Saturday 27 April 2013

कहानी - कबिरा पडा बाजार में

कहानी

कबिरा पड़ा बाजार में
नारायण सिंह

       वह शाम के धुंधलके का वक्त था, जब इया को अविनाश ने मेरे घर पहुँचाया। संयोग से उस समय नागदेव और सुरेश भी मौजूद थे। दोनों ने मिलकर उसे कार से निकाला और मेरे कहे मुताबिक भीतर के बरामदे में बिछी चैकी पर लिटा दिया। कंपनी के क्वार्टर में हालांकि काफी जगह थी, आगे-पीछे बरामदे, पीछे बहुत बड़ा सा आंगन लेकिन कमरे बड़े-बड़े होने के बावजूद कुल दो ही थे। एक कमरा मेरे पढ़ने-लिखने और सोने के साथ-साथ बैठने का भी काम देता तो दूसरे में बेटी का अपनी माँ के साथ रहना और पढ़ना हुआ करता। बाहर वाले बरामदे के एक कोने में आठ बाई छह की एक कोठरी थी जिस पर छोटे बेटे ने अपने बड़े भाई के बीएचयू जाने के बाद कब्जा जमा लिया था। इया की हालत देखते हुए हमें उसके लिए सबसे उपयुक्त जगह पिछले बरामदे में बिछी वह चैकी ही लगी जहाँ से बाथरूम बिल्कुल पास था।
       अविनाश के जाने के बाद पत्नी ने इया के नजदीक जाकर पूछा-इया जी, कुछ चाहीं?
       इया के कंठ से कोई अस्पष्ट सी आवाज निकली और उन्होंने बिना हिले-डुले बिस्तर गीला कर दिया। मुझे यह हरकत नागवार गुजरी; लेकिन जब हमने उन्हें उठाना चाहा तो हमें उनकी मजबूरी का पता चला। उनके पैर जवाब दे चुके थे। गीले कपड़े बदलते वक्त हमने देखा उनकी पीठ पर नीचे की ओर एक गहरा जख्म है, जिसमें छोटे-छोटे कीड़े रेंग रहे हैं। मैंने झुंझलाते हुए पूछा-ऐसी हालत कैसे हुई? हमारे यहाँ पहले ही कोई खबर क्यों नहीं भेजी?
       उसकी जुबान से एक अस्पष्ट आवाज फिर से निकली। साथ ही, उनकी आँख के कोरों से आँसू ढरकने लगे। यानी अब हमें उनकी वह आवाज कभी नहीं सुनाई दे पाएगी, जो कभी भीतर गुदगुदी तो कभी आहत कर दिया करती थी। मुझे अविनाश का स्वभाव  पता है। सबको यह अनुमान था कि इया के पास गहने और धन जमा है। शायद उसकी लालच में वह उसे गाँव से अपने यहाँ उठा लाया हो और जब चलना-फिरना बोलना बंद हो गया तो यहाँ लाकर डाल गया हो। वह ऐसा वक्त था, जब मैं अपने बच्चों के कैरियर को लेकर इतना व्यस्त और चिंतित था कि मेरे लिए खुद के बीमार होने के बारे में भी सोचना गवारा नहीं था।
       हम उन्हें अस्पताल ले गए। एमर्जेन्सी में मेरे एक परिचित डाक्टर मिल गए। उन्होंने अच्छे से जांच करने के बाद पूछा, ‘‘यह बेड सोल कितने दिनों से बल्कि कितने महीने से है?’’
       - मुझे नहीं मालूम, सर। यह मेरे भतीजे के पास पिछले छह माह से थी। मेरे यहाँ तो अभी एक घंटे पहले आई है। वह पहुँचाकर बाहर से भाग गया। हमें कुछ पूछने का भी मौका नहीं दिया।
       - कितनी उम्र होगी? - उन्होंने अपनी कुर्सी पर बैठते हुए पूछा।
       - यही कोई नब्बे और सौ के बीच में .........।
       - तब आप क्या चाहते हैं? डाक्टर ने मुस्कराते हुए पूछा।
       - क्या मतलब?
       - मतलब यह कि अब इन्हें घर ले जाइए। राम-राम कहिए। आप तो यह सब नहीं मानते वरना कहता कि तुलसी दल सिरहाने रखकर इंतजार कीजिए। अब भगवान  के घर इनकी विदाई कभी भी हो सकती है। वैसे अभी भी इनके बाल अधपके हैं, अधिकांश दांत  भी सलामत हैं। आँखें भी ठीक लग रही हैं। बस यही बेडसोल है जो जानलेवा बन चुका है। महीने-डेढ़ महीने से कम पुराना क्या होगा? एक पाउडर लिख देता हूँ। कीड़े मर जाएंगे। लेकिन अब कुछ भी ऐसा ही है, जैसे सूखे पेड़ में पानी देना।
       इया को वापस लाकर फिर उसी चैकी पर लिटा दिया गया। लिटाते वक्त उसके मुँह  से वही आवाज दो बार फिर से निकली। आवाज पर हमने गौर किया तो कुछ-कुछ लगा कि वह शब्द ‘डर’ या फिर ‘घर’ दोनों में से कोई एक है। इया को डरते हुए हमने शायद ही कभी देखा हो। वह गाँव में उन दस कोठरियों वाले मकान में पिछले पचीस वर्षों से अकेले रह रही थी, जिनमें दिन में भी अंधेरा रहा करता था और हमें अकेले भय लगा करता था। निश्चित रूप से वह शब्द ‘घर’ ही रहा होगा क्योंकि सभी को पता है कि इया के प्राण उस घर में बसा करते हैं।
स्वीट होम
       इया को देवी-देवताओं और बाबा के बाद यदि किसी पर भरोसा था तो यह वह मकान ही था, जिसके प्रवेश-द्वार की दीवार पर ऊपरी आलेनुमा भाग में सीमेन्ट से बाबा का नाम उकेरा गया था, अपने निरक्षर होने के बावजूद जिसकी जानकारी उसे थी और जब कभी कोई उसे नाराज कर देता तो कहा करती कि यह मकान मेरे पति का है, इसलिए कोई भी इससे मुझे बेदखल नहीं कर सकता और बाकियों को इस घर में रहना है तो उन्हें मेरे अनुसार चलना होगा। लेकिन ऐसा कहने के लिए इया को तब तक इंतजार करना पड़ा जब तक मां नहीं मरी। 
       गाँव के उत्तरी छोर पर बना यह मकान भाइयों के लिए स्टेटस सिम्बल और स्थायी पहचान था तो बहनों के लिए नैहर की साख एवं बचपन की स्मृतियों का एक झरोखा। इसके साथ मेरा रिश्ता एक रहस्यमय आसक्ति और अनासक्ति का था जिसमें शंकाएँ, न भूलने वाली उदास स्मृतियाँ और सपने शामिल थे, बचपन के समय मैंने इसकी दालान में नितांत अकेले मेंचुप दीवारों को अपना संगी बनाते हुए उन पर गेंद के न जाने कितने प्रहार किए होंगे।
       बचपन से वयस्क होने तक की अवधि में, भले ही वह क्षण विरले ही क्यों न हो, जब कभी भी मैं पीठ के बल उस मकान की छत पर गर्मियों की रात में लेटता तो आसमान में तारे जितने साफ-साफ दिखाई देते उतने मैंने आज तक अन्यत्र किसी जगह से नहीं देख पाया हूँ। सप्तर्षिमंडल, आकाशगंगा, एक ही जगह पर शाश्वत रूप से अचल रहने वाला धु्रवतारा और सुबह की मुनादी करने वाला सुकवा (शुक्रतारा) इन सबकी पहचान हमने उसी छत पर से की थी।
       मकान की छत पर से गाँव के उत्तरी सीवान को छूकर गुजरने वाली, ऊँचे बाँध की तरह निर्मित की गई वह नई रेल लाइन भी दिन की रोशनी में दिखाई देती, जो पूरब में कलकत्ता तो पश्चिम में देश की राजधानी से जा मिलती थी। यह नेताओं, अफसरों और अखबारों की भाषा में विकास की जीवन-रेखा के नाम से जानी जाती थी और इसके प्रति हमारा आकर्षण किसी अहित करने वाली वस्तु के प्रति आकर्षण जैसा या फिर भूख-प्यास और दिन के चैन के साथ रातों की नींद छीन लेने वाली प्रेमिका जैसा था।
       इस के बावजूद कि गाँव के पास के एक एकड़ जमीन में लगा हमारा आमों का बाग और तीनफसली तीन एकड़ खेत इसके पेटे में समा चुके हैं, इस रेल लाइन और इस पर दौड़ने वाली गाड़ी के प्रति हमारा लगाव ऐसा था कि जब भी हम-मैं और दोनों बहनें आंगन में खाना खा रहे होते और पूरब में गाँव के सीवान पर स्थित जटहवा बाबा के मोड़ पर जब कोयले वाला इंजन जोर से सीटी मारता तो हम अपना खाना छोड़कर सीढ़ियाँ फलांगते इस मकान की छत पर जा पहुँचते और उत्तरी रेलिंग से चिपककर रेलगाड़ी की आवाज के संगीत में तब तक डूबे रहते जब तक वह कानों से बिल्कुल ओझल नहीं हो जाया करती थी। रात के समय हमें वही रेलगाड़ी रोशनडिब्बियों की चलती हुई एक तेज रफ्तार कतार लगा करती जिसमें सवार होकर हम सपनों के स्टेशन पर पहुँच जाया करते थे।
       लेकिन उस घर के साथ मेरा एक और भी रिश्ता था। मैंने उसके अलग-अलग तीन कमरों में अपने तीन-तीन अजीजों को बारी-बारी से आखिरी साँस लेते हुए देखा था। माँ के समय मैं पाँच वर्ष का था तो बड़ी बहन के समय दस वर्ष का। दोनों बड़े भाइयों के बाद  की वह बहन बरसात के दिनों में बाढ़ से उफान मारते खन्ते-भागड़ के पानी में मुझे तैरने सिखाने के लिए अकेला छोड़ देती और जब मैं नाकाम रहता तो अपनी पीठ पर साड़ी के आँचल से बांधकर एक किनारे से दूसरे किनारे तैरती हुई चली  जाती। मैं उसमें बहुत दिनों तक अपनी मृत माँ की छवि देखता रहा था। शादी के बाद उसे टी.बी. हो गई और दहेज के लिए नाराज चलने वाले उसकी ससुराल वाले उसे हमारे घर पर छोड़ गए े। तब के दिनों में यह बीमारी या तो लाइलाज मानी जाती होगी या फिर बड़े शहरों में इलाज करवाने का बड़ा खर्चा हमारे घर की आर्थिक स्थिति के अनुकूल नहीं रहा होगा, इसलिए उसे मृत्यु के इंतजार में दिन गिनने के लिए छोड़ दिया गया था। हमारे यहाँ का उसका करीब छह माह का जीवन बहुत ही पीड़ा में गुजरा। उसके सिर में किसी किसी रोज भयंकर पीड़ा होती और अनाप-सनाप गालियाँ  निकालना शुरू कर देती, जिनका निशाना अक्सर हमारे पिता और भगवान हुआ करते  जिन्होंने मिलकर उसे पैदा किया था। वैसी हालत में बाबा बेचैन हो जाते और पास के गाँव बैजनाथपुर में रहने वाले डाक्टर ज्वाला प्रसाद के यहाँ से होमियोपैथी की छोटी-छोटी और मीठी-मीठी गोलियाँ लाकर दीदी के मुँह में खुराक के हिसाब से डालते रहते।
       जब दीदी की घरघराती साँसों की आवाज हमेशा के लिए थमी तो मैं उस वक्त   पंडित बरमेश्वर दुबे के कहने पर रामचरित मानस के सुंदर कांड का पाठ कर रहा था। दीदी के जाने के डेढ़-दो महीने बाद जब बाबा जाने लगे तो  उस वक्त तक मुझे मृत्यु के बारे में थोड़ी-थोड़ी जानकारी हासिल हो चुकी थी।
       उन दिनों गाँव के कुछ लोग दबी जुबान में यह भी कहना शुरू कर चुके थे कि हमारा वह मकान शापित हो गया है। इसकी पृष्ठभूमि के तौर पर वे एक घटना का जिक्र किया करते। जब यह मकान बन रहा था तो उसके दक्षिणी पश्चिमी कोने पर नींव से सटा, बाहर एक कुआँ था जो आज भी मौजूद तो है लेकिन कूडे़-कचरे और दीवारों में उग आई पीपल-पाकड़ की मोटी-मोटी टहनियों के कारण अंधकूप में बदल गया है। मकान बनते समय वह अपने शबाब पर था।
       सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन घर बनाने वालों में से एक मजदूर कुएँ में गिर पड़ा। उसे गिरते हुए किसी ने नहीं देखा होगा, क्योंकि उसकी खोज तब शुरू हुई जब कुएँ के पास रखे गए ड्रम का पानी खत्म हो गया और वह खोजने पर भी नहीं मिला। तब तक श्री राम बो कमकरिन ने शोर मचाया कि कुएँ में कोई बड़ी सी चीज तैर रही है। उड़ाह में पारंगत गाँव के दो तैराकों ने उसे निकाला तो देखा गया कि वह वही मजदूर है। अंतिम आस में उसे चारपाई पर लादकर रेल लाइन  के उस पार बिशुनपुरा गाँव ले जाया गया, जहाँ कुम्हारों के घर थे। वहाँ उसे देर तक चाक पर घुमाया गया, लेकिन न तो फूले हुए पेट का पानी बाहर निकला और न तो उसकी साँस ही वापस आई। वह उसी गाँव का रहने वाला था और उसकी माँ तब तक पहुँच चुकी थी। वह अपनी छाती पीट-पीट कर रोती हुई सरापती जा रही थी-हमार त करम फूट गइल! सबके मालूम रहे कि हमरा बचवा के मिरगी आवेला त पानी खींचे के काम में काहे के लगवले रे निरदइया। तोर आदी औलादी ओ घर के हबेखे ना पावे रे मुदइया। (मेरे तो करम फूट गए। जब सबको मालूम था कि मेरे बेटे को मिरगी की बीमारी है तो फिर निर्दयी लोगों ने उसे कुएँ से पानी निकालने के काम में क्यों लगाया? जिस निर्दयी ने मेरे पुत्र की बलि ली है, उसकी संतानें उस घर का उपभोग नहीं करें, ऐसा मेरा शाप है।)
       यह कहने में कोई हिचक नहीं कि वह मकान थोड़ा पाकर भी अपने आप में संतुष्ट रहने वाले भव्य अतीत के खंडहर पर तैयार हुआ था, जिसमें घर की गायों के जाए दस-ग्यारह अंड़ुआ बैलों और तीन बाबाओं के सम्मिलित श्रम के जोर पर पैदा हुए भांड़-छूंड़ और कोठिलों में भरे अनाज और गायों के थन से निकले कुंडों में औंटाते दूध की सीली-सोंधी महक हवा के साथ लहकती-बहकती रहती थी। लेकिन घर में पत्नी बनकर आईं पराए गाँवों की स्त्रियों के आपसी झगड़ों के कारण परिवार के बंटने की नौबत आ गई। पिता और दो चाचाओं के नौकरी में होने और बाबा लोगों के उम्रदराज होते जाने के कारण परिवार की यह राय बनी कि अगर खेती जारी रखनी हो तो मेरे भाइयों की पीढ़ी को खेती में जोत दिया जाना चाहिए। बड़े बाबाओं के परिवार को भले मंजूर हो, लेकिन माँ ने साफ इन्कार कर दिया। तब बड़े भाई साहब ने दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी और वे बनारस के कमच्छा कालेज में पढ़ रहे थे जबकि मझले भाई साहब का इस वर्ष बनारस के ही राजपूत कालेज में ऐडमिशन होने वाला था। माँ की जिद थी कि खेती हो चाहे न हो दोनों लड़के पढ़ाई छोड़कर खेती में नहीं आएंगे।
       पहले चूल्हे अलग हुए, फिर खेत और माल-मवेशी और तब आखीर में घर। बाबा के हिस्से भूसा रखने वाला कच्चा मकान मिला, जहाँ आए दिन बड़े-बड़े गेंहुअन साँप निकला करते और बाबा लाठी लेकर रात-रात भर पहरेदारी किया करते थे। पिता ने अभाव के बावजूद कोलियरी से ट्रक पर कोयला भिजवाया और वहीं के मिस्त्रियों को यहाँ भेजा ताकि कोयले से ईंट के भट्ठे बनाकर मकान बनाया जा सके। चूंकि बाबा पर उनका विश्वास नहीं था, इसलिए देखरेख करने की जिम्मेवारी हमारे एक  मामा को सौंपी। लेकिन नया मकान बनना अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि भैया लोगों को पढ़ाई पूरी होने से पहले ही, परिस्थितिवश नौकरी पकड़ लेनी पड़ी और बाकी बची दोनों बहनें भी शादी के बाद अपने-अपने घर विदा हुई। वे आज जिंदा हैं और उन्हें आज भी इस बात का मलाल है माई ने बेटों के पढ़ने के लिए तो झगड़ा किया लेकिन बेटियों को गाँव के प्राइमरी स्कूल से आगे नहीं पढ़ाया। वे सोचती हैं कि वह पढ़ाई ही थी जिसके चलते वे अपने भाइयों के परिवार से काफी पीछे छूट गई हैं। 

बाबा हो बाबा!
       बाबा की मृत्यु से लगभग छह माह पहले जब मैं पिता के साथ गाँव आया हुआ था, बाबा ने पिता से कहा बबुआ! हमारी तो एक भी बात नहीं मानते लेकिन आखीर में एगो बात कहते हैं कि जदी अचक्के हमारा प्रान छूट जाए तो अपने परिवार का कोई भी आग देने वाला नहीं होगा। लोग तुम पर ही हँसेंगे कि नाती-पोता रहते हुए मुझे आग देने वाला कोई नहीं मिला। तो इस छोटे को मेरे पास रहने दोगे तो हमारे प्राण शांति से निकलेंगे। और यह मेला स्कूल में पढ़ भी तो सकता है। 
       पिता जब राजी हुए तो मैं यह सोचकर खुश हुआ कि पिता की जेल से छुटकारा मिल गया है। मुझे सवाल आते नहीं थे और नहीं आने पर पिटाई होती थी। यहाँ बाबा के पास फसलों के साथ-साथ स्नेह की खेती लहलहाया करती थी। वे मुझे खेतों में ले जाते। कभी अपने कंधों पर बैठाते तो कभी घोड़ी पर। हल की मूँठ मैंने उनके साथ-साथ पकड़नी सीख ली थी। दूसरे दोनों बाबाओं के परिवारों के हम उम्र चचेरे भाई माधो, गिरिधर और नागा के साथ कभी अमरूद के बगीचे में तो कभी कोल्हू में ईख डालने धमाचैकड़ी मचती। सूखे पतों की आग वाले चूल्हे के ऊपर रखे विशाल कड़ाह में, जब दिन ढलने लगता, गन्ने का रस खौल-खौलकर गाढ़ा हो जाता तो केले के पत्तों पर हमें गर्म-गर्म राब और अंत में गुड़ मिलता। शाम को लौटते समय भरकस के सहारे घोड़ी की पीठ के दोनों ओर कुछ न कुछ लटका होता; कभी गुड़ तो कभी अनाज या फिर जलावन के लिए अरहर की झाँखियाँ या मवेशियों के लिए हरा चारा। घोड़ी  के अलावे हमारे पास अब एक गाय और एक बैल भर बच गए थे। चरन और नाद में सुबह-शाम घास-भूसा-पानी तीनों मवेशियों  के आगे डाल दिया जाता। उसमें भूसी, खली और हड़दोहन मिलाते वक्त मैं बाबा के साथ-साथ लगा रहता। शुरू-शुरू में बड़ी सींगों और कजरारी बड़ी-बड़ी आँखों वाला वह बैल हूँफते हुए मेरी ओर झपटा तो बाबा ने उसे डाँटते हुए कहा - पागल हो गए हैं क्या जो घर का भी लड़का पहचान में नहीं आता? पिटाने का मन है क्या? 
       बाद में वह मेरा दोस्त बन गया। मुझे गुदगुदी होती और वह था कि जोर-जोर से सांस छोड़ता मेरे हाथ में लगी खली-भूसी अपनी खुर्दरी जीभ से चाटता रहता। हमारे लिए वही सब खेल थे, खिलौने थे और आज की भांति न तो बाजार हमारे आस-पास हुआ करता था और न हमें उसमें बिकने वाले तरह-तरह के खिलौनों के बारे में कुछ जानकारी थी।
       बाबा दालान में बिछी पटिहाट पर रात को मुझे अपने साथ सुलाया करते और आस-पास मौजूद झिंगुरों की झनझनाहट के बीच बड़े ही रोचक ढंग से पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं के साथ गाँव से जुड़ी घटनाओं को सुनाया करते। वे मुझसे कहा करते कि आदमी बनने को पढ़ना तो जरूरी है लेकिन यह जरूरी नहीं कि पढ़ने-लिखने के बाद शहर में नौकरी ही की जाय और अपने खेत-बधार बटइया पर दे दिए जायं। ढेर सारे पैसे कमाने वाले भी तो खाते हैं अनाज ही न। और मनोहर। जरूरत से ज्यादा पैसे आदमी के संस्कार को खराब कर दिया करते हैं।
       मुझे इस बात पर पिताजी याद आते, जिनके साथ पिछली बार बाबा की कहा सुनी  हो गई थी, जब पिता जी वापस कोलियरी लौट रहे थे। पिता ने कहा कि ‘अब खेती में कोई बचत और भविष्य नहीं है। वैसे भी रेल लाइन में नजदीक के अधिकांश खेत चले गए हैं। अब आप बूढ़े भी हो गए हैं, थक रहे हैं। आराम करिए और राम राम भजिए। अब बाकी बचे मवेशियों को बेच दीजिए और खेत बटइया और लगान पर देकर हलवाहे को छुट्टी दे दीजिए। देखिए सूबेदार साहब को। रिटायर होकर पूजा-पाठ में लीन हैं।’
       वह ढलती दोपहरी का वक्त था और बाबा खेत से लौटकर आंगन में आलथी-पालथी मारे सत्तू खा रहे थे। उन्होंने खाते-खाते जवाब दिया - हम किसी के नौकर नहीं किसान हैं, गृहस्थ हैं। हमारे काम में कोई रिटायर नहीं होता। और मेरे लिए मेरा काम ही राम का नाम है, मेरे खेत ही भगवान हैं, जिनसे आज तक परिवार का पेट चलता रहा है और आप इस लायक हुए हैं। यह मेरा काम नहीं कि जवानी में गलत काम करूँ और बुढ़ापे में राम-राम जपूँ।
       पता नहीं पिता को उनकी बात का इतना बुरा क्यों लगा कि वे हत्थे से उखड़ गए और बाबा को गालियाँ तक दे डालीं। बाबा हक्का-बक्का रह गए और बीच में ही खाना छोड़कर उठ गए और आस्तीन से आँखें पोंछते हुए पानी भरा लोटा लेकर घर के बाहर निकल गए।
       कहानी सुनाते-सुनाते एक शाम बाबा ने मुझसे कहा, ‘‘बेटा मनोहर। तुम अपनी इया का ख्याल रखना बबुआ। यह औरत मुँह की तीत है, लेकिन मन में कोई छल-कपट नहीं है। इसे अगले जनम की फिकर ज्यादा है। इसको स्वर्ग चाहिए, मोक्ष चाहिए। गंगा-सरयू नहाना और घंटा भर पूजा-पाठ। घर परिवार की कोई चिंता नहीं। लेकिन इसमें इसका दोष कम है। पहले तो गाँव की औरतों से झगड़ा कर लेगी और जब कोई औरत इसे बांझ कह देगी तो घर में बैठकर भोंकर-भोंकर के रोने लगेगी, जैसे बच्चा हो। हमसे अठारह-बीस वर्ष छोटी औरत से शादी कराके हमारे  बाबू और भाई लोगों ने अच्छा नहीं किया। वह भी तब जब तुम्हारे बाप पोसा-पला के आठ बरस के हो गए थे। एऽ बचवा। हमारे ना रहने पर इसका ख्याल रखना।....... अब तुम्हारे ऊपर ही भरोसा  है।’’
       लगभग पचास साल हो गए उस छहफुटे गोरे चिट्टे शख्स यानी हमारे बाबा को  गुजरे हुए, जो पचहत्तर साल की उम्र में चोटिल हड्डियों के बावजूद तीन कोस दूर के खेतों में जाया-आया करते थे, जिन्होंने बिना किसी उज्र-एतराज के किसानी की तमाम नैसर्गिक विपत्तियाँ झेली थीं और टस से मस नहीं हुए थे, जिन्होंने अपनी जवान पत्नी की मौत का सदमा खामोशी के साथ बरदाश्त कर लिया था जब उनकी दो बेटियों के बाद पैदा हुए मेरे पिता मात्र छह महीने के थे, जिन्होंने अपने हलवाहे शिवजतन, जिन्हें हम जतन काका कहकर पुकारते थे, के ऊपर होने वाले अन्याय के विरोध में अपने ऊपर पट्टीदार विपक्षियों की एक साथ सात-सात लाठियों के वार सहे थे, लेकिन जैसा कि गाँव के लोगों ने बाद में कहा था, जब उन ग्यारह बैलों में से हमारे हिस्से के उस आखिरी बैल के बिकने की मजबूरी आई (और यह वक्त जानबूझकर तब निकाला गया था जब मैं स्कूल गया हुआ था) और वह बैल खरीदार के साथ जाने के बजाय उस पर अपनी सींगें तानकर पिल पड़ा तो उस शख्स यानी बाबा ने पहली बार उस पर पैने से वार किया था - एक, दो, तीन और लोगों ने बाद में कहा था कि उसके तुरंत बाद वे दोनों-बाबा और बैल अपनी-अपनी जगह एक दूसरे से नजरें चुराते हुए चित्रलिखित खड़े रह गए थे, और तब वह बैल यह समझते हुए कि अब इस घर से उसके दाना-पानी उठने का वक्त आ गया है, चुपचाप खरीदार के पीछे-पीछे सिर झुकाए चला गया था और बाबा उसके जाने के बाद दालान में आकर पटिहाट पर ढह गए थे और दो दिन बाद उठे भी तो चार लोगों के कंधों पर। उनके निष्प्राण शरीर पर घी का लेप लगाने से पहले निकाली गई बंडी की दाहिनी जेब में सौ और पचास के एक-एक नोट ज्यों के त्यों रखे मिले थे, जो बैल की एवज में मिले थे। बाद में लोगों ने यह भी कहा था कि बाबा के प्राण उनके बैलों में बसा करते थे।
       बाबा के चले जाने के लगभग छह साल बाद परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि पिता को कोलियरी छोड़कर गाँव के मकान में स्थायी बसेरा बनाने की तैयारी करनी पड़ी। लेकिन उनकी जगह उनके मौत की खबर आई।
       उस साल गाँव में आम खूब आए हुए थे और मैं बगीचे में बचे पेड़ को अगोरने का काम कर रहा था। बड़े भाई सपरिवार आए हुए थे और पिता की मौत सुनकर मझले भाई भी क्रियाकाम से पहले आ गए थे। 
       पिता के श्राद्ध के अगले दिन इया पड़ोस के तीन पंचों को बुला लाई और उनके सामने भाई लोगों से कहा कि मेरे और मनोहर के हिस्से के खेत अलग कर दिए जायं। बड़े भैया ने समझदारी दिखाते हुए कहा कि जब तक आप जिन्दा रहेंगी समूचा खेत और यह घर आपके अधिकार में रहेगा और इसमें से हम अपने लिए कुछ भी नहीं लेंगे। मझले भैया ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा कि यदि आप चाहें तो हमलोग लिखित रूप में यह बातें दे सकते हैं।
       उसके बाद के छह साल में से भले आधा समय मैंने बाहर बिताया हो, पर मेरा स्थायी आश्रय इया का वही घर रहा था और समय के साथ मुझे इतना तो महसूस हो ही गया कि गांव में केवल खेती पर आश्रित परिवार अभाव में जी रहे हैं और पुरुषों की शादियां बड़ी कठिनाई से हो पा रही हैं। उस छोटे से साम्राज्य पर किसी दूसरे की मौजूदगी इया को असहज बना दिया करती थी। उसे कुछ हद तक अकेलापन प्रिय था। यह अलग बात है कि इसकी काट के लिए वह सुग्गा पाला करती थी जो उसके सिखाये हुए बोल बोला करता था। 
       वह सुग्गे का बच्चा खरीदवाकर मंगाती, उसे घर में मौजूद पिंजरे में डाल देती और उसे एक पतली सी छड़ी का डर दिखा-दिखा कर किसी स्कूल मास्टर की भांति पढ़ना यानी बोलना सिखाती। सुग्गा ज्यों-ज्यों बड़ा होता, वह मनुष्य की तरह बोलने की कोशिश करने लगता। बाहर की दालान की कड़ी में टंगे पिंजरे से निकलती सुग्गे की आवाज सुनकर सामने की सड़क पर चलते राहगीर थम जाते और वह सुग्गा और भी जोर-जोर से पंख फड़फड़ाते हुए बोलने लगता के ह ऽ के ह ऽ। तहरा का चाही? ए मनोहर मीठू के कटोरे कटोरे दूध ले आवऽ। मनोहर, मीठू के मिठाई ना देबऽ। ए इया, राम राम कहऽ, सीता राम कहऽ।........ फिर साल-दो साल बाद किसी दिन असावधानी में जब पिंजरा अपनी ठीक जगह पर नहीं टंगा रहता और  इया मकान से बाहर कहीं रहती तो कोई बिल्ली छलांग मारकर उस सुग्गे का काम तमाम कर देती। इया लौटती तो पिंजरे में सुग्गे की जगह उसके नुचे हुए एकाध पंख मिलते वह बैठकर दहाड़ मारकर रोने लगती। कुछ दिन उसी तरह बीतता और तब एक बार फिर से दूसरा सुग्गे का बच्चा आता और उसकी पढ़ाई शुरू हो जाती। 
       नौकरी में आने के बाद भी मेरा नाता उस घर से लगातार बना रहा। इया के कहने पर वह अधूरा मकान मेरे हाथों नौकरी में आने के दस वर्ष बाद पूरा हुआ। हम सब जब भी गाँव जाते तो घर में घुसते ही वह कहती कि घर में राशन-पानी नहीं है। साक्ष्य के तौर पर वह एक कमरे से एक दो हांड़ी-पतुकी निकालकर उन्हें ढनढना देती। हम मुस्कराते और बाजार जाकर महीने दो महीने का राशन खरीद लाते। हमारे दस दिन रहने के बाद उसका प्रश्न शुरू हो जाता कि कब तक छुट्टी है। जाहिर है, उसे हमारा ज्यादा दिन रहना नागवार लगने लगता। विशेषकर मेरे बच्चों की शरारतों से वह परेशान रहा करती। बड़ा बेटा पूजा का लोटा और लोटे के मुँह पर ठीक नाप से बैठी लोटकी को खिलौना मानकर उन्हें आपस में बजाते हुए तरह-तरह की धुन निकालता। छोटा वाला जहाँ भी गेहूँ या चावल देखता वहाँ पहुँचकर अपनी अँजुरी में ले लेकर छींटने लगता और लुढ़कते हुए अनाज के दानों को पकड़ने की कोशिश में कभी हँसता कभी रोता। बेटी ताखे में रखे हुए मिट्टी के पुराने दीयों  और दीयरियों को लेकर आंगन के कोने में बने तुलसी चैरे के पास चली जाती और तुलसी  के पत्तों को तोड़-तोड़कर दीयों में भरने लगती। इया इन निरर्थक हरकतों से आजिज हो उठती और चिल्ला पड़ती,
        बढ़नी बहारो रे! ई लइका हवेसन कि बवंडर। अइसन उत्पाती त लइके ना देखनी। आ ई लड़की बीया कि तुलसी जी के पतई नोचे में एतवारो मंगर नइखो देखत, आहि हो दादा  बुझाता कि तुलसी जी के उखाड़ के फेंकि दिही। का ए बछिया, का आगी में मूतले बाड़ू?
       बाद में पत्नी के माध्यम से सूचना मिलती कि हमारे पहुँचते ही खिरकी (पिछले दरवाजे) के रास्ते एक औरत के सिर पर रखकर घर का दिखाई देने लायक सारा अनाज पड़ोस के घर में पहुँचा दिया गया था और अब जब हम वापस जा रहे हैं तो वह सब फिर से इया अपने पास मंगवा लाएगी। बाद में इया के भी मुँह से निकल जाता कि फलां के घर में कुछ अनाज रखा तो उसने वापस लौटाया तो वह कम था। यह जानकर मैं इस झूठ पर नाराज होता तो पत्नी समझाती कि जब हम असुरक्षित भविष्य के प्रति चिंतित हैं तो उनका ऐसा करना अनुचित नहीं है।
       मेरी पत्नी का विनम्र स्वभाव ही था जो इया को हमसे जोड़े रखता था और वे हमारे यहाँ आया करती थीं अन्यथा मझली भाभी के दुव्र्यवहार से वे कभी भी उनके पास नहीं गई जबकि बड़े भाई साहब के यहाँ एक बार गई थी तो वापस लौटकर दुबारा न जाने की कसम ले ली थी। सामान्य अवसरों के अलावे बेटी और छोटे बेटे के जन्म के समय वह मेरे यहाँ एक माह की लंबी अवधि तक रही थी। बेटी के पैदा होने के बाद मेरी आँख में संयोग से कुछ तकलीफ हुई तो मुझे डाक्टर के पास जाना पड़ा। डाक्टर ने चश्मे का नंबर दे दिया। मेरी आँखों पर चश्मा देखते ही इया दुखी होकर बोली,
       - लइकी होखते बचवा के चसमा लाग गइल। पता ना इ बछिया आगे का करिहें। बिहारी जी से पतरा देखवले रहीं। कहते रहि गइनी कि सतइसा में परल बिया, बिधि-बेवहार करा ले। बाकी ई त देवी-देवता मानते नइखे।
       गाँव पहुँचकर उसने पूजा-पाठ कराया और बड़े बेटे के वक्त यह कहकर नहीं आई कि मेरा आना शुभ नहीं हुआ और लड़की हुई थी। बाद में जब भी आई, दस दिनों के बाद ही गाँव जाने की रट शुरू कर देती। कहती कि गाँव के मकान में लालटेन या दीया शाम को नहीं जल रहा है। वह उस घर के बारे में इस प्रकार बात करती जैसे वह घर नहीं कोई मनुष्य और उसमें भी कोई बच्चा हो। घर के साथ कभी कभी वह उस सुग्गे की बात भी करती जिसे वह अपनी अनुपस्थिति में पड़ोस के घर सौंप आई है।
       खेतों से आने वाली आमदनी और मकान अंत तक इया के जिम्मे बना रहा। इसके अलावे मैं अक्सर और बड़े भाई साहब कभी कभी कुछ न कुछ पैसे देते रहे। इया का जब भी मन होता, मकान में लोहे का एक बड़ा सा ताला लटकाकर गाँव की औरतों के दल के साथ तीर्थ-यात्रा को  निकल जाती। बद्रीनाथ, केदारनाथ, हरिद्वार, अमरनाथ, गंगासागर, रामेश्वरम ....... शायद ही कोई तीर्थ छूटा हो। गाँव के कुछ लोग मुझसे कहते - इया के पास बहुत पैसे हैं। सूद पर चलाया है। आपलोगों को बताया है कि नहीं कि किसको कितना दिया है। नहीं बताया तो उनके बाद सब डूब जाएगा।
       उम्र ज्यादा होने के बाद वह कभी-कभी बीमार हो जाती। मुझे गांव जाना पड़ता। थोड़ा ठीक होने पर उसे ले आता अथवा पास के गांव में बड़ी बहन के यहां सहतवार पहुँचा देता। मैं उससे कहता-अब तुम मेरे पास रहो। वहां पर तुम्हें कोई कमी महसूस नहीं होगी। सभी आराम है। यहां पर तुम परेशान होती हो और हमें भी परेशान करती हो। अब तो जहां हमलोग हैं वहीं तुम्हारा घर होना चाहिए। जवाब में वह कहती-बचवा, ई घर कइसे छोड़ दीं। हमार मरद के निसानी ह। दीया-बाती ना देखाइब त उनकर अतमा ना जुड़ाई। लेकिन हमें ऐसा लगता कि चूंकि वह हमारी अपनी दादी नहीं अन्यथा हमें छोड़कर उस निर्जीव घर से उनका लगाव कैसे हो पाता।
       मेरे यहाँ इया अंतिम बार अपने मरने के दो साल पहले आई थी। उसने आते ही मुझे चेताया था,
       - गाँव के बड़कवा लोगन से दुसमनी ना करेके। ऊ जनमरवा हवेसन। सुनतानी कि ओकनी के बारे में तू एकबार में बड़ा अंट-संट लिखतारऽ। कुछ कइ दीहेंसन तऽ बेटा-बेटी अनाथ होके छछने लगिहेंसन। तनी ईहो त विचार करे के चाहीं कि जवना घरी तहार भाई लोग तहरा के ना पूछत रहे आ तू विहटी पहिन के गाँव में छिछियात चलत रहऽ त हम एकनी के माई से कहि के तहार नोकरी के सिपारिस कइले रहनी आ तू एकनी के गाड़ी में बइठि के इहाँ आइल रहऽ। आज आदमी भइल त नून के सरिअत ना भुलाए के चाहीं। (गाँव के बड़े लोगों से दुश्मनी मोल नहीं लेनी चाहिए। वे लोग कुछ भी कर सकते हैं। सुना है कि तुम अखबार में इन लोगों के विरुद्ध लिख रहे हो। तुम्हारे साथ वे लोग कुछ भी कर सकते हैं। ऐसी हालत में तुम्हारे बच्चे अनाथ हो जाएंगे। तुम्हें यह भी सोचना चाहिए कि उनलोगों की वजह से ही तुम्हें नौकरी लगी है, मेरी सिफारिश पर। तुम्हें उस नमक का हक अदा करना चाहिए।)
       मैंने उन्हें समझाया कि मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर रहा हूँ जिससे उनका कोई आर्थिक या शारीरिक नुकसान हो। मैं कुछ भी लिखता हूँ तो उन्हें लगता है कि वह सब उनके विरुद्ध है, जबकि छपने के बाद देश के विभिन्न स्थानों से पत्र आते हैं जिनमें यह लिखा होता है कि मेरी  कहानियों के कथ्य और पात्र उनकी जगहों पर मौजूद हैं। मेरी यही गलती है कि मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता, बस।
       उन्होंने कहा कि मुझे यह सब मेरी समझ में नहीं आता। बस इतना ही कहना है कि तुम जाकर उनसे माफी माँग लो। इसके बाद सब ठीक हो जाएगा। उन्हें बस इतनी सी की अपेक्षा है। पहले के समय में आपस में कितना भी झगड़ा क्यों न हो जाय, गाँव के सवाल पर सभी लोग  एकमत हो जाया करते थे, चाहे उसमें अपने लोगों की ही गलती क्यों न हो। और जब तुम किसी के साथ नहीं रहोगे तो तुम्हारी ओर से तुम्हारे साथ कौन रहना चाहेगा।
       उस मुद्दे पर न तो मैं उन्हें समझा पाया और न तो वह मुझे अपनी बात मनवा सकी। मैं वैसे भी परेशान था। बड़े और शक्तिशाली लोगों की हाँ में हाँ नहीं मिलाना, किसी भी समय में बहुत बड़ा अपराध रहा है। मैं सदमे में था कि मेरे दोस्त और गाँव के लोग जब मुझे देखते अपना रास्ता बदल देते। कुछेक जो अपवाद थे, वे भी उजाले में मिलने से कतराते। मेरे द्वारा उपकृत लोगों में से अधिकांश मुझे नसीहत देते कि ऐसा नहीं करना चाहिए । अगले ही दिन अविनाश को बुलाकर इया भी उसके पास चली गई थी। फिर उसका गाँव से अविनाश के यहाँ आना जाना बना रहा था और विरक्त होकर मैंने गाँव जाना बिल्कुल ही स्थगित कर दिया । उस गाँव में जिसे मैं बहुत चाहता था और जिसे बेहतर बनाने का सपना देखा करता था, यहाँ आने से पहले जहाँ मैंने अपने घर में पुस्तकालय की स्थापना की थी और नवजवानों के बीच खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शुरूआत की थी।

कैसे मिलोगे ओ मेरे मोक्ष!
       मेरे घर पहुँचने के तीन दिन बाद ही इया गुजर गई थी। वह सन सत्तानबे के मई का महीना था। बच्चों की प्रतियोगी परीक्षाओं का समय था। नौकरियों में सालाना पैकेज का चलन शुरू हो चुका था। वह दौर समाप्त हो गया था, जब लोग गाँव छोड़कर पूरबवाली रेल गाड़ी से कोलियरी या कलकत्ता पहुँच जाया करते थे और अपनी रोजी-रोटी के लिए कोई न कोई जुगाड़ कर लिया करते थे। नौकरी से लेकर रहन-सहन तक, सभी मामलों में लोग अब पश्चिम दिशा में पयान करने लगे हैं। बैंकों से कर्ज लेकर एक एक चीज खरीदने और बदले में ईएमआइ के इस दौर में कोई भी आदमी गाड़ी और सुविधा के तमाम जरूरी गैरजरूरी चीजों के बिना नहीं रहना चाहता। शहरों के दिन-ब-दिन सुरसा के मुख की तरह बड़े होते जाने के बावजूद सड़कें दिन-ब-दिन छोटी होती जा रही हैं।
       अपने मुट्ठी भर मित्रों और गाँव के थोड़े से लोगों के साथ जब मैं गोविंदपुर-टुंडी रोड पर बने पुल के नीचे से सरकती-बहती खुदिया नदी के किनारे इया के दाह-संस्कार की तैयारी कर रहा था, मेरी पत्नी ने किसी से कहकर मुझे आंगन में बुलवाया। आंगन में एक दो औरतों के साथ पत्नी इया के निर्जीव शरीर पर कफन ओढ़ाते हुए कुछ विधियाँ पूरा कर रही थी, जिसे घाट पर जाने से पहले हिंदू परिवार में किया जाता है। मुझे देखकर उसने पूछा,
       - इन कड़ों का क्या करूँ?
       मैंने देखा, नाटे कद की इया का शरीर सिकुड़कर आकार में और भी छोटा हो गया था और उसकी गहरे सांवले रंग की कलाइयों में सफेद किंतु मद्धिम पड़ गए चांदी के कड़े और नाक में छूंछी चमक रही थी। यह वही इया थी, जिसने मुझे किशोरावस्था के पाँच साल की अवधि के दौरान एक ऐसी मजबूत छत उपलब्ध कराई थी जिसके नीचे किसी वस्तु का अभाव होने के बावजूद उसका अभाव महसूस नहीं हुआ था और जिसके ऊपर पहुँचते हीे पास की रेल लाइन पर दौड़ती रोशनडिब्बियों सहारे सपनों के लोक में कुछ भी हासिल करना संभव था। मुझे छहफुटे गोरे-चिट्टे, हट्ठे-कट्ठे बाबा याद आए। मैं विरक्ति भरी आवाज में बोला,
       -जितने भी गहने इनके शरीर पर हैं, उन्हें इनके साथ ही जल जाना चाहिए। उनकी कोई भी चीज कुछ भी हमारे पास न हो, इसे निश्चित कर लिया जाना चाहिए।
       पत्नी आस-पास किसी और को न देखकर बोली,
       -इया जी ने एक बार मुझसे कहा था कि मेरा अंतिम संस्कार काशी में किया जाय और यदि यह संभव न हो सके तो गाँव पर सरयू के किनारे जरूर हो तो मुझे मोक्ष मिल जाएगा। फिर यहाँ इस नदी के किनारे जहाँ आग जलाकर देने वाला कोई डोम भी नहीं है, वहाँ क्या ठीक रहेगा? उनका सारा तीर्थ-व्रत बेकार चला जाएगा।
       -मैं इन ढकोसलों में विश्वास नहीं करता। मरने के बाद कहीं भी जलाया जाय, क्या फर्क पड़ता है?
       -मरने वाले को फर्क न पड़े लेकिन जो लोग जिंदा हैं उन्हें तो पड़ना चाहिए। ..... और सुना है कि यह नदी एक कुष्ट अस्पताल के पीछे से होकर गुजरती है और उसका कचड़ा उसमें गिरता है।
       -किस नदी में कचड़ा नहीं गिरता? गंगा और सरयू तो सैकड़ों कस्बों और कारखानों के कचड़े, मैला-मूत्र लेकर हमारे गाँव पहुँचती है। और काशी या गाँव ले जाकर दाह संस्कार करने में चालीस-पचास हजार से कम क्या खर्च होंगे। अभी पैसा नहीं है। बच्चों को कंपटीशन देने जाना है। एक को इलाहाबाद, दूसरे को बनारस। हैं पैसे आपके पास?
       - आपने आज तक न जाने आलतू-फालतू कितना खर्च किया होगा। इया की अंतिम इच्छा पूरी करने से हमें उनका आशीष मिलेगा। कार और घर के लिए बैंक कर्ज दे रहे हैं। क्या पता इस काम के लिए भी सरकार ने कोई योजना चला रखी हो। और नहीं तो किसी यार-दोस्त से ले - देकर ही ..........।
       - न तो कार और न किसी घर से संबंधित कोई ऐसा अनुभव मेरे पास है। अपने दादा-परदादाओं की तरह मैं नहीं बनना चाहता जो दाह-संस्कार में शाहखर्च कहलाने के लिए बीघे के बीघे खेत रेहन रख दिया करते थे या बेच देते थे।
       - गाँव के खेत से तो आप लोगों को कोई मतलब नहीं रह गया है। वे इया जी  के थे। अब वे ही नहीं हैं तो क्यों नहीं उनमें से थोड़ा सा इया जी के मद में हटा देते?
       - वे अकेले मेरे नाम से नहीं हैं। भाई लोग और उनके बच्चे हैं। उनमें से कोई बम्बई तो कोई अहमदाबाद में है। आते-आते लाश सड़ जाएगी। 
       पत्नी ने मेरी ओर याचना भरी आँखों से देखते हुए कहा,
       - अच्छा मान लीजिए, इया जी की जगह मैं होती तब भी आप क्या यही करते?
       - मैं वही करता जो मेरी मान्यता के अनुकूल हो। 
       - तब तो आप तेरह दिनों तक चलने वाला श्राद्ध कर्म भी नहीं करेंगे?
       मैंने अपनी आँखें चुराते हुए कहा-नहीं, आपलोगों के लिए इतना तो करूँगा ही लेकिन श्राद्ध कर्म में जितनी मेरी औकात रहेगी उतने में ही सब कुछ करूँगा। मेरी इन सब रूढ़ियों में कोई आस्था नहीं है।
       पत्नी ने धीरे से कहा-आप अपने विश्वास के साथ रहें लेकिन दूसरों के विश्वास पर ठेस पहुँचाना क्या उचित है? क्या इया जी के साथ इसीलिए यह सब हो रहा है  क्योंकि उनकी कोई संतान नहीं है? 
       मैंने पत्नी की ओर आग्नेय नेत्रों से देखा। उसका चेहरा झुका हुआ था। दूसरी स्त्रियों की तरह इसे इन पच्चीस वर्षों में शायद पता चल चुका हो कि तमाम पति-पत्नी की भांति हमारा भी संबंध प्रेम के नहीं, विवाह के हैं, समझौते के हैं, जरूरत के हैं। यह ब्रह्मांड विचित्र है। हम जिसे प्रेम करते हैं, वह हमें शायद ही मिल पाता है और जो हमें मिलता है, हम उससे न तो प्रेम करते हैं और न संतुष्ट हो पाते और उसके साथ समागम के समय भी कहीं न कहीं किसी न किसी और में हमारा अवचेतन अटका रहता है। सबसे विचित्र तो यह है कि जिस स्त्री से हम प्रेम नहीं कर पाते, उसके गर्भ से जन्म  लेने वाले बच्चों के हँसने के समय उनके खुले मुख के भीतर कौशल्या और यशोदा की तरह हमें पूरा ब्रह्मांड नजर आने लगता है।
       पल भर के लिए लगा जैसे मैं विचलित हो जाऊँगा, लेकिन दूसरे ही क्षण मैं सजग होकर बोला-देखिए जी। यह वक्त बहस करने का नहीं है। .........वैसे मैं आज ही सबके सामने घोषणा करता हूँ कि मेरा क्रिया कर्म भी इसी खुदिया नदी के किनारे किया जाय और आर्य समाजी ढंग से केवल तीन दिन में ही सब कुछ निपटा दिया जाय। मैं तो यह भी सोच रहा हूँ कि मैं अपना शरीर दान कर दूँ।

मांगे खुद की खैर 
15 फरवरी, 2012
       इन दिनों एनसीआर के एक फ्लैट में हूँ। जनवरी के उत्तरार्ध में भयंकर रूप से बीमार पड़ गया था। बीस को अंततः अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, पर बुखार और छाती का दर्द था कि कम होने को तैयार ही नहीं था। पता लगा सीओपीडी का इन्फेक्शन है जो शुरू में ध्यान न देने की वजह से बिगड़ गया है। बड़े बेटे की कंपनी का काम इन दिनों लैटिन अमेरिका में चल रहा है। मेक्सिकों जाने का टिकट बुक हो चुका था। यात्रा स्थगित कर अपनी गर्भवती पत्नी और छोटी बच्ची को लिए दिए वह मेरे पास पहुँच गया।
       कंपनी के इस तथाकथित सुपरस्पेशियलिटी केन्द्रीय अस्पताल की हालत दयनीय थी। मंझले भाई का लड़का भी आ पहुँचा था। बेटा मुझे अपने साथ गुड़गाँव लेता गया और दामाद के स्थानीय शिष्यों के सहयोग से एक प्रसिद्ध अस्पताल में भर्ती कराया। मेरे पारिवारिक मित्र संजय ने भी सिफारिश की। छोटा बेटा पीसीएस नौकरी की प्रोबेशन अवधि होने के बावजूद बिना छुट्टी लिए अस्पताल के कैबिन में मेरी देखभाल करता रहा। कुल पंद्रह दिनों के इस सुनामी में मैंने ढेर सारे अपनों को परेशान किया। अब साइक्लोन के बाद की शांति है। दोनों बेटे अपने-अपने काम पर जा चुके हैं। बेटों और फेलोशिप के तहत कोलेरोडो में प्रवास कर रहे दामाद-बेटी के फोन आते रहते हैं और नहीं तो बड़ी बहू के माध्यम से लैपटाप पर प्रत्यक्ष बातचीत होती रहती है।
       बेटे का यह फ्लैट बड़ा है और काफी खुली जगह पर है। वह सभी कुछ मेरे लिए मौजूद है जो मुझे वहाँ  उपलब्ध था, जहाँ मैंने चालीस साल की जिंदगी बिताई है।  पास दरवाजा है जो छोटी सी बालकनी में खुलता है। दरवाजा स्वच्छ पारदर्शी शीशे का है। दाहिनी  करवट लेटने पर बालकनी के पार आकाश का एक पतला लंबा टुकड़ा दिखाई देता  रहता है। जैसे कोई एक्सप्रेसवे क्षितिज तक चला गया हो और उस आभासी सड़क को छूती, दोनों ओर ऊँची बिल्डिंगों की पंक्तियाँ खड़ी हों। उन गगनचुंबी भवनों में मल्टीप्लेक्स है, बिग बाजार है और न जाने क्या क्या हैं।
       बालकनी से बाहर दिखाई देने वाला आकाश रात में बिल्कुल नहीं दिखाई देता क्योंकि रोशनियों की चकाचैंध दीवार बनकर आंखों को रोक लेती है। आंखें मूंदने पर गाँव के मकान की छत और छत के ऊपर शामियाने के रूप में दिग्-दिगंत तक तना हुआ करोड़ों सितारों वाला आकाश दिखाई देने लगता है। बहनों के साथ ध्रुवतारे और सप्तर्षि की खोज करता मैं खुद को देख रहा होता हूँ कि गाँव के सीवान से होकर जाने वाली रेल लाइन पर से रेलगाड़ी गुजरती है। वातावरण में उसकी सीटी की आवाज गूँजने लगती है और साथ में एक गाने का मुखड़ा भी। .....कोई यूं ही मिल गया था........। कौन मिला था? कब और कहाँ मिला था। पैंतालीस कि पैंतीस कि पंद्रह साल पहले........। कि शायद कभी नहीं। 
       यहाँ मन नहीं लगता। कभी गाँव तो कभी वह जगह, जहाँ जीवनयापन के लिए चालीस साल गुजारे, याद आती है। यह तो बेटे की छह साल की बेटी है जो अपनी बांसुरी जैसी आवाज में बांध लेती है। वह डिनर के बाद मेरे पास आती है और मेरे बाएं हाथ पर अपना सिर रखकर लेटते हुए कहानी सुनने की जिद करती है। मेरी बेटी का बेटा भी जब मेरे पास होता है तो वह भी मुझसे कहानी सुनाने की जिद करता है।
       मेरे लिए यह एक अदुभुत रहस्य है कि बचपन में हर आदमी कहानियाँ क्यों सुनना चाहता है और उस वक्त की सुनी हुई कहानियाँ उसकी मृत्यु तक उसके साथ-साथ क्यों चलती रहती हैं? और कहानियाँ सुनाने वाले दादी-दादाओं के लिए यह सुख अपनी किसी  भी अन्य उपलब्धि से बड़ा क्यों लगा करता है? 
       मुझे कोई कहानी याद नहीं आती तो नाम-स्थान बदलकर अपने गाँव, मकान, बाबा, इया और पिता से जुड़ी घटनाओं को कहानी की शक्ल देकर सुना दिया करता हूँ। ऐसा करना स्मृतियों के बीच से गुजरना हुआ करता है। कोल्हुआड़े केले के पत्तों पर महिया और राब खाते माधो, गिरिधर और नागा के साथ में खुद दिखाई देता हूँ, भर्राई आवाज में यह बोलते हुए बाबा नजर आते हैं कि बबुआ मनोहर, भरोसे के लिए अब तुम्हीं बच गए हो। घूमते हुए चाक पर लिटाई गई मजदूर की निर्जीव देह और उसके पास बैठी अपनी छाती पर दोहत्थड़ मार-मारकर सरापती उसकी माँ दिखाई देती है। आदी औलादी के उस घर का उपभोग न करने का शाप क्या वाकई शाप निकला या फिर उसके किसी अलौकिक शक्ति की स्वामिनी न होने की वजह से वह उल्टा होकर वरदान में तब्दील हो गया?
       असलियत तो यह रही कि न तो हमारा परिवार उस मकान से दूर, गाँव से दूर होता और न हम बैलों-गायों और खेतों की गोबर-मिट्टी में लेथराते और श्रम करते हुए सदियों पुरानी अभावग्रस्त जिंदगी से निकलकर देश-विदेश में सुविधापूर्ण जिंदगी का उपभोग करते। 
       आजकल के बच्चे जेहनी तौर पर अपनी उम्र से ज्यादा के हो जा रहे हैं। बच्ची घटनाओं का हर मर्म तो शायद न समझती हो किंतु प्रश्न पूछ-पूछकर आजिज कर दिया करती है और अंत में नींद में प्रवेश करते-करते भाष्य के रूप में कह जाती है कि जिसने अपने दादा के भरोसे को तोड़ा और अपनी दादी की इच्छा पूरी नहीं की वह आदमी गंदा था और उसका पिता तो उससे भी गंदा था जिसने अपने पिता को तब गाली दी थी जब वह खाना खा रहा था।
       बहुत दिनों के बाद रात में नींद आती है। सुबह जब बहू चाय लेकर आती है तो मैं बोल पड़ता हूँ कि बेटा कब लौटेगा? वह आता तो मैं भी  अपने चालीस साल के ठीहे पर वापस लौट जाता। बहू कहती है,
       - उन्होंने कहा है कि आपको अब यहीं रहना है। यहाँ सब कुछ तो है। पढ़िए, लिखिए और बच्चों के साथ रहिए। वहाँ जाकर आप फिर दौड़-भाग करेंगे, लापरवाही होगी और कुछ फिर से हो जाएगा तो आपके साथ-साथ  परेशान  होना पड़ेगा। आपके बच्चों को जो जगह रोजी-रोटी देती है, वही अपनी है, आपकी है।
       उसके जाने के बाद मैं पत्नी को देखता हूँ। वह अपना हाथ मेरे ललाट पर रखकर आर्द्र नेत्रों से मेरी ओर देखती है। फिर बोलती है,   
       - आपको जब ज्यादा बुखार था तो आप बहुत कुछ बोला करते थे। कि मुझे उसी जगह ले चलो जहाँ मेरा पिछला समय पड़ा हुआ है। जहाँ रहते हुए मेरे बच्चे पढ़ लिखकर वहाँ पहुँचे हैं जहाँ की कल्पना भी मैंने नहीं की थी।
       मैं गौर से देखता हूँ तो पत्नी की आँखों में से इया झांकती दिखाई देती है। मैं सहमकर आँखें बंद कर लेता हूँ। अंदर इया की सरयू के साथ मेरी खुदिया और बहू की हिंडन एक होकर बहती नजर आ रही हैं। 
       ........ और अगर वह शाप नहीं था तो फिर मैं अश्वत्थामा बना इन तीनों नदियों की कछार में भटकने के लिए आखिर विवश क्यों हूँ।       
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मोबाइल: 09430707409

‘बया‘... 2013

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