफ्युएलिंग सुविधा के साथ-साथ लैंडिंग स्ट्रिप) है, जिसे वहाँ के लोग हैंगर के नाम से पुकारते हैं; तो दूसरी ओर दूर से नीले कोरोगेटेड शीट की छतों का दरिया जैसा यूएसएड फ्यूजी कैम्प(USAID FUGEE CAMP) है, जिसे एक कस्बे को बमबारी में नष्ट करने/होने के बाद बसाया गया है. जाहिर है, वहाँ यूएसए की दखलंदाजी है और जंग एक स्थायी व अनसुलझा मसला बन चुका है; कर्नल स्लैटर के शब्दों में किसी सैनिक के लिए युद्ध का मतलब ही क्या कि वह एक अवसर साबित न हो सके’! मतलब साफ है कि अमेरिका को शांति के समय में भी ऐसे अवसर की ताक में हमेशा चौकन्ना रहना पड़ता है. 

सब कुछ ठीक-ठाक चलने के बावजूद मेजर एली को उस कैम्प पर बमबारी के लिए भेजा जाता है, क्योंकि उसके कमांडिंग ऑफिसर कर्नल स्लैटर को शक है कि वह कैम्प बदतरीन बदमाशों के छुपने का गुप्त अड्डा बन चुका है’. वे बदतरीन लोग अमेरिका जैसे महान देश के लिए खतरा हैं और उनकी वजह से वह हैंगर बंद हो चुका है; और यदि उनका शक गलत भी साबित हुआ तो… कह देंगे कि संयोगवश चूक हुई है’. लेकिन संयोग मेजर एली के साथ एक त्रासद मजाक करता है. दो बमों से लैस उसका लड़ाकू विमान क्रैश करके उस रेगिस्तान में धँस जाता है, पर रेत मे आधे फँसे विमान सहित मेजर बच जाता है और उसे उसी कैम्प में शरण मिलती है, जिस पर बमबारी करने भेजा गया था. कैम्प के जिस घर में उसे शरण मिलती है, उसका मुखिया उसी हैंगर में काम करता था और उसका बड़ा बेटा अली भी एक दिन उसी में एक ठेका-श्रमिक के रूप में नियुक्त होता है और उस दिन के बाद लौटकर नहीं आ पाता. अली के छोटे भाई मोमो के अनुसार भाई अली नहीं जानता था कि उसे बेचा गया है. उसे तो इतना ही पता था कि उसे हैंगर में ओवरटाइम की गारंटी के साथ ठेके पर नौकरी दी गई है’. अली से पहले भी उस कैम्प के कई बच्चे इसी प्रकार काम के बहाने ले जाए गए हैं और लौटे नहीं हैं. 

हालाँकि, मोमो अभी मात्र पंद्रह साल का है, किंतु इसी उम्र में वह कैपिटलिस्ट मिजाज का व्यवसायी बनने की ओर अग्रसर है. वह कहता है, ‘मेरा व्यक्तिगत व्यवसायिक मॉडल है जान बचाना और उस दौरान पैसा बनाना. बचाव और पुनर्वास. ज्यादा जोखिम, ज्यादा आमदनी.युद्ध के प्रति उसका भी लगभग वही दृष्टिकोण है जो स्लैटर का है. युद्ध क्यों आता है?...पुनर्निर्माण. और पुनर्निर्माण के लिए हमें क्या चाहिए? सीमेंट. हाँ. लेकिन उसके अलावा क्या? आप केवल सीमेंट से नगरों का निर्माण नहीं कर सकते. नगर-निर्माण के लिए दूसरी अनिवार्य सामग्री कौन-सी है? तो आपको चाहिए रेत.’ (मोमो ने भविष्य में कभी स्थापित की जाने वाली अपनी कंपनी का नाम सैंड ग्लोबल्सरखा हुआ है, जो पूरी दुनिया में पास के रेगिस्तान से रेत सप्लाई करने का व्यवसाय करेगी). मोमो के इस दृष्टिकोण को स्वयं मोमो नहीं, उसका पालतू कुत्ता मट्ट प्रकट करता है. इस उपन्यास में हनीफ ने वाचाल कुत्ते को एक अतिरिक्त औजार के रूप में इस्तेमाल किया है. हालाँकि, मैंने कहीं पढ़ा है कि पहले भी तुर्की के प्रसिद्ध लेखक ओरहान पामुक ने अपने एक उपन्यास में बोलते हुए घोड़े और कुत्ते का इस्तेमाल किया है, जानवरों के मानवीकरण के उदाहरण ग्रीक मिथकों के अलावा हमारे यहाँ भी बहुत पहले पंचतंत्रके रूप में मौजूद रहे हैं. उपन्यास में कुल साठ अध्याय हैं और हर अध्याय में अलग-अलग पात्र आकर एकालाप और वार्तालाप के माध्यम से कथा को आगे बढ़ाते हैं. वैसे तो लगभग हर पात्र किसी न किसी अध्याय में आता है, लेकिन अधिकांश अध्यायों पर मेजर एली, मोमो और मट्ट का वर्चस्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है.

इस उपन्यास की विशेषताओं में से एक है- मट्ट का दार्शनिक रूप. वही हमें सबसे पहले रेड बर्ड्स के बारे में बताता है, सुर्ख परिंदों का वास्तव में वजूद होता है, किंतु हम उन्हें देख नहीं पाते; क्योंकि हम उन्हें देखना नहीं चाहते. हमें डर है कि यदि उन्हें देख लेंगे तो वे हमारी स्मृतियों में बस जाएँगे. जब किसी हमले या गोलीबारी में कोई मरता है अथवा जब किसी का गला रेता जाता है, तो उससे निकले खून का आखिरी कतरा एक छोटे-से सुर्ख परिंदे में रुपांतरित होकर उड़ जाता है.वह मोमो के चरित्र को उद्घाटित करते हुए बताता है कि यदि वह इन सुर्ख परिंदों को देख ले तो उन्हें पकड़कर व्यवसाय का एक बड़ा नेटवर्क बनाना चाहेगा. उनके लिए अमेरिकन लोग अच्छी कीमत देंगे और अरब शेख तो दो-दो सौ डालर की कीमत देकर खरीदना चाहेंगे. अपने प्रिय लोगों की आत्माओं को किसी कामुक शेख के हाथो बेचने की कल्पना कीजिए, जो उसे पका-खाकर मर्दाना ताकत (Stiffy) हासिल करेगा. सोचिए कि किसी भड़कीले विवाहोत्सव की सज्जा के लिए आप अपने प्रियतम की स्मृतियों की बिक्री कर रहे हैं. किसी भव्य पिंजरे में फड़फड़ाते हुए इन लाल परिंदों की कल्पना कीजिए. और सोचिए कि आपको किसी समारोह में सजाई गई अपनी निजतम पीड़ा को देखना कैसा लगेगा!

मट्ट के उद्गारों के कुछ और नमूने देखने लायक हैं: 1. तमाम मिथक! तमाम झूठ. लोक-प्रज्ञा सदियों के पूर्वाग्रहों और भय के संचयन के अलावा कुछ भी नहीं.’ 2. ‘उन्होंने खुद को बहादुर बनाने का प्रशिक्षण लिया था, वे अपने ईश्वर और देश पर जीवन अर्पित करने को तैयार थे, लेकिन नहीं जानते थे कि बहादुरी बहुत ज्यादा शोर के साथ पैदा होती है, और उसके बाद अचानक से होने वाली एक खामोशी ही सदा के लिए बची रह जाती है. मरने के बाद आप बहादुर नहीं रह जाते और शीघ्र ही भुला दिए जाते हैं. 3. जो चीजें खो चुकी हैं, उनके पीछे भागना मनुष्य की एक शाश्वत मूर्खता है. मट्ट अपनी जवानी वापस पाना नहीं चाहते; वे किसी गलत जगह पर छूट गई हड्डी के बारे में सोचते हुए अपनी जिंदगी तबाह नहीं करते.’           

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यह भी एक संयोग ही था कि रेड बर्ड्स उपन्यास पढ़ने के दौरान ही, पिछले दो हफ्ते तुर्की के ओट्टोमन/उस्मानिया साम्राज्य की नींव डालने वाले उस्मान प्रथम के पिता और काई कबीले के अर्तुग्रुल गा‌ज़ी की दुस्साहसिक बहादुरी के किस्सों वाले यू-ट्यूब वीडियो के साथ गुजारने का अनुभव प्राप्त हुआ. यह वही ओट्टोमन साम्राज्य है, जिसने लगभग छः सौ साल तक शासन किया और जिसकी सीमा कभी सिंधु नदी से लेकर पुर्तगाल व स्पेन तक फैली हुई थी. युद्ध, रक्तपात, घृणा, द्वेष और विश्वासघात के बीच सच्चे प्रेम, दोस्ती और त्याग की उस अद्भुत कथा में मुसलमानों का मुसलमानों और ईसाइयों के साथ धर्मयुद्ध अथवा क्रुसेड का रोमांचक वर्णन देखने को मिलता है. तेरहवीं शताब्दी के इस कबाइली परिवार को देखते हुए तत्कालीन इस्लामी सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन आदि का आँखों देखा हाल जाना जा सकता है. कोई भी सक्षम कथा-वाचक/ लेखक/निर्देशक तमाम कोशिशों के बावजूद तटस्थ नहीं रह सकता और अपनी शैली से दर्शक या पाठक को अपने भावों की लहर में बहा ले जाता है. हम भी चौहत्तर-पचहत्तर एपिसोड देखने के बाद जब होश में आते हैं तो पेट्रूशिओ मैंजिनी द्वारा खड़े किए गए संकटों और षड़यंत्रों से निरंतर जूझने और उन पर विजय पाने वाले खानाबदोश, साधनविहीन पर बहादुर अर्तुग्रुल के पक्ष में खड़े मिलते हैं. इन ऐतिहासिक पात्रों में ईसाइयों के रोमन चर्च के प्रमुख पदाधिकारी के रूप में एक कार्डिनल भी है, जो मुसलमानों के विनाश एवं जेरुसलम को फिर से अपने अधिकार में लेने की लड़ाई में ईसाई ग्रैंड वज़ीर या उस्ताद-ए-आज़म पेट्रूशिओ मैंज़िनी को निर्देशित करता है और उसके आधार पर सम्राट को क्रुसेड के लिए तैयार करने की अनुशंसा पोप के पास भेजने की जिम्मेदारी लेता है. कार्डिनल आपादमस्तक लाल चोंगा पहनता है. ऐसे ही कार्डिनलों के नाम पर लाल परिंदे को 1985 से पहले कार्डिनल/नॉर्दर्न कार्डिनल कहा जाता था. मेरे विचार से, इस आधार पर, उपन्यास में लाल परिंदे का प्रतीक कौन-सा हो, इसकी छूट पाठक ले सकता है.

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मोहम्मद हनीफ एक पाकिस्तानी उपन्यासकार हैं. वे अंगरेजी में लिखते हैं. पहले एयरफोर्स में लड़ाकू विमान के पायलट और फिर पत्रकार रह चुके, मूलत: एक किसान के बेटे हनीफ ‘अ केस ऑफ एक्सप्लोडिंग मैंगोज़’ और ‘रेड बर्ड्स’ (Red Birds), दोनों उपन्यासों के कारण चरचा में हैं. ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ (2018) में छपे एक साक्षात्कार के आधार पर उनके गंभीर व्यक्तित्व और उनके राजनीतिक उपन्यासों के कथानकों के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. नए उपन्यास रेड बर्ड्स में युद्ध को एक व्यवसाय के नजरिए से एवं जीविका के साधन के रूप चित्रित किया गया है. उनका मानना है कि युद्ध हमारे जीवन का अविभाज्य हिस्सा और हमेशा चलते रहने वाला एक व्यवसाय बन चुका है. यह उपन्यास उन लोगों पर है जो (युद्ध के दौरान) अपहृत होते हैं या मार डाले जाते हैं, पर जो अपनी यादें और निशानियाँ परिवार वालों के हृदय में हमेशा के लिए छोड़ जाते हैं.

भारत में लिंचिंग और हत्यारों को माला पहनाते हुए देख क्या पाकिस्तानी दोस्त यह नहीं कहते कि ‘तुम तो बिलकुल हमारे जैसे निकले? के जवाब में उन्होंने कहा कि, “हम अपने पड़ोसियों से अलग कैसे हो सकते हैं! हम दोनों के लिए दाना-पानी और सांस लेने वाली हवा सब तो एक है. हम विभाजन के वक्त का केवल अनुमान लगा सकते हैं. उन दिनों हमारे पास न तो ह्वाट्सऐप था और न कलाशनिकोव (रायफल) या आरडीएक्स, फिर भी हमने महज अपने हाथों से चक्कुओं, किचेन की छुरियों और डंडों द्वारा दसियों लाख लोगों को मार डाला. मेरे कुछ मित्र कहते हैं- ‘देखिए, बगैर मिलीटरी शासन के, भारत में किस प्रकार का प्रजातंत्र है!’ वास्तव में इससे मुझे सांत्वना नहीं मिलती, दुख होता है, खुद के और बॉर्डर पार वालों के लिए भी. अपने घर में आग लगी हो तो पड़ोसी के घर में भी लग जाए... इसमें कोई दैवी न्याय (डिवाइन जस्टिस) नहीं दिखाई देता. यह भयावह है- यहाँ भी और वहाँ भी.”

यह पूछने पर कि आपके उपन्यास गंभीर रूप से राजनीतिक हैं, वे कहते हैं कि – यह एक प्रकार का अभिशाप है. साधारणतया मैं शुरू तो करता हूँ अच्छी-अच्छी बातों के साथ,  जिन्हें भौतिक और भावानात्मक रूप से आरामदेह जिंदगी जीने वाले लोग पसंद करते हैं; जिनके पास एक प्यारा-सा घर और एक प्यारा-सा परिवार होता है. लेकिन पाँचवें पेज तक जाते-जाते (अचानक) कुछ भयंकर घटित हो जाता है.

पत्रकार अमृता दत्ता साक्षात्कार में आखिरी सवाल पूछती हैं कि ‘ऐसा क्यों है कि पिछले उपन्यास ‘अ केस ऑफ एक्सप्लोडिंग मैंगोज़’ में आपने एक तानाशाह को मसखरे (क्लाउन) के रूप में चित्रित किया है और अब 2018 में यूएस के राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रम्प सामने है!’

वे जवाब देते हैं, ‘असल में हम एक ऐसे वक्त में रह रहे हैं, जो व्यंग्योक्ति के दृष्टिकोण से बहुत कठिन समय है. आज हमारे जीवन का यथार्थ किसी भी अनूठी कल्पना से परे है. लोगों को आज जनरल जिया-उल-हक़ ट्रम्प की तुलना में एक बेहतर राजनेता लगते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे  वाजपेयी मोदी की तुलना में बेहतर और प्रीतिकर लगते हैं. यूरोप में थेरेसा मे (Theresa May) हैं. हमारे समक्ष ऐसे नेताओं की श्रृंखला है, जो एक कार्टून-बक्से से अवतरित हुए जान पड़ते हैं. उनका मजाक उड़ाना मुश्किल लगता है.

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बहरहाल, उपन्यास में वापस आकर हम देखते हैं कि मेजर एली उस रेगिस्तान में आश्रय की तलाश में सात-आठ दिन से भूखा-प्यासा भटकता फिर रहा है कि उसकी नजर मट्ट पर पड़ती है और उसे लगता है कि आश्रय कहीं आस-पास ही है और उसकी जान बच जाएगी. मट्ट भी एली को देखता है, किंतु उससे पहले उसे उसी जगह से एक लाल परिंदा आसमान की ओर उड़ता दिखाई देता है. मोमो मट्ट को तलाश करता अपनी जीप से आता है और दोनों को अपने कैम्प ले जाता है. बमबारी के बाद तबाह हुए कस्बे (कैम्प) का संसार अब यूएसए (USAID) की सहायता पर टिका हुआ है. यूएसएड विभिन्न सामग्री ही नहीं देता, और भी बहुत कुछ करता है. बमबारी के बाद कैम्प के बच्चों के माताओं-पिताओं के लिए ‘Living with Trauma’ और ‘Traditional Cures in a Time of Distress and Disorder’ के वर्कशॉप स्थापित किए गए हैं. मोमो के पिता एक दिन अपने साथ एक अमेरिकन औरत लाते हैं, मोमो की माँ जिसको गुलबदन (फ्लॉवरबॉडी) नाम देती है. फ्लॉवरबॉडी परिवार पुनर्वास प्रोग्राम के अंतर्गत $120 प्रतिदिन के ठेके पर कोऑर्डिनेटिंग ऑफिसर बनकर आई है. वह बमबारी से प्रभावित परिवारों के किशोरों के मन-मस्तिष्क का अध्ययन करना चाहती है. उसने अपनी पीएचडी की थीसिस का नाम रखा है, ‘किशोर मुस्लिम मन, उसकी आकांक्षाएँ एवं आशाएँ’. वह कहती है कि इस आधार पर जो पुस्तक लिखी जाएगी, उसका नाम रहेगा रेगिस्तान के बच्चे’. मोमो कहता है, ‘Post Traumatic Stress Disorder. वे पहले आसमान से हम पर बम बरसाते हैं, फिर बड़ी मिहनत से हमारी तंगहाली/तनाव का इलाज करते हैं ….हमें मिलता है पीटीएसडी और उसे(फ्लॉवरबॉडी को) प्रति दिन यूएस डॉलर.

गुलबदन की देह से निकती सेंट की खुशबू और सुंदरता से आकर्षित होकर मोमो उसके जितना निकट जाता है, उतना ही मट्ट और मोमो की माँ तनाव महसूस करते हैं. मट्ट इस बात से परेशान है कि मोमो अब उस पर ध्यान कम दे रहा है. मोमो की मदर डियरदूसरी बात से परेशान हो, गुलबदन को सावधान करते हुए कहती है कि मोमो देखने में ही किशोर लगता है, पर वास्तव में जवान हो चुका है. वह फादर डियरसे भी रोज-रोज नोक-झोंक करती है. उधर मोमो जहाँ फ्लॉवरबॉडी के प्रति जितना नरमदिल है, उतना ही मेजर एली से नफरत करता है और भाई अली को पाने के लिए बंधक के रूप में उसका इस्तेमाल करना चाहता है. दोनों अतिथियों को बड़े-से आंगन के दूसरे किनारे पर बनी दो कोठरियों में रखा गया है. उपन्यास के अंत में, हैंगर में हलचल का आभास पाकर पूरा परिवार एली को लेकर अली से अदला-बदली की नीयत से वहाँ पहुँचता है. पीछे-पीछे फ्लॉवरबॉडी भी एक डॉक्टर के साथ पहुँचती है. कहानी उस जगह जादुई यथार्थ के आश्रय में जाती जान पड़ती है. वहाँ अली, कर्नल स्लैटर, एली की पत्नी कैथ, और कुछ अन्य लोग/प्रेतात्माएँमौजूद हैं.

मोहम्मद हनीफ अमेरिका की विदेश नीति पर ही नहीं, बल्कि अपनी परंपराओं पर भी जगह-जगह चोट करते दिखाई देते हैं. इस मोर्चे पर उन्होंने मदर डियरको आगे किया हुआ है. इस संबंध में एक चुभता हुआ प्रसंग उद्धृत किया जा सकता है:

मदर डियर को समर्पित इस अध्याय में वे पूरी तरह से छाई हुई हैं. फादर डियर ने उन्हें हिदायत दे रखी है कि चूँकि लोग उनसे मिलने बराबर आते रहते हैं, उनके सामने मदर डियर को अपना सिर ढके रखना चाहिए. एक दिन वे रोजाना की तरह पानी लाने जाती हैं तो उनका डुपट्टा तालाब पर ही छूट जाता है. पानी लेकर लौटने पर दूर से ही घर के सामने मिलने वाले कुछ लोग खड़े दिखाई देते हैं. वे झटपट अपना कुर्ता निकालकर उससे माथा ढक लेती हैं. घर में घुसते समय बाहर खड़े लोगों की तौबा…तौबाजैसी भुनभुनाहट सुनाई देती है और फादर डियर उन्हें धकेलते हुए अंदर ले जाकर डाँटते हैं. मदर डियर उनके घुटने पर ठोकर मारते हुए जवाब देती हैं, ‘मैंने अपना सिर ढँक रखा है.

लेकिन नीचे…तो देखो?’

क्या देखूँ? मैंने अंडरशर्ट पहन रखा है, ओके! मेरे बाजू जरूर नंगे हैं, लेकिन उन्हें ढंकने के लिए तुमने तो नहीं कहा था! मैंने अपना सिर तो ढक रखा है, जहाँ मेरी इज्जत है, और जो सही सलामत है. वह बाजुओं पर भी होती है क्या? तो तुम्हें एक ही बार में बोल देना चाहिए था न?’

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